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इजराइलः जीत फ़ौरी है और हार टिकाऊ

कहानी का मुख्य पहलू है कि फिलस्तीनियों के साथ बेलगाम ज्यादती और गज़ा में मानव संहार को आगे बढ़ाते हुए इजराइल किस तरह दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है। उसके उद्दंड व्यवहार के कारण खाड़ी, अरब और इस्लामी दुनिया में नए समीकरण बन रहे हैं। पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हुआ रक्षा समझौता इसकी एक मिसाल है। पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि ये बदलते समीकरण और दुनिया में उग्र होती मानव संहार विरोधी प्रतिक्रिया दीर्घकाल में इजराइल के लिए गंभीर संकट का कारण बनेंगे।

फिलस्तीन के गजा में लगभग दो साल से जारी मानव संहार पर ध्यान दें, तो बेशक यह धारणा बनेगी कि “निरीह” फिलस्तीनियों का सफाया अब तय है।।।। और इस तरह इजराइल नदी से सागर (river to sea- जॉर्डन नदी से भूमध्य सागर तक- जहां 76 साल पहले पूरे इलाके पर फिलस्तीनी बसते थे) तक कब्जा जमाने में कामयाब हो जाएगा। इस तरह अब मानव संहारक (genocidal) रूप ले चुकी Zionist (यहूदीवादी) परियोजना सफल हो जाएगी।

सात अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद से जारी इजराइली मानव संहार की प्रत्यक्ष कार्रवाइयों में 65 हजार से अधिक फिलस्तीनी मारे जा चुके हैं। इनमें दो तिहाई संख्या महिलाओं और बच्चों की है। परोक्ष रूप से कितनी मौतें हुई हैं, इसका ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। तकरीबन एक साल पहले ब्रिटिश पत्रिका द लासेंट ने अनुमान लगाया था कि बेघर होने, अस्पतालों के नष्ट होने से इलाज के अभाव, भोजन-वस्त्र के अभाव और इजराइली हमलों के बाद फैली बीमारियों के कारण लगभग दो लाख 80 हजार लोग मरे हैं। उसके आधार पर अंदाजा लगाया जाता है कि आज ये संख्या छह लाख पार चुकी है। इस दौरान गजा में आवास और बुनियादी सुविधाओं का जो विनाश हुआ है, वह एक अलग कहानी है।

फिलस्तीनी संगठन हमास ने जब हमला किया, तो उसकी कुछ वजहें फिलस्तीन के अंदर इजराइल की लगातार तेज हो रही ज्यादतियां थीं, तो कुछ भू-राजनीतिक। इसके अलावा उसका यह भरोसा भी संभवतः एक कारण था कि इजराइल विरोधी ‘प्रतिरोध की धुरी’ (axis of resistance) इतनी मजबूत हो गई है कि इजराइल के अतिरेक पर वह लगाम लगा पाएगी। इस धुरी में लेबनान स्थित हिज्बुल्लाह, बशर अल-असद के नेतृत्व में सीरिया, इराक स्थित इस्लामिक रेजिस्टैंस फोर्स, और यमन स्थित अंसारुल्लाह (हूती) शामिल रहे हैं। इन सबके ईरान से करीबी रिश्ते हैं। पश्चिमी मीडिया में axis of resistance को अक्सर ईरान के प्रॉक्सी के रूप में पेश किया जाता है।

अब दो साल बाद सूरत यह है कि गज़ा में इजराइल की मानव संहारक कार्रवाइयों ने हमास नेतृत्व को काफी कमजोर कर दिया है (हालांकि जवाबी हमले करने की हमास की क्षमता अब भी बरकरार है)। इजराइल अब गज़ा पर कब्जा करने और वहां से फिलिस्तीनियों को खदेड़ने के लिए जमीनी युद्ध छेड़ चुका है। हिज्बुल्लाह के पूरे तत्कालीन नेतृत्व को पिछले वर्ष उसने खत्म कर दिया, जिससे यह संगठन आज काफी कमजोर अवस्था में है। सीरिया में तख्ता पलट हो गया, जिसके बाद अमेरिकी प्रॉक्सी की वहां सरकार बन गई है।

इस तख्ता पलट में तुर्किये ने संदिग्ध भूमिका निभाई, जिससे यह संदेश गया कि फिलस्तीन के लिए मुस्लिम देशों का समर्थन दिखावा भर है। यमन के हूती अब भी लड़ाई जारी रखे हुए हैं, लेकिन इसकी महंगी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी है। अमेरिकी और इजराइली हमलों में यमन को भारी क्षति हुई है। इराक स्थित इस्लामिक रेजिस्टैंस फोर्स की पहले भी सीमित भूमिका ही थी। इस बीच इजराइल के साथ 12 की सीधी लड़ाई के बाद ईरान अपनी ताकत को पुनर्संगठित करने में जुटा हुआ है। फिलहाल उसकी कोशिश संभल कर चलने की है। तो साफ है कि axis of resistance की स्थिति इस समय अच्छी नहीं है।

इसीलिए इजराइल का मनोबल इतना बढ़ा कि उसने गुजरे नौ सितंबर को कतर की राजधानी दोहा पर हमला बोल दिया। इसके बावजूद कि कतर इजराइल और हमास के बीच मध्यस्थ की भूमिका में रहा है। जिस समय इजराइल ने दोहा पर बम गिराए, उस समय भी कतर इसी भूमिका में था। गज़ा में युद्धविराम पर वार्ता के लिए उस वक्त हमास के नेता दोहा में थे। वे वहां के डिप्लोमैटिक एरिया में ठहरे हुए थे, जहां बमबारी हुई।

अमेरिका का दावा है कि उसे इजराइल ने हमले से ठीक पहले सूचित किया। इसलिए हमला रोकने के लिए वह कुछ नहीं कर पाया। लेकिन ये बात शायद ही किसी के गले उतरी हो। इजराइल बिना ट्रंप प्रशासन की सहमति के पश्चिम एशिया में अमेरिका से सबसे करीबी सहयोगी देश पर हमला करेगा, यह मुमकिन नहीं है। यह बात इससे भी साबित होती है कि हमले के बाद भी ट्रंप प्रशासन ने उसकी दो टूक निंदा नहीं की। ना ही उसने इजराइल को “अनुशासित करने” के कदम उठाए। उलटे उस हमले के विरोध में जिस रोज मुस्लिम एवं अरब देशों के नेता दोहा में जुटे, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो इजराइल को समर्थन देने वहां गए। उन्होंने गजा में जमीनी हमले की इजराइली योजना को वहां ‘हरी झंडी’ भी दी।

यह तो इजराइल की स्थापना से लेकर उसके बाद के हर मुकाम पर स्पष्ट रहा है कि इजराइल बेखौफ होकर तमाम हदों को पार करते हुए बर्बर कार्रवाइयां इसलिए कर पाता है, क्योंकि उसकी पीठ पर दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति का हाथ है। उसकी हर कार्रवाई पहले ब्रिटेन, और फिर अमेरिका के संरक्षण में हुई है। और चूंकि अमेरिका का प्रत्यक्ष समर्थन इजराइल के साथ है, तो फिलस्तीनी जिस अरब बिरादरी का हिस्सा हैं, उससे संबंधित ज्यादातर देशों ने फिलस्तीन की आजादी को जुबानी समर्थन देने तक खुद को सीमित रखा है। कम-से-कम 1967 के छह दिन के युद्ध और 1973 के योम किप्पुर युद्ध के बाद की तो यही कहानी रही है। इन दोनों युद्धों में इजराइल विजेता रहा था।

पिछले दो साल में गज़ा में जारी मानव संहार में भी अमेरिका ने इजराइल को हर तरह की मदद दी है। पूर्व जो बाइडेन की छवि ‘जिनोसाइड जो’ की बनी थी, फिर उनका प्रशासन कभी-कभार नाराजगी का दिखावा जरूर करता था। मगर डॉनल्ड ट्रंप ऐसे पाखंड नहीं करते। उन्होंने और उनके प्रशासन ने गज़ा से फिलस्तीनियों की बेदखली की इजराइली योजना को खुल कर समर्थन दिया है। इसीलिए दुनिया का बहुत बड़ा जनमत गजा में जारी मानव संहार को अमेरिका- इजराइल की साझा परियोजना मानता है।

पहले जब कहा जाता था कि इजराइल सेटलर कॉलोनियल प्रोजेक्ट के जरिए बना मध्य पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद की चौकी है, तो इसे समझना बहुत से लोगों के लिए कठिन होता था। मगर पिछले दो साल में यह समझना अधिक आसान हो गया है। इस दौरान सब कुछ इतना बेलाग-लपेट के हुआ है कि नंगी आंखों से भी उसके सच को देखना संभव बना रहा है।

और यही वो बात है, जिससे कहानी बदल जाती है। इस कथा ने उस सॉफ्ट पॉवर को क्षीण कर दिया है, जो अमेरिकी/ पश्चिमी साम्राज्यवाद को एक किस्म का नैतिक आवरण देता था। यह सॉफ्ट पॉवर मीडिया, थिंक टैक्स, हॉलीवुड आदि के जरिए लोगों के दिमाग में यह बैठा कर बनाया गया था कि पश्चिमी सभ्यता लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानव अधिकार, खुला समाज और नियम आधारित विश्व व्यवस्था के खंभों पर टिकी है। वैसे तो आम जन में बढ़ती जागरूकता ने इस धारणा को पहले ही कमजोर करना शुरू कर दिया था, मगर गज़ा में दुनिया ने जो देखा, उसने इस कथानक को छिन्न-भिन्न कर दिया है।

आखिर फिलस्तीन में सबसे अलग क्या हुआ है?

              सेटलर कॉलोनियज्म (उस तरह का उपनिवेशवाद जिसमें यूरोपीय आक्रांता जिस देश में गए, वहां के मूलवासियों का लगभग सफाया कर वहां बस गए- मसलन, अमेरिका, कनाडा, लैटिन अमेरिका के अनेक देश, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि) चार सौ से भी अधिक पुरानी परिघटना है। मगर फिलस्तीन अकेला उदाहरण है, जहां ऐसा मानव अधिकार घोषणापत्र पर आधारित संयुक्त राष्ट्र के गठन, मानव संहार विरोधी वैश्विक संधि और आधुनिक विश्व व्यवस्था का आधार तमाम तरह की अन्य संधियों के संपन्न होने के बाद हुआ है।

              गज़ा में मानव संहार पहली घटना है, जिसका सोशल मीडिया पर लाइव प्रसारण हुआ है। यानी यह ऐसी घटना नहीं है, जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं हो। रोजमर्रा के स्तर पर, पल-पल मिल रही खबरों के बावजूद इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया है, तो जाहिर है, ऐसा इजराइल को बड़ी ताकतों- खासकर अमेरिका के समर्थन के कारण हुआ है।

              संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका बिना शर्त युद्धविराम प्रस्ताव का विरोध करता रहा है। कुछ समय पहले तक कई यूरोपीय देशों का भी ऐसा ही व्यवहार था।

पश्चिम के इस रुख का क्या असर हुआ है?

यही वजह है कि ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, आयरलैंड, कनाडा, पुर्तगाल, न्यूजीलैंड आदि जैसे पश्चिमी खेमे के अनेक देशों की सरकारें हाल में एक संप्रभु देश के रूप में फिलस्तीन को मान्यता देने के लिए मजबूर हुई हैं। यूरोपीय संघ की प्रमुख उरसुला वान डेर लियेन की छवि अभी हाल तक इजराइल के कट्टर समर्थक की थी। लेकिन अब उन्होंने फिलस्तीन के पुनर्निर्माण के लिए यूरोपीय सहायता कोष बनाने का एलान किया है। इस क्रम में इन तमाम देशों/क्षेत्रों ने अमेरिका की अवहेलना की है। ये देश फिलस्तीन को मान्यता ना दें, इसके लिए डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने इन देशों को समझाने और धमकाने- दोनों तरह के तरीके अपनाए। मगर अपनी जनता का दबाव ऐसा है कि वहां की सरकारों को अपने ‘बॉस’ की मंशा के खिलाफ जाना पड़ा है।

फिलस्तीनी राज्य अभी अस्तित्व में नहीं है। फिलहाल यह एक सैद्धांतिक राज्य भर है, जो ओस्लो समझौते की शर्तों के मुताबिक बनेगा। यानी 1967 तक इजराइल जहां तक फिलस्तीनियों की बेदखली कर चुका था, उसकी सीमा वहां तक रहेगी। बाद में जो जमीन उसने हथियाई है, वह उसे छोड़ना होगा और वहां फिलस्तीन बनेगा, जिसकी राजधानी यरुशलम में होगी। इजराइल और अमेरिका अभी भी इस योजना का पुरजोर विरोध कर रहे हैं।

उनके विरोध का कोई नैतिक और राजनीतिक आधार तो पहले भी नहीं था, अब व्यावहारिक आधार भी खत्म हो चुका है। इस प्रश्न पर वे अलग-थलग पड़ चुके हैं। ट्रंप प्रशासन ने घोर उच्छृखंलता और गैर-जिम्मेदारी का परिचय देते हुए हाल में एलान किया कि संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के लिए फिलस्तीनी प्राधिकरण के प्रमुख महमूद अब्बास को वह वीजा नहीं देगा। तब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यह फैसला किया कि अब्बास वीडियो माध्यम से महासभा को संबोधित करेंगे। इससे संबंधित प्रस्ताव के पक्ष में 145 वोट पड़े। इससे फिर साफ हुआ कि विश्व जनमत आज किसके पक्ष में है।

कहानी का यह पहलू बताता है कि फिलस्तीनियों के साथ बेलगाम ज्यादती और गज़ा में मानव संहार को आगे बढ़ाते हुए इजराइल किस तरह दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है। उसके उद्दंड व्यवहार के कारण खाड़ी, अरब और इस्लामी दुनिया में नए समीकरण बन रहे हैं। पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हुआ रक्षा समझौता इसकी एक मिसाल है। पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि ये बदलते समीकरण और दुनिया में उग्र होती मानव संहार विरोधी प्रतिक्रिया दीर्घकाल में इजराइल के लिए गंभीर संकट का कारण बनेंगे।

और उसकी आंच अमेरिका तक पहुंचेगी- जिसके सामने पहले से ही आर्थिक संकट, देश के भीतर बढ़ते विभाजन, और वैश्विक शक्ति-संतुलन में आए बदलाव के कारण गंभीर चुनौतियां हैं। इजराइल को बिना शर्त समर्थन देकर वह अपनी मुश्किलों को और बढ़ा रहा है। बल्कि कहा जा सकता है कि अपनी इस चौकी को बचाने की जद्दोजहद में वह खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा है।

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