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क्या है “मुस्लिम-लीगी माओवादी कांग्रेस” का अर्थ?

कांग्रेस कभी औपनिवेशिक विभाजनकारी नीतियों से लड़ने का प्रतीक थी। किंतु दुर्भाग्य से, वही विषाक्त चिंतन पं.नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के दौर से गुजरते हुए आज राहुल गांधी के समय तक पार्टी की नस-नस में समा गया है। अब कांग्रेस नेतृत्व का एकमात्र मकसद किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करना रह गया है— चाहे इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा-अखंडता को दांव पर लगाकर भारत की प्रतिष्ठा को ही धूमिल क्यों न करनी पड़े।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस को “मुस्लिम-लीगी माओवादी कांग्रेस” कहने और उसे “देश के लिए खतरा” बताने का निहितार्थ क्या है? इस विचार को प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार नहीं, बल्कि तीन अवसरों पर व्यक्त किया हैं। पहले 14 नवंबर को बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा नीत राजग गठबंधन द्वारा दर्ज प्रचंड जीत पर दिल्ली में भाजपा समर्थकों को संबोधित करते हुए। फिर 15 नवंबर को गुजरात स्थित सूरत के एक कार्यक्रम में और इसके बाद 17 नवंबर को दिल्ली में आयोजित रामनाथ गोयनका व्याख्यान में।

प्रधानमंत्री के मुताबिक, “10-15 साल पहले कांग्रेस में जो अर्बन-नक्सली माओवादी पैर जमा चुके थे, अब वो कांग्रेस को ‘मुस्लिम-लीगी माओवादी कांग्रेस’ (एम.सी.सी.) बना चुके हैं। मैं पूरी जिम्मेदारी से कहता हूं कि मुस्लिम-लीगी माओवादी कांग्रेस अपने स्वार्थ में… देश के लिए खतरा बनते जा रही है।” कांग्रेस की यह छवि एकाएक नहीं बनी है और न ही यह मात्र कोई चुनावी या राजनीतिक जुमलेबाजी है।

कांग्रेस का संकट बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे पर उसके आधिकारिक वक्तव्य से स्पष्ट है, जिसमें पार्टी नेतृत्व मतदाता द्वारा नकारे जाने को फर्जी “वोट चोरी” का परिणाम बता रही है। दरअसल, वर्तमान कांग्रेस के शीर्ष नेता और लोकसभा में नेता-विपक्ष राहुल गांधी जिस विभाजनकारी मार्ग पर चल रहे है, उसकी प्रेरणा उन्हें अपने परिवार ही से मिली है। वर्ष 1950 से राहुल के परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जिस विकृत सेकुलरवाद को अपनाया, उसने देश में इस्लामी कट्टरता और हिंदू-विरोधी शक्तियों को नया जीवनदान दिया।

पहले उन्होंने जम्मू-कश्मीर के इस्लामी स्वरूप को बरकरार रखने हेतु अनुच्छेद 370-35ए को संविधान में बिना चर्चा के ‘चोर दरवाजे’ से शामिल करवाया, तो बहुसंख्यकों के लिए ‘हिंदू कोड बिल’ लागू करके मजहबी स्वतंत्रता के नाम पर मुस्लिम समाज को हलाला और तीन तलाक जैसी कुरीतियों के साथ छोड़ दिया। पं।नेहरू के लिए हिंदू मंदिर “दमनकारी”, तो केवल हिंदू ही “सांप्रदायिक” थे। कालांतर में उनके द्वारा अपनाई समाजवाद प्रेरित नीतियों ने भारतीय आर्थिकी को ध्वस्त कर दिया, जिसकी चर्चा पिछले कुछ लेखों में की जा चुकी है।

यह विकृति राहुल की दादी श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन में और बढ़ गई। उन्होंने 1969 में कांग्रेस टूटने के बाद अपने धड़े की वैचारिक संगोष्ठी उन वामपंथियों के हाथों में सौंप दी, जो अधिनायकवाद को बढ़ावा देने के साथ न तो तब स्वयं को भारत की बहुलतावादी सनातन संस्कृति से जोड़ पाए थे, न ही अब जोड़ पाते है। इसके परिणामस्वरूप, अदालत द्वारा अपनी “वोट चोरी” पकड़े जाने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल (1975-77) थोप दिया।

इसी दौरान अयोध्या में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की श्रीरामजन्मभूमि मंदिर के प्रमाण संबंधित उत्खनन रिपोर्ट को भी दबा दिया गया। कालांतर में पंजाब में अपनी विरोधी अकाली दल को हाशिए पर पहुंचाने हेतु उन्होंने मृत ‘खालिस्तान’ विचार को अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ और सत्ता हथियाने की लालसा में पुनर्जीवित कर दिया। इसका उल्लेख गैर-राजनीतिक, पूर्व आईपीएस अधिकारी और भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) में वर्षों जुड़े रहने के बाद सेवानिवृत हुए गुरबख्श सिंह सिधू ने अपनी पुस्तक ‘द खालिस्तान कांस्पीरेसी’ में किया है।

जैसे 1980 के दशक में जरनैल भिंडरावाले को आगे रखकर इंदिरा गांधी ने हिंदू-सिख संबंधों को लेकर आत्मघाती राजनीति की, ठीक उसी तरह राहुल के पिता राजीव गांधी ने वर्ष 1986 के शाहबानो मामले से ‘मुस्लिम वोटबैंक’ का बिगुल फूंक दिया। तब मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेकते हुए तत्कालीन राजीव सरकार ने संसद में प्रचंड बहुमत के बल पर मुस्लिम महिला उत्थान की दिशा में आए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलट दिया था। कालांतर में मुस्लिम-विरोध के कारण ही सलमान रुश्दी की ‘सैटनिक वर्सेज’ (1988) और तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’ (1993) पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

भले ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता (दिवंगत) डॉ. मनमोहन सिंह 2004-2014 के बीच देश के प्रधानमंत्री रहे, परंतु उन्हें दिशानिर्देश असंवैधानिक ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ (एन.ए.सी.) से मिलते थे, जिसका नेतृत्व तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा और राहुल की माताजी सोनिया गांधी कर रही थीं। एन।ए।सी। में ऐसे लोग शामिल थे, जिनका राष्ट्रहित के बजाय वैचारिक एजेंडे (वामपंथ सहित) से अधिक सरोकार था। इसी कालखंड में 2002 के उस नृशंस गोधरा कांड, जिसमें जिहादियों ने भजन-कीर्तन कर रहे 59 हिंदुओं को ट्रेन में जिंदा जला दिया था— उसे “हादसा” बताकर रफादफा करने का असफल प्रयास किया गया। घुमा-फिराकर “देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का” बता दिया।

हलफनामा देकर सर्वोच्च न्यायालय में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को काल्पनिक कह दिया। वैश्विक रूप से स्थापित जिहादी आतंकवाद-कट्टरवाद को तब देश में ‘इस्लामोफोबिया’ घोषित करने हेतु मनगढ़ंत ‘हिंदू-भगवा आतंकवाद’ का हौव्वा खड़ा कर दिया। इसके अंतर्गत, वर्ष 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले (26/11) में असली दोषी (पाकिस्तानी आतंकियों) को क्लीनचिट देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फंसाने का फर्जी नैरेटिव बुना गया। यासीन मलिक जैसे खूंखार जिहादियों से सहानुभूति रखते हुए उसे राजकीय मंच दिया गया। यहां तक, एन.ए.सी. के मार्गदर्शन में तब कांग्रेस सरकार ने वह विषाक्त “सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक” भी संसद से पारित कराना चाहा, जिसके तहत केवल “बहुसंख्यक”— अर्थात् हिंदू को ही किसी सांप्रदायिक हिंसा के लिए “दोषी” मानने का प्रावधान था।

वर्ष 2014 से कांग्रेस अपने शीर्ष नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में लगातार तीन लोकसभा चुनाव और दर्जनों विधानसभा चुनाव हार चुकी है। अपने निरंतर घटते जनाधार की ईमानदार समीक्षा करने के बजाय कांग्रेस ने भाजपा से अलग दिखने के लिए प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उन विभाजनकारी शक्तियों— विशेषकर वामपंथी-जिहादी चिंतन को आत्मसात कर लिया है, जिनका अंतिम लक्ष्य भारत की बहुलतामूलक सनातन संस्कृति को नष्ट करना, अमानवीय अधिनायकवाद स्थापित करना और देश को जाति–मजहब–भाषा जैसे आधारों पर कई टुकड़ों में बांटना है।

गांधीजी-पटेल के सानिध्य में स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस कभी औपनिवेशिक विभाजनकारी नीतियों से लड़ने का प्रतीक थी। किंतु दुर्भाग्य से, वही विषाक्त चिंतन पं.नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के दौर से गुजरते हुए आज राहुल गांधी के समय तक पार्टी की नस-नस में समा गया है। अब कांग्रेस नेतृत्व का एकमात्र मकसद किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करना रह गया है— चाहे इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा-अखंडता को दांव पर लगाकर भारत की प्रतिष्ठा को ही धूमिल क्यों न करनी पड़े।

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