Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

पाकिस्तान को नहीं मिलेगा सिंधू नदी का पानी

भारत

सिंधु जल संधि स्थगित होने से भारत ने इस वर्ष अप्रैल से अबतक चार बड़े जलविद्युत परियोजनाओं पर काम तेज कर दिया है, जिनकी कुल क्षमता 3,014 मेगावॉट है, जिसकी पनबिजली संभावना लगभग 20,000 मेगावॉट आंकी गई है। अभी जम्मू-कश्मीर अपनी जरुरत की लगभग 13% बिजली नेशनल ग्रिड से खरीदता है। अगर भारत अपने जलविद्युत परियोजनाओं में सफल हो जाता है, तो यह क्षेत्र की बिजली जरूरतों को काफी हद तक पूरा कर सकता है।

स्वतंत्रता के बाद भारत ने कई ऐसी गलतियां की, जिनपर “लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई” मिसरा बिल्कुल सटीक बैठता है। वर्ष 1960 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुआ ‘सिंधु जल समझौता’— इन्हीं भूलों में से एक है, जिसके निलंबन को तीन माह पूरे हो गए है। देश को सांप्रदायिक आधार पर अंग्रेज, मुस्लिम लीग और वामपंथियों के गठजोड़ द्वारा बांटने के प्रपंच को तत्कालीन कांग्रेस द्वारा स्वीकृति देना पहली गलती थी। जब अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबाइलियों के भेष में कश्मीर पर हमला किया और भारतीय सेना उन्हें खदेड़ते हुए आगे बढ़ रही थी, तब नेहरू सरकार द्वारा मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाना और जनमत संग्रह का वादा करते हुए युद्धविराम की घोषणा करना— दूसरी गलती थी।

इसी तरह जब चीन तिब्बत को निगल रहा था, तब नेहरू सरकार ने एक और गलती करते हुए सुरक्षा परिषद के स्‍थायी सदस्य के रूप में मिले स्वर्णिम अवसर को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ की ढपली पीटकर चीन को दे दिया। इन सबका खामियाजा देश आजतक भुगत रहा है। इसी कड़ी में सिंधु जल संधि भी आता है, जिसे 22 अप्रैल 2025 के भीषण पहलगाम आतंकवादी हमले की जवाबी प्रतिक्रिया में मोदी सरकार ने निलंबिल कर दिया था। क्या 65 साल पुरानी और लगभग मृतप्राय सिंधु जल संधि, जोकि छह नदियों के जल बंटवारे से जुड़ी है— उसे भी बहाल किया जा सकता है?

‘ऑपरेशन सिंदूर’ को ढाई माह से अधिक हो चुका है। इस दौरान भारत ने पाकिस्तान के बार-बार याचना करने के बाद भी सिंधु जल समझौता पर 23 अप्रैल 2025 को लिए फैसले पर पुनर्विचार नहीं किया है। इसका बहुत वाजिब कारण भी है। असल में यह निर्णय भूल सुधार का हिस्सा है, क्योंकि इससे भारतीय हितों का सर्वाधिक ह्रास हुआ है। इसके कई उदाहरण है।

पहला— 19 सितंबर 1960 को भारत ने इस संधि के तहत पाकिस्तान के साथ पानी साझा करने का बड़ा फैसला इसलिए किया था ताकि शांति स्थापित हो। इसके तहत भारत ने पाकिस्तान को दस किस्तों में आज के हिसाब से लगभग 700 करोड़ रुपये भी दिए। परंतु पाकिस्तान की कारगुजारियों ने तत्कालीन भारतीय नेतृत्व की अपेक्षाओं को भ्रामक साबित कर दिया। संधि पर हस्ताक्षर के लगभग पांच साल बाद 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर फिर से हमला कर दिया। इसमें भारतीय सेना ने लाहौर तक विजय प्राप्त की, लेकिन वह क्षेत्र एक समझौते के तहत लौटा दिए गए। 1971 के युद्ध में भारत ने 93,000 पाकिस्तानी सैनिक बंदी बनाए, फिर सबको छोड़ भी दिया।

1984 में पाकिस्तान ने सियाचिन पर कब्जे की असफल कोशिश की। फरवरी 1999 में भारत ने फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाया, मगर मई में पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ कर दी। भारत ने जवाबी कार्रवाई की, पर उसे सबक नहीं सिखाया। 2008 में मुंबई 26/11 का आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें पाकिस्तान की स्पष्ट भूमिका थी, लेकिन तत्कालीन सत्तारुढ़ कांग्रेस पाकिस्तान को क्लीन-चिट देते हुए मिथक-झूठा ‘हिंदू आतंकवाद’ नैरेटिव गढ़ती रही। देश में तब पाकिस्तान समर्थित जिहादी एक के बाद एक कई आतंकवादी हमले कर रहे थे, परंतु भारतीय नेतृत्व ने चेतावनियां देने और ‘कड़ी निंदा’ करने के सिवा कुछ नहीं किया। अब नया भारत पुरानी भूलों से सीख चुका है और “पानी-खून एक साथ नहीं बह सकते” की स्पष्ट नीति अपना रहा है।

दूसरा— जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को हमेशा पानी के असमान बंटवारे का खामियाजा भुगतना पड़ा है। संधि के अनुसार, छह नदियों में से तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम और चेनाब) का 80% पानी पाकिस्तान को जाता है, जबकि भारत को सिर्फ तीन पूर्वी नदियों (सतलुज, रावी और ब्यास) का 20% पानी ही मिलता है। परिणामस्वरूप, यह असंतुलन जम्मू-कश्मीर और लद्दाख जैसे जल-संवेदनशील क्षेत्रों के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुआ। यहां की 70% आबादी खेती पर निर्भर है। बारिश में गिरावट के साथ गर्मी की तेज़ लहरें और जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ने से कृषि प्रभावित हुई है। इस संधि में ‘रन ऑफ रिवर’— अर्थात् नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित किए बिना बिजली उत्पन्न करने वाली परियोजनाओं की स्वीकृति थी। हर जलविद्युत योजना के लिए भारत को पाकिस्तान से मंजूरी लेनी पड़ती थी और विवाद होने पर हेग अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से न्याय का इंतजार करना पड़ता था। इससे होने वाली देरी से परियोजना की लागत कई गुना बढ़ जाती थी।

सिंधु जल संधि स्थगित होने से भारत ने इस वर्ष अप्रैल से अबतक चार बड़े जलविद्युत परियोजनाओं पर काम तेज कर दिया है, जिनकी कुल क्षमता 3,014 मेगावॉट है, जिसकी पनबिजली संभावना लगभग 20,000 मेगावॉट आंकी गई है। अभी जम्मू-कश्मीर अपनी जरुरत की लगभग 13% बिजली नेशनल ग्रिड से खरीदता है। अगर भारत अपने जलविद्युत परियोजनाओं में सफल हो जाता है, तो यह क्षेत्र की बिजली जरूरतों को काफी हद तक पूरा कर सकता है। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूत होगी। इसी तरह वुलर बैराज का निर्माण भी, जिसपर पाकिस्तान की आपत्तियों के कारण रोक लगी हुई थी— वह अब खेती के साथ बारामूला से सोपोर के बीच पूरे साल नौवहन को बढ़ावा दे सकता है। यही कारण है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस संधि को बीते दिनों “ऐतिहासिक विश्वासघात” की संज्ञा देते हुए “कश्मीरियों का हक छीनने वाला” बताया था। अधिकांश स्थानीय बाशिंदें भी इस समझौते को अनुचित मानते आए है।

कभी भारत की ओर से सिंधु जल संधि शांति का एक बड़ा कदम थी, लेकिन पाकिस्तान इसका जवाब घृणा, युद्ध और आतंकी हमलों से देता रहा। भारत ने 80% पानी देकर भी विश्वासघात ही पाया। लद्दाख और जम्मू-कश्मीर के लोग वर्षों से पानी की कमी और विकास की रुकावट झेलते रहे हैं, जबकि पाकिस्तान ने अधिकतर भारतीय परियोजनाओं पर आपत्ति जताकर इसमें रोड़े अटकाए। अब भारत ने अपने जल संसाधनों के पूर्ण उपयोग का निर्णय लिया है, जो न केवल क्षेत्रीय विकास को गति देगा, बल्कि ऊर्जा और खाद्य सुरक्षा को भी सुनिश्चित करेगा। स्पष्ट है कि भारत अब पाकिस्तान के लिए अपने हितों की बलि नहीं देगा।

Exit mobile version