भारतीय परंपरा में जीवन में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास चारों ही आश्रम आवश्यक, महत्वपूर्ण और श्रमशील, कर्मप्रधान माने गये हैं। गृहस्थ सत्य है। सन्यास भी सत्य है। जीवन के दो पक्ष हैं। संसार के भोगों से पूर्वजन्म में ही निवृत्ति प्राप्त कर लेने वाला व्यक्ति इस जन्म में इस ओर रुचि नहीं रखता। लेकिन किसी एक अथवा कुछ लोगों के किसी वस्तु में रूचि नहीं होने से वह मिथ्या नहीं हो जाता।
वेद जीवन जीने का ज्ञान प्राप्त करने का साधन सब मनुष्यों की पहुंच में लाने के लिए न्यायी और दयालु परमात्मा के ज्ञान का उपदेश आदि सृष्टि में अथवा मानवसृष्टि के होते ही दिया गया सबसे प्राचीन ग्रंथ है। वेद ईश्वरीय ज्ञान के ग्रंथ हैं। वेदों में पूर्ण ज्ञान है। पूर्ण केवल मात्र परमात्मा ही है। मनुष्य को जो कुछ जानना आवश्यक है, वह सब वेद में है। उस सबका भी मूल मात्र ही है। उस मूल का ही मनुष्य बुद्धि के प्रयोग द्वारा विस्तार करता है। ईश्वरीय ज्ञान के ग्रंथ वेद में सब सत्य विद्याओं का मूल उपस्थित है और इनमें सत्य के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है।
वेदानुसार मानव लिखे ग्रंथ हैं -ब्राह्मण, दर्शनशास्त्र और ग्यारह उपनिषद। ये आर्ष अर्थात वैदिक ग्रंथ हैं। अन्य ग्रंथ वेदानुकूल होने से ही माननीय है, अन्यथा नहीं। वैदिक सत्य ज्ञान से वंचित होने, दूर होने के कारण बहुसंख्यक भारतीय हिन्दू समाज में बहुत सी कुरीतियां घुस आई है। वे कुरीतियां वेदानुकूल न होने से हिन्दू समाज के अंग नहीं। उनको हटाने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। इस देश में बसे सभी लोगों को सत्य मत को मानना और परस्पर मैत्रीभाव से रहते हुए सुख तथा शान्ति का सुखभोग करना चाहिए। किसी से द्वेष नहीं रखना चाहिए। असत्य और अधर्म से ही विरोध रखना चाहिए और किसी बात अथवा मत का खण्डन प्रेमपूर्वक वार्तालाप द्वारा करना चाहिए।
यह सत्य है कि संसार में भले लोग सब देशों में रहते हैं। सब मत- मतान्तरों में भी सत्य और हितकर बातें हैं। वे सब भलाई की हितकर एंव सत्य बातें वेदों से ही उनके देश अथवा मतों में गई है। उनमें बहुत कुछ मिथ्या और भ्रममूलक मिलावट है। इसलिए सत्य के मूल स्रोत वेदों को ही मानना कल्याणकारी हो सकता है। वेद के प्रतिकूल बातों को मानना अहितकर हो सकता है। वेदों के महान विद्वान और हिन्दू समाज के सुधार के पक्ष में संघर्ष करने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार सब मत- मतान्तरों में कुछ- कुछ सच्चाई उपस्थित है। वह सच्चाई वेद से ही उनमें गई है। उस सच्चाई के साथ मनुष्य विचारित बहुत सी बातें जो गलत हैं, मिल गई हैं। अत: सत्य असत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिए। वेद एक कसौटी है, जिस पर कस कर सत्य और असत्य का निर्णय किया जा सकता है।
वेद ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण सिद्ध है कि वेद सत्य विद्याओं की पुस्तक है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है। अर्थात सत्य ज्ञान की प्राप्ति में वेद भी साधन हैं। इनके अतिरिक्त भी साधन हैं। वेद को छोड़कर भी प्रत्येक विषय को युक्ति द्वारा भी सिद्ध किया जा सकता है। युक्ति करने का यंत्र बुद्धि है। इसलिए बुद्धि को निर्मल और सबल करने के लिए कुछ उपाय हैं। उनको प्रयोग किया जाना चाहिए। हमारे दर्शनशास्त्र इसका ज्ञान देते हैं। फिर भी वैदिक सत्य ज्ञान से दूर होने के कारण इस सत्य, इस प्रत्यक्ष ज्ञान को भूलकर कुछ लोग जागृतावस्था में प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि स्वप्नवत इस संसार को सत्य मानने लगते हैं। लेकिन सत्य यह है कि यह स्वप्नवत मिथ्या है। वास्तव में यह मिथ्या सत्य है और इसे मिथ्या मानने वाले सोये हुए स्वप्न देख रहे हैं। ऐसे मत वालों का कहना है- ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।
वास्तव में ऐसा मानने वाले स्वप्न देख रहे प्रतीत होते हैं। क्योंकि यह जगत स्वप्नवत नहीं है, बल्कि यह तो प्रत्यक्ष है। इसके ये भिन्न- भिन्न रूप क्षर हैं। मूल प्रकृति अर्थात जिससे यह सब दिखाई देने वाला बना है, अनादि और अक्षर है। संसार में रहते हुए संसार का भोग सत्य और हितकर है।
भारतीय परंपरा में जीवन में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास चारों ही आश्रम आवश्यक, महत्वपूर्ण और श्रमशील, कर्मप्रधान माने गये हैं। गृहस्थ सत्य है। सन्यास भी सत्य है। जीवन के दो पक्ष हैं। संसार के भोगों से पूर्वजन्म में ही निवृत्ति प्राप्त कर लेने वाला व्यक्ति इस जन्म में इस ओर रुचि नहीं रखता। लेकिन किसी एक अथवा कुछ लोगों के किसी वस्तु में रूचि नहीं होने से वह मिथ्या नहीं हो जाता। गृहस्थ और सन्यास में अंतर नहीं है। दोनों आश्रमों में रहते हुए मनुष्य लोक कल्याण का कार्य कर सकता है। उसे फिर मोक्ष की प्राप्ति भी सिद्ध हैं। मोक्षप्राप्ति -यह मानव जन्म ऊपर चढऩे का एक साधन है।
गृहस्थ, सन्यास और फिर विवेक तथा मोक्ष। ये पग-पग कर चलने की बातें हैं। जो प्रथम पग न चल कर द्वितीय पग चलते हैं, वे लम्बी छलांग न लगा सकने पर गिर भी सकते हैं। एक बात और है वह है कर्म। आत्मा किसी भी पग पर कर्महीन नहीं हो होता। जीव कर्महीन तो केवल प्रलय काल में होता है। उस काल में वह सोया रहता है। अन्य काल में वह जाग्रत होता है और कर्म करता रहता है। कर्म भिन्न- भिन्न सोपानों पर भिन्न- भिन्न है। अर्थात मोक्षावस्था में भी कर्म होते हैं। यह सत्य नहीं कि मनुष्य कर्महीन होने से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यह भी सत्य नहीं कि मोक्ष पद पर भी जीव के कर्म करने से वह कर्मफल के बंधन में बंध जायेगा। कारण यह है कि कर्म मरण- जन्म में नहीं बांधता, अपितु यह फल की कामना है, जो बांधती है। निष्काम भाव से किया कर्म मनुष्य को किसी भी स्थिति से नहीं बांधता।
मोक्षावस्था में जीव को वह सब कुछ जो है, अथवा हो सकता है, वह प्राप्त हो जाता है। अन्य कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहता। इसलिए कामना नहीं होती और बंधन में बंधने की संभावना अति न्यून होती है। न्यून का अभिप्राय है- पूर्ण नहीं। सब कुछ प्राप्त होने पर भी जीव में उत्कंठा रहती है कि कुछ और है। और कभी -कभी वह उत्कंठा उसे इस संसार में पुन: आ जाने पर विवश कर देती है। मोक्ष का परम पद ज्ञानवान होने से होता है। यह ज्ञान जीव का नैसर्गिक गुण नहीं। यह उसकी उत्कंठा अर्थात इच्छा का ही फल है। उत्कंठा ज्ञानवान होने पर भी बनी रहती है। इसलिए पूर्ण पर ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त होने पर भी उत्कंठा के कारण जीव पुन: संसार में आ, प्रकृति का भोग करने लग जाता है और वह पुन: इस ब्रह्मचक्र में फंस जाता है।
ज्ञान संस्कारों की देन है। संस्कारों का स्थान अर्थात मन मोक्ष अवस्था में साथ नहीं रहता। इसलिए मोक्षावस्था में नवीन ज्ञान प्राप्त नहीं होता। ज्ञान रूपी संस्कार काल व्यतीत होने पर झड़ते चले जाते हैं। और समय पाकर मन्वन्तर अथवा कई मन्वन्तरों के उपरान्त ज्ञान कम होने से ही उत्कंठा जाग्रत हो पड़ती है तथा जीव प्रकृति के भोगों की लालसा करने लगता है। वह पुन: इस लोक में अथवा अन्य किसी लोग में आ जाता है और पुन: हंस के समान नवीन भंवर में फंस जाता है।
प्रत्यक्ष, अनुमान एंव शब्द इन तीनों ही प्रमाणों से इस वैदिक सिद्धांत को सिद्ध किया जा सकता है। इस ब्रह्मांड में ऐसा कुछ भी नहीं जो इनसे सिद्ध नहीं हो सकता। सांख्य दर्शन में कहा है-
तत्सिद्धौ सर्वसिद्धेर्नाधिक्यसिद्धि:।
-सांख्यदर्शन प्रथम अध्याय सूत्र 88
अर्थात- इनसे ही सब कुछ सिद्ध होता है। इनसे अधिक सिद्ध होने को कुछ नहीं।
इसी प्रकार प्रत्पक्षान्तर्गत ही योग से सिद्धि को गिनाया गया है-
योगिनामबाहा्रप्रत्यक्षतवान्न् दोष:।।
अर्थात- योगीजन जो कुछ प्रत्यक्ष देखते हैं, उसमें दोष नहीं होता।
अनुमान प्रमाण के आधार पर ही तो दर्शनशास्त्र वास्तविक सत्य का दर्शन कराते हैं। अनुमान का दूसरा नाम युक्ति है। इसे सत्तवस्थ बुद्धि से किया गया तर्क भी कह सकते हैं। इसके अतिरिक्त शब्द प्रमाण भी है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम दो सूक्त के मंत्रों के अनुसार मुक्त आत्मायें भी ईश्वर की कृपा से पुन: माता-पिता को प्राप्त होती हैं। योग साधना से बुद्धि निर्मल होती है और बुद्धि ही जीव की उत्कंठा को मोक्ष की ओर अभिमुख करती है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि अपने नियत कर्म को करता हुआ प्राणी प्रत्येक प्रकार की सिद्धि प्राप्त कर सकता है। वेद का भी यही मत है। स्त्रियां भी सब अपने स्त्रीधर्म का पालन करती हुई ज्ञान प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति के लिए यत्न कर सकती है। सब स्त्री- पुरुषों के लिए वेद पढने- पढ़ाने, ज्ञान प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति का अधिकार है। इसलिए वेदाध्ययन, वेदाध्यापन का प्रबंध सरकार, स्थानीय श्रीमान और धर्माभिमुख लोगों को करना चाहिए।