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कठघरे में है सरकार की विदेश नीति

यह वक्त गहरे आत्म-निरीक्षण का है। भारत के नीति निर्माताओं को इस बात की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए कि वैसे तो पिछले साढ़े तीन दशक में, लेकिन खासकर पिछले नौ वर्षों के दौरान विदेश नीति संबंधी जो प्राथमिकताएं तय की गईं, उनसे देश को असल में क्या हासिल हुआ है? क्या इस प्राथमिकताओं से भारतीय जनता के हित सधे हैं? और इनसे भारत अपने इतिहास, अपने आकार, अपनी शक्ति, और अपनी संभावनाओं के अनुरूप विश्व मंच पर अपनी हैसियत बनाने में कामयाब हुआ है?

बात की शुरुआत हाल में घटी कुछ घटनाओं के जिक्र से करते हैं। ध्यान दीजिएः

इस घटना के पहले इजराइल-फिलस्तीन युद्ध के सिलसिले में भी भारत सरकार के रुख को लेकर कई सवाल उठे। सात अक्टूबर को इजराइल पर हमास के हमले के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे आतंकवादी हमला बताते हुए यह एलान कर दिया कि भारत इजराइल के साथ खड़ा है। पश्चिम एशियाई देशों में इस पर कड़ी प्रतिक्रिया होना लाजिमी था। संभवतः उसी का नतीजा हुआ कि प्रधानमंत्री ने फिलस्तीनी प्राधिकरण के राष्ट्रपति मोहम्मद अब्बास को फोन कर फिलस्तीनी मुद्दे पर भारत का परंपरागत रुख दोहराया- यानी यह कि भारत फिलस्तीनियों के स्वतंत्र एवं संप्रभु राज्य की स्थापना का समर्थक है।

इजराइल की तरफ से गाजा में जारी नरसंहार से दुनिया भर में लोगों की संवेदनाएं रोज अधिक आहत हो रही हैं। अमेरिका और उसके पिछलग्गू देशों को छोड़ दें, तो बाकी सारी दुनिया के लिए गाजा में युद्धविराम लागू कराना सर्वोच्च प्राथमिकता बनती जा रही है। मगर इस बारे में भारत की क्या राय है और भारत क्या पहल करने की स्थिति में है, यह बात दुनिया के विमर्श में सिरे से गायब है।

बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। बल्कि भारतीय हितों के लिहाज से आज नरेंद्र मोदी सरकार की पूरी विदेश नीति कठघरे में खड़ी नजर आती है। यह साफ है कि मोदी सरकार ने अपनी विदेश नीति में अमेरिकी धुरी से निकटता बनाने को प्राथमिकता दी। इस प्रयास में ग्लोबल साउथ (विकासशील दुनिया) में बन रहे नए समीकरणों से उसने अपेक्षाकृत एक दूरी बना ली। इनमें वे समीकरण भी शामिल हैं, जिनकी नींव डालने में अतीत में भारत की प्रमुख भूमिका रही थी।

मसलन, इस वर्ष भारत जी-20 के साथ-साथ शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन का भी मेजबान था। मगर ऐन वक्त पर भारत ने अपनी प्राथमिकता सूची में एससीओ का दर्जा गिराते हुए इस शिखर सम्मेलन को वर्चअल माध्यम से आयोजित करने का फैसला किया। स्वाभाविक रूप से इस पर एससीओ के बाकी सदस्य देशों में विपरीत प्रतिक्रिया देखने को मिली। समझा जाता है कि इससे चीन के साथ भारत का दुराव और बढ़ा।

उधर चूंकि जी-20 एक प्रासंगिकता खोता हुआ मंच है, इसलिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग उसके नई दिल्ली शिखर सम्मेलन में नहीं आए। अनेक पर्यवेक्षकों ने इसे महत्त्वपूर्ण माना है कि उन्होंने अपने ना आने की सूचना देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत रूप से फोन करने की औपचारिकता तक नहीं निभाई, जैसाकि रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने किया, जो संभवतः किसी अन्य कारण से शिखर सम्मेलन में नहीं आए।

एससीओ शिखर सम्मेलन का जब ऑनलाइन आयोजन करने की घोषणा हुई थी, तब एक राय यह जताई गई थी कि भारत ने अमेरिका को सकारात्मक संदेश देने के लिए यह निर्णय लिया, जिससे निकटता बनाना मोदी सरकार की प्राथमिकता रही है। उस शिखर सम्मेलन से ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी की हाई प्रोफाइल वॉशिंगटन यात्रा हुई थी। मगर उन घटनाओं के बाद क्या हुआ, अब उस पर नजर डालना उचित होगाः

             निज्जर हत्याकांड के मामले में कनाडा ने भारत पर अत्यंत गंभीर आरोप लगाए, जिसका अर्थ यह है कि भारत अंतरराष्ट्रीय कायदों का पालन नहीं करता है।

             अमेरिका इस विवाद में पूरी तरह कनाडा के पक्ष में खड़ा हुआ।

             यही रुख ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया का भी रहा, जिनसे संबंध बेहतर करना मोदी सरकार की प्राथमिकता रही है।

इस बीच अमेरिका चीन से अपने संबंध को एक सीमा से ज्यादा ना बिगड़ने देने की नीति को आगे बढ़ा रहा है। यूरोपीय देश भी अपने-अपने ढंग से चीन से संबंध को संभालने की कोशिश में जुटे हुए हैं। गौर कीजिएः

             चीन के विदेश मंत्री वांग यी इस समय (26 से 28 अक्टूबर) अमेरिका की यात्रा पर हैं। इस दौरान उनकी अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से वार्ता होगी।

             समझा जाता है कि वांग की यात्रा अगले महीने अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में होने वाले एशिया पैसिफिक इकॉनमिक को-ऑपरेशन (एपेक) शिखर सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की व्यक्तिगत रूप से भागीदारी को सुनिश्चित करने के सिलसिले में हो रही है।

             संभावना है कि एपेक सम्मेलन के दौरान शी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की शिखर वार्ता होगी। गौरतलब है कि जब शी ने जी-20 शिखर सम्मेलन में ना आने का फैसला किया था, तब बाइडेन ने उस पर यह कहते हुए निराशा जताई थी कि इससे दोनों के बीच द्विपक्षीय वार्ता का मौका हाथ से चला गया। तब से अमेरिकी कूटनीतिज्ञ एपेक शिखर सम्मेलन में शी की उपस्थिति सुनिश्चित कराने के प्रयासों में जुटे रहे हैं।

             ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज अगले महीने चीन की यात्रा करेंगे। हाल में अल्बानीज सरकार चीन से अपने रिश्ते सुधारने के प्रयासों में रही है। यह यात्रा उसी सिलसिले की कड़ी है।

             उधर जापान और चीन के बीच शांति संधि होने की 45वीं वर्षगांठ पर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने फोन पर एक दूसरे को बधाई दी।

इन तथ्यों का जिक्र हमने इसलिए किया, क्योंकि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान भी भारत के साथ क्वाड्रैंगलुर सिक्युरिटी डायलॉग (क्वैड) के सदस्य हैं। क्वैड का गठन अमेरिकी पहल पर हुआ, हालांकि इसके गठन का सुझाव सबसे पहले जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे की तरफ से आया था। समझा जाता है कि क्वैड चीन को घेरने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है।

मगर अमेरिका की घोषित नीति यह है कि वह चीन से शत्रुता नहीं चाहता। बल्कि चीन से संबंध विच्छेद (decoupling) की नीति को भी बदल चुका है और अब उसकी नीति चीन से संबंध में अपने लिए जोखिम घटाने (de- risking) भर की रह गई है। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने इसी हफ्ते अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ी प्रमुख पत्रिका फॉरेन अफेयर्स में लिखे एक लेख में कहा है- ‘हमसे अक्सर पूछा जाता है कि चीन से प्रतिस्पर्धा में अमेरिका का अंतिम लक्ष्य क्या है। हमारा अनुमान यह है कि भविष्य में जहां तक हम देख पाते हैं, चीन की विश्व मंच पर एक बड़ी भूमिका रहेगी। हमारा प्रयास मुक्त, खुले, समृद्ध और सुरक्षित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था निर्मित करने का है- एक ऐसी व्यवस्था जिसमें अमेरिका और उसके मित्रों के हित सुरक्षित रहें और जिसमें दुनिया की भलाई हो। हमारा वैसा मकसद हासिल करने की कोशिश में नहीं हैं, जिसका परिणाम सोवियत संघ के विघटन में हुआ था। चीन के साथ हमारी प्रतिस्पर्धा में उतार-चढ़ाव आएंगे, जिसमें अमेरिका फायदा उठाएगा, लेकिन साथ ही चीन भी ऐसा करेगा।’

तो यह अमेरिकी नीति है। ऐसे में ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया या यूरोपीय देश भी चीन के साथ अपने संबंधों में अपने हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं है। लेकिन अब प्रश्न उठता है कि इस परिघटना के बीच भारत कहां खड़ा है? या इसे सवाल को ऐसे भी पूछा जा सकता है कि क्वैड में सहभागी या अन्य भारत के कथित पश्चिमी मित्र देश अपनी चीन नीति में भारतीय हितों को कितनी प्राथमिकता दे रहे हैं?

हकीकत यह है कि भारत आज इस मोर्चे पर अलग-थलग खड़ा दिखता है। दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देशों ने अपने हित के मुताबिक नीति तय कर ली है। अमेरिका ने चीन के मामले में साथ-साथ प्रतिस्पर्धा और सहयोग की नीति अपना ली है। उसके खेमे के अन्य देशों ने भी यही नीति अपना रखी है। जबकि, फिलहाल ऐसा दिखता है, ना सिर्फ चीन के साथ, बल्कि ग्लोबल साउथ के बड़े हिस्से के साथ भी भारत के संबंध भटकाव का शिकार हो गए हैं।

ऐसा उस समय हुआ है, जब दुनिया एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है। ये वो दौर है, जिसमें दुनिया की आर्थिक, सैनिक एवं सूचना व्यवस्था पर से पश्चिम का वर्चस्व टूट रहा है। ऐसे में ग्लोबल साउथ में जो धुरी उभर रही है और जो नए समीकरण बन रहे हैं, उनमें भारत से अपेक्षा अग्रणी भूमिका निभाने की रही है। लेकिन गलत प्राथमिकताओं ने भारत को ऐसी जगह पर ला खड़ा किया है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का दोस्त कौन है, इसकी पहचान करना मुश्किल हो गया है।

इसीलिए यह वक्त गहरे आत्म-निरीक्षण का है। भारत के नीति निर्माताओं को इस बात की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए कि वैसे तो पिछले साढ़े तीन दशक में, लेकिन खासकर पिछले नौ वर्षों के दौरान विदेश नीति संबंधी जो प्राथमिकताएं तय की गईं, उनसे देश को असल में क्या हासिल हुआ है? क्या इस प्राथमिकताओं से भारतीय जनता के हित सधे हैं? और इनसे भारत अपने इतिहास, अपने आकार, अपनी शक्ति, और अपनी संभावनाओं के अनुरूप विश्व मंच पर अपनी हैसियत बनाने में कामयाब हुआ है? अगर इन प्रश्नों का उत्तर नकारात्मक है, तो जाहिर है, विदेश नीति की पूरी समीक्षा कर उसमें तुरंत मूलभूत परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

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