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‘तेहरान’ में है जान

कई मामलों में तेहरानपैशनेट फ़िल्ममेकिंग का एक ताज़ा तरीन उदाहरण है। चाहे फ़िल्म में इस्तेमाल हुई भाषाओं की बात हो या फिर किरदारों की या फिर लोकेशंस और शॉर्ट टेकिंग की, हर डिपार्टमेंट में बिना शोर शराबा के ताज़गी का अहसास है। फ़िल्म में ईरान से संबंधित संवादों के लिए फ़ारसी और इजराइल से संबंधित संवादों के लिए हिब्रू का इस्तेमाल किया गया है।

सिने-सोहबत

हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के शुरुआती दौर से ही देशप्रेम की फिल्में काफी मिलती जुलती रहीं हैं। आमतौर पर उनमें जोशीले दृश्यों का प्रयोग, ‘दुश्मन मुल्क़ मुर्दाबाद’, ‘भारत माता की जय’ जैसे संवादों से दर्शकों को अपना अपना सीना फुलाने का भरपूर मौक़ा दिया जाना और कुछ उत्सवधर्मी गानों से सजाए जाने की परंपरा रही है। आज के सिने-सोहबत में हाल ही में एक ओटीटी पर स्ट्रीम हुई फ़िल्म ‘तेहरान’ पर चर्चा करते हैं, जिसने देशप्रेम पर बनी अब तक की तमाम फिल्मों से बिलकुल अलग किस्म की मेकिंग का सहारा लिया है। साथ ही, अपने वास्तविक अप्रोच, कमाल की ऑथेंटिक कास्टिंग, शानदार कथ्य और खूबसूरत शिल्प के दम पर दुनिया भर के हिंदी सिनेमा प्रेमियों के बीच चर्चा का विषय बन गई है। निर्देशक हैं, अरुण गोपालन और सच्ची घटनाओं पर आधारित इस फिल्म की पटकथा लिखी है रितेश शाह, आशीष वर्मा और बिंदी करिया ने। मुख्य भूमिका में हैं जॉन इब्राहिम।

इस फ़िल्म का एक बड़ा हिस्सा ईरान की राजधानी तेहरान में बेस्ड है। फ़िल्म का मुख्य संदेश है कि किसी भी देश को हमारी धरती पर अपने आपसी संघर्षों का हिंसक हल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। यह फ़िल्म इस बात पर ज़ोर देती है कि जब दो देश आपस में लड़ते हैं, तो इसके लिए भारत की धरती का इस्तेमाल तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए, और इस लड़ाई में बेगुनाह भारतीयों को भी नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।

यह फ़िल्म 2012 की एक वास्तविक घटना से प्रेरित है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स ने जॉर्जिया, थाईलैंड और भारत में एक ही दिन और एक ही समय पर इज़राइल के डिप्लोमेट की गाड़ियों पर मैग्नेटिक बॉम्ब से हमला किया था। ग़ौरतलब है कि ईरान और इज़रायल के बीच अनबन चल रही है। ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को ध्वस्त करने के लिया इज़रायल उससे जुड़े कुछ लोगों को मरवा देता है। जवाब में ईरान की तरफ से इज़रायल के राजदूत पर हमला होता है। ये हमला दिल्ली में होता है और सड़क पर फूल बेचने वाली एक मासूम सी बच्ची की मौत हो जाती है।

कहानी के इस पॉइंट पर हम दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ऑफिसर राजीव कुमार से मिलते हैं, जो किरदार जॉन अब्राहम ने निभाया है। सच्ची घटना से प्रेरित इस फ़िल्म में एक नए जॉन नज़र आते हैं। इस फ़िल्म को देखने पर साफ़ तौर पर लगता है जैसे जॉन अब्राहम ने अपने किरदार के लिए बहुत ही शिद्दत से तैयारियां कीं ताकि वह विश्वसनीय लग सकें। उन्होंने कई भाषाओं के अलावा एक ख़ास तरह की बॉडी लैंग्वेज में भी ख़ुद को ट्रेन किया।

राजीव के सीनियर उसे ‘सनकी’ जैसी संज्ञा देते हैं। कहते हैं कि एक बार इस आदमी ने ठान लिया तो काम पूरा कर के ही दम लेगा। हमले में हुई बच्ची की मौत का राजीव पर गहरा असर पड़ता है। वो ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा देने के लिए निकल पड़ता है। इस दौरान कैसे इज़रायल उसे धोखा देता है, ईरान उसे खत्म कर देना चाहता है, और इंडिया उसका साथ छोड़ देता है, यही फिल्म की मूल कहानी है।

एक घंटे 55 मिनट के रन टाइम लिए ‘तेहरान’ एकदम नो नॉनसेंस फ़िल्म है यानी कोई भी सीन बेवजह नहीं है। एक घटना घटती है और हम किरदार को उसी दिशा में जाते हुए देखते हैं, जहां उसका मक़सद पूरा हो सके। फ़िल्म की कहानी के केंद्र में इंटेलिजेंस ऑफिसर्स हैं।  ये वो लोग हैं, जिनका नाम अखबारों में नहीं छपता, जिनकी कामयाबी पर देश पीठ नहीं थपथपाता लेकिन अगर फेल हो गए तो कोई सहारा देने के लिए खड़ा भी नहीं होता। भागदौड़ वाली इस पोलिटिकल थ्रिलर वाली कहानी में हरेक किरदार को उतना समय बखूबी दिया गया है, जिससे वे ह्यूमनाइज़ हो सकें। फ़िल्म का नायक राजीव अपनी बेटी के जन्मदिन पर समय पर पहुंचना चाहता है, एक अन्य किरदार है जो दफ्तर में शिफ्ट के दौरान अपने तलाक के पेपर्स साइन कर रहा है। एक सीनियर अधिकारी कहता है कि मुझे कल सुबह तक हर हाल में रिपोर्ट चाहिए फिर आगे जोड़ता है कि ‘और मेरे लॉन फर्निचर का क्या हुआ’?

कई मामलों में ‘तेहरान’ पैशनेट फ़िल्ममेकिंग का एक ताज़ा तरीन उदाहरण है। चाहे फ़िल्म में इस्तेमाल हुई भाषाओं की बात हो या फिर किरदारों की या फिर लोकेशंस और शॉर्ट टेकिंग की, हर डिपार्टमेंट में बिना शोर शराबा के ताज़गी का अहसास है। फ़िल्म में ईरान से संबंधित संवादों के लिए फ़ारसी और इजराइल से संबंधित संवादों के लिए हिब्रू का इस्तेमाल किया गया है। ख़ासकर जॉन अब्राहम ने हिब्रू और पारसी की वर्कशॉप्स ली और सीखी। फ़िल्म में किरदारों की प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए, ईरानी और इजराइली कलाकारों को ही इन देशों के किरदार निभाने के लिए कास्ट किया गया है।

फ़िल्म में एक सीन है जहां लैला नाम की महिला को पूछताछ के लिए बुलाया जाता है. किसी अंग्रेज़ी क्राइम ड्रामा सीरीज़ की तरह वो कहती है कि उसे अपने वकील से बात करनी है। इस पर राजीव उसे नसीहत देता है, “एचबीओ कम देखा करो लैला जी”। ऐसे संवाद कहानी को ज़मीनी हकीकत के करीब लेकर आते हैं। जैसे-जैसे कहानी में टेंशन बढ़ती है, वैसे-वैसे इस तरह के संवाद गायब होने लगते हैं। उसकी जगह एक्शन लेने लगता है।

बहरहाल, ‘तेहरान’ दर्शकों को अंत तक बांध कर रखती है। जॉन अब्राहम का किरदार फ़िल्म में कभी भी लाउड नहीं होता जबकि स्कोप पूरा था। फ़िल्म की कहानी और पॉपुलर सेंटीमेंट को भुनाने के लिए भरपूर मात्रा में हल्ला हंगामा मचाया जा सकता था लेकिन वो सब पूरी तरह कंट्रोल में है।

जॉन की परफॉरमेंस उन्हें आने वाले सालों के लिए एक बेहद सार्थक कलाकारों की क़तार में खड़ा कर देती है। उनके अलावा नीरू बाजवा, मानुषी छिल्लर और कुछ ईरानी एक्टर्स भी फ़िल्म का हिस्सा हैं। सभी ने कुल मिलाकर बेहतरीन काम किया है।

‘मैडॉक फ़िल्म्स’ और ‘बेक माय केक फ़िल्म्स’ के प्रोडक्शन में बनी ‘तेहरान’ एक साथ दो-दो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हो रही है। ज़ी 5 पर है और नेटफ़्लिक्स पर आने वाली है। देख लीजिएगा।  (पंकज दुबे उपन्यासकार, पॉप कल्चर स्टोरीटेलर और चर्चित यूट्यूब चैट शो ‘स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़’ के होस्ट हैं।)

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