विष्णु के कूर्म अवतार को भागवत पुराण में कच्छप (कश्यप), कमठ (कठ), अकूपर के रूप में भी संदर्भित, संबोधित किया गया है। सभी का अर्थ कछुआ या कछुए का रूप है। वेदांग (निरुक्त) में भी सूर्य को अकुपरा कहा गया है। अकुपरा अर्थात असीमित, क्योंकि यह अथाह है। समुद्र को भी अकुपरा कहा जाता है। असीमित, क्योंकि यह असीम है। कछुए को अ-कूप-आरा भी कहा जाता है, क्योंकि यह कुएं में नहीं चलता। उथले जल में नहीं, अथाह जल में रहता है।
12 मई – कूर्म जयंती
पौराणिक मान्यतानुसार बैशाख मास की पूर्णिमा को भगवान विष्णु के कूर्म अवतार का अवतरण इस भूमि पर हुआ था। इसलिए बैशाख पूर्णिमा को कूर्म जयंती भी कहा जाता है। और इस दिन विधि- विधान से कूर्म जयंती का पर्व मनाया जाता है। इस वर्ष 2025 में बैशाख पूर्णिमा 12 मई दिन सोमवार को है। इसलिए इस दिन कूर्म जयंती मनाई जाएगी। भगवान कूर्म भगवान श्रीविष्णु के अवतार हैं। नृसिंह पुराण के अनुसार कूर्म श्रीविष्णु के द्वितीय तथा भागवत पुराण 1/3/16 के अनुसार ग्यारहवें अवतार हैं। कूर्म अवतार को कच्छप अर्थात कछुआ अवतार भी कहा जाता है। संस्कृत में कूर्म शब्द का अर्थ है -कछुआ।
विष्णु के कूर्म अवतार को भागवत पुराण में कच्छप (कश्यप), कमठ (कठ), अकूपर के रूप में भी संदर्भित, संबोधित किया गया है। सभी का अर्थ कछुआ या कछुए का रूप है। वेदांग (निरुक्त) में भी सूर्य को अकुपरा कहा गया है। अकुपरा अर्थात असीमित, क्योंकि यह अथाह है। समुद्र को भी अकुपरा कहा जाता है। असीमित, क्योंकि यह असीम है। कछुए को अ-कूप-आरा भी कहा जाता है, क्योंकि यह कुएं में नहीं चलता। उथले जल में नहीं, अथाह जल में रहता है। सामवेद, यजुर्वेद आदि वैदिक ग्रंथों के अनुसार अकुपर अर्थात कूर्म और ऋषि कश्यप समानार्थी हैं। कश्यप का अर्थ कछुआ भी है। कश्यप को अपनी तेरह पत्नियों के साथ समस्त वनस्पति और सभी जीवित प्राणियों का पूर्वज माना जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन की कथा स्वयं कश्यप से जुड़ी हुई है। और इसमें कश्यप के अन्य पुत्र शामिल हैं। समुद्र मंथन में अदिति पुत्र देव और दिति पुत्र दैत्य शामिल हैं। कद्रू पुत्र वासुकी नाग को मंथन की रस्सी के रूप में उपयोग किया गया। विनता पुत्र, विष्णु वाहन, पक्षी राज गरुड़ आदि का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान है।
उपनिषद और पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कूर्मासन अर्थात कछुआ मुद्रा एक योग मुद्रा है। पनिकाच्छपिका अर्थात हस्तकच्छप, हाथ का कछुआ कूर्म का प्रतीक स्वरूप पूजा अनुष्ठानों के समय उंगलियों की एक विशेष स्थिति है। दशावतार की तुलना जैव विकास से की जाती है। कूर्म-उभयचर को मत्स्य अर्थात मछली के बाद अगला चरण माना जाता है। जैमिनीय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार अकुपर कश्यप के संबंध में कछुआ दृढ़ खड़े होने के बराबर है और कश्यप अर्थात कछुआ उन्हें भौतिक अस्तित्व के समुद्र के पार ले जाने में सक्षम है। कूर्म एक महान अवतार थे, जिन्होंने दूध के सागर के मंथन द्वारा ब्रह्मांड के आध्यात्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त किया था। कछुए को अग्नि वेदी के आधार के रूप में प्रयोग किया गया था, इसलिए छिपे हुए अदृश्य कछुए को वेदी और पवित्र अग्नि के साथ मिलाकर देवता यज्ञपुरुष का प्रतीक माना जाता है, जो अग्नि वेदी से स्वर्ग तक और हर स्थान तक फैले एक अदृश्य आध्यात्मिक देवता हैं।
यही कारण है कि कछुए की पहचान सूर्य से की जाती है। समुद्र मंथन मोक्ष प्राप्त करने के लिए ध्यान के माध्यम से मन को मंथन करने का प्रतीक है। वैदिक ग्रंथों में इसे उर्ध्वमन्थिन भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ऊपर की ओर मंथन करना। क्षीर सागर का मंथन द्वैतवादी मन के मंथन को दर्शाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार बैशाख पूर्णिमा के दिन से निर्माण संबंधी कार्य शुरू किया जाना बेहद शुभ माना जाता है, क्योंकि योगमाया स्तम्भित शक्ति के साथ कूर्म में निवास करती है। कूर्म जयंती के अवसर पर वास्तु दोष दूर किए जा सकते हैं। नया घर, भूमि आदि के पूजन के लिए यह सबसे उत्तम समय होता है। इस दिन बुरे वास्तु को शुभ में बदला जा सकता है।
कूर्म जयंती के संबंध में पद्मपुराण में वर्णित कथा के अनुसार इंद्र के द्वारा अहंकारवश ऋषि दुर्वासा द्वारा दी गई बहुमूल्य माला का निरादर कर दिए जाने पर कुपित ऋषि दुर्वासा ने देवगणों को बलहीन, तेजहीन व ऐश्वर्यहीन होने का शाप दिया। जिसके कारण देवगण अत्यंत निर्बल हो गए। अवसर देखकर दैत्यराज बलि ने असुरों के साथ देवों पर आक्रमण कर स्वर्ग पर अपना आधिपत्य जमा लिया। सभी देवगण श्रीविष्णु के पास पहुंचे। श्रीविष्णु ने असुरों के साथ मिलकर उन्हें समुद्रमंथन कर अमृत प्राप्त कर उसका पान करने को कहा। देवों ने यह बात जब असुरों को बताई, तो अमृत के लालच में असुरों ने देवताओं के साथ मिलकर समुद्र मंथन प्रारंभ करने मे अपनी सगमती दिखाई। और अपने सभी मतभेदों को भूलकर देवताओं और राक्षसों ने क्षीर सागर में मंदार पर्वत को मथनी और बासुकि नाग को रस्सी बनाकर मंदार को उखाड़ने और उन्हें समुद्र में उठाने की कोशिश करने लगे।
लेकिन पर्वत पानी में डूबने- उतराने लगा। तब श्रीविष्णु ने कच्छप अवतार धारण कर मंदराचल को अपनी पीठ पर स्थापित कर समुद्र मंथन प्रारंभ किया। कूर्म की पीठ पर मंदार पर्वत की खड्ड हिलने लगी और समुद्र मंथन संभव हो पाया। श्रीविष्णु के कूर्मावतार के सहयोग से समुद्र मंथन किए जाने पर ही समुद्र से लक्ष्मी की उत्पति, चौदह रत्नों, अनेकानेक निधियों की प्राप्ति के साथ ही देवताओं को अमृत की प्राप्ति हुई। यह घटना बैशाख शुक्ल पूर्णिमा को होने की मान्यता के कारण इस दिन को कूर्म जयंती कहा जाने और इस रूप में कूर्म जन्मोत्सव मनाया जाने लगा। इसी समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था।
शतपथ ब्राह्मण, महाभारत आदि पर्व, भागवत पुराण, पद्म पुराण, लिंग पुराण, विष्णु पुराण, पद्म पुराण, लिंग पुराण, कूर्म पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में कूर्मावतार का वर्णन अंकित है। लिंग पुराण के अनुसार जब पृथ्वी रसातल को जा रही थी, तब विष्णु ने कच्छप रूप में अवतार लिया। उस कच्छप की पीठ का घेरा एक लाख योजन था। भगवान कूर्म से संबंधित एक स्वतंत्र पुराण भी है, जिसका नाम कूर्म पुराण है। इसमें श्रीविष्णु ने अपने कच्छपावतार में ऋषियों से जीवन के चार लक्ष्यों -धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष. का वर्णन किया है। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुद्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। कूर्म की पीठ पर मंदराचल पर्वत स्थापित करने से ही समुद्र मंथन सम्भव हो सका था।
शतपथ ब्राह्मण 7/5/1/5-10, महाभारत आदि पर्व अध्याय 16 तथा पद्मपुराण उत्तराखंड, 259 के अनुसार संतति प्रजनन हेतु प्रजापति कच्छप का रूप धारण कर पानी में संचरण करता है। पद्मपुराण ब्रह्मखड 8 के अनुसार इंद्र ने दुर्वासा द्वारा प्रदत्त पारिजातक माला का अपमान किया तो कुपित होकर दुर्वासा ने शाप दिया, तुम्हारा वैभव नष्ट होगा। परिणामस्वरूप लक्ष्मी समुद्र में लुप्त हो गई। तत्पश्चात श्रीविष्णु के आदेशानुसार देवताओं तथा दैत्यों ने लक्ष्मी को पुन: प्राप्त करने के लिए मंदराचल की मथानी तथा वासुकि की डोर बनाकर क्षीरसागर का मंथन किया। मंथन करते समय मंदराचल रसातल को जाने लगा तो विष्णु ने कच्छप के रूप में अपनी पीठ पर धारण किया और देव-दानवों ने समुद्र से अमृत एवं लक्ष्मी सहित चौदह रत्नों की प्राप्ति करके पूर्ववत वैभव संपादित किया।
मान्यता है कि एकादशी का उपवास लोक में कच्छपावतार के बाद ही प्रचलित हुआ। एक अन्य पौराणिक मत के अनुसार दशावतार की कूर्मावतार की यह कथा सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाती है। इस मत के अनुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई। इसलिए भगवान विष्णु सर्वप्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुए। फिर कूर्म बने। तत्पश्चात वराह, जो जल तथा पृथ्वी दोनों का जीव है। फिर पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव नरसिंह, अर्थात आधा पशु- आधा मानव हुए। वामन अवतार बौना शरीर है। परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है। विष्णु अपने राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाते हैं। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध पर्यावरण का रक्षक हैं।
पर्यावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। यही कारण है कि विनाश निवारण के लिए कल्कि अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पूर्व से ही कर दी गई है। एक अन्य मत के अनुसार यह मानव जीवन के विभिन्न पड़ाव को दर्शाती है। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कूर्म भ्रूण, वराह गर्भ स्थिति में शिशु का वातावरण, तथा नरसिंह नवजात शिशु है। आरंभ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कल्कि मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।