एक प्रधानमंत्री ने कभी दावा किया था कि उसने सौ मिलियन गरीबों के बैंक खाते खुलवाए हैं। मैंने उन खातों की पासबुकें देखीं। पहली एंट्री-जीरो। अगली—कुछ नहीं। दस साल बाद भी वे पासबुकें नीतियों के कब्रिस्तान की निशानियां हैं। एक घर में मुझे चौथी कक्षा का बच्चा मिला। वह एक अंकों का जोड़ कर लेता था, लेकिन दो अंकों में अटक जाता। तीन अक्षरों से आगे उसकी स्पेलिंग टूट जाती। लेकिन उसकी आँखों में उम्मीद थी। वह उम्मीद जो किसी सूखे खेत में भी हरियाली का भरोसा देती है।… पर सच्चाई यह है कि ऐसे बच्चों के लिए उम्मीद का कोई ठोस कारण नहीं है। क्योंकि हमने ढांचा नहीं बदला, बस भाषण बदले हैं।
आज़ादी के अठहत्तर साल बाद भी भारत में बराबरी की मंज़िल मृगमरीचिका है। हालांकि रास्ता अभी भी है यदि हम उपेक्षा से आगे देखने की हिम्मत करें। मैं पटना से कुछ मील दूर एक गाँव की चौहद्दी पर खड़ा था। गंगा की धुंध अब भी यहां स्मृति की तरह ठहरी रहती है, मानो समय को छोड़ने में हिचकती हो। सुबह का आरंभ था। कौओं की कांव-कांव और हैंडपंपों की खटखट एक दूसरे में घुल रही थी। हैंडपंपों की आवाज़ें, कौओं की कांव-कांव और गलियों में जमा कीचड़, सब मिलकर एक परिचित दृश्य बना रहे थे।
मैंने उम्मीद के साथ उस गांव में कदम रखा, उस उम्मीद के साथ जो तमाम निराशाओं के बावजूद जीती रहती है। सोचा, आज़ादी के इतने साल बाद और इस राज्य पर उन्हीं समुदायों के लोगों के शासन में आने के तीन दशक बाद, अब तो कुछ बदला होगा। अब तो वो बच्चे जिनके बाप-दादा ने सड़कें बनाईं, नालियाँ साफ़ कीं और जिनकी मेहनत से यह देश खड़ा हुआ, उनमें कम-से-कम वही आज़ादी उनके हिस्से भी आई हुई होगी।
लेकिन सच्चाई किसी गुस्से के रूप में नहीं, बल्कि एक थकान-भरे समर्पण के रूप में सामने आई। लोगों की आंखों में एक तरह की शांति थी। मानों उन्होंने हार को मान लिया हो। बातचीत से अंदाज़ा लगा कि उनकी सालाना आय मुश्किल से 18 हजार रू से ज्यादा नहीं थी। मतलब दो सौ डॉलर यानी उतनी, जितनी किसी शहर में चार लोगों का एक डिनर खर्च हो जाता है। गाँव का स्कूल ढहने की कगार पर था, पढ़ाई का स्तर सौ में एक अंक से ज़्यादा नहीं कहा जा सकता। आँगनवाड़ी का दरवाज़ा तभी खुलता जब ऊपर से निरीक्षण की सूचना मिलती। उस दिन बच्चों को पंक्ति में खड़ा कर दिया जाता, स्लेटें बाँट दी जातीं, एक गीत सिखाया जाता और “शिक्षा” पूरी हो जाती। बाकी दिन वहाँ सन्नाटा रहता।
गाँव के बाहर खुली नालियाँ, बदबू, मक्खियों का झुंड और गंदगी की मोटी परत, यही रोज़मर्रा की ज़िंदगी है। एक स्थानीय कार्यकर्ता ने चंदे से जो छोटी पक्की गली बनवाई थी, वही दिखाती थी कि अगर सरकारें काम छोड़ दें तो भी किसी एक व्यक्ति की कोशिश क्या कर सकती है।
यह भारत के दलित हैं। वे लोग जो देश की मेहनत की रीढ़ हैं, लेकिन जिन्हें पहचानने वाला कोई नहीं। उनके वोट से सत्ता बदलती है, लेकिन उनकी ज़िंदगी नहीं। जिनके हाथ दूसरों के घर बनाते हैं, पर अपने घर की छत अब भी टपकती है। उनकी इज़्ज़त हर चुनाव के साथ खोखले वादों में दफ़्न हो जाती है।
एक प्रधानमंत्री ने कभी दावा किया था कि उसने सौ मिलियन गरीबों के बैंक खाते खुलवाए हैं। मैंने उन खातों की पासबुकें देखीं। पहली एंट्री-जीरो। अगली—कुछ नहीं। दस साल बाद भी वे पासबुकें नीतियों के कब्रिस्तान की निशानियां हैं। एक घर में मुझे चौथी कक्षा का बच्चा मिला। चेहरे पर चमक और मुस्कान भरी हुई। वह एक अंकों का जोड़ कर लेता था, लेकिन दो अंकों में अटक जाता। तीन अक्षरों से आगे उसकी स्पेलिंग टूट जाती। लेकिन उसकी आँखों में उम्मीद थी। वह उम्मीद जो किसी सूखे खेत में भी हरियाली का भरोसा देती है। मैंने सोचा, अगर इसे सही माहौल, सही स्कूल और सही शिक्षक मिलें तो यह बच्चा कुछ भी बन सकता है—वैज्ञानिक, कवि, इंजीनियर, या उस भारत का नागरिक जिसे हमने कभी सपना कहा था।
पर सच्चाई यह है कि ऐसे बच्चों के लिए उम्मीद का कोई ठोस कारण नहीं है। क्योंकि हमने ढांचा नहीं बदला, बस भाषण बदले हैं।
यह 2025 का भारत है—जहां मंगलयान भी है, अरबपति भी हैं, लेकिन ऐसे गांव भी हैं जहाँ लोगों की सबसे बड़ी आकांक्षा है किसी तरह जी लेना। अठहत्तर साल पहले अंग्रेज़ों का झंडा नीचे हुआ था, लेकिन बेड़ियां बस और मज़बूत हो गईं। किसी देश की असली पहचान उसके महलों से नहीं, बल्कि उसके सबसे गरीब नागरिक की ज़िंदगी से होती है। हम लोकतंत्र हैं, लेकिन गरीब-अमीर की भयावह असमानता में जीते हैं। हम आज़ादी का वादा करते हैं, पर नियति सौंप देते हैं।
मैंने देखा है कि देश कैसे बदलते हैं—दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देशों ने भी गरीबी से शुरुआत की थी, पर इरादा पक्का था। उन्होंने समझ लिया था कि शिक्षा कोई दान नहीं बल्कि पूंजी है।
अगर भारत सच में ठान ले कि हर बच्चे को सच्ची शिक्षा मिले, तो एक पीढ़ी में देश बदल सकता है। मेरे हिसाब से अगर हर बच्चे पर सालाना हज़ार डॉलर खर्च किए जाएँ—दस साल लगातार—तो गरीबी और अज्ञान की जड़ें काटी जा सकती हैं।
यह पैसा किताबों या यूनिफ़ॉर्म पर नहीं, बल्कि ऐसे स्कूलों पर लगे जो चलें; ऐसे शिक्षकों पर जो पढ़ाएँ; ऐसे कमरों पर जो बच्चों को प्रेरित करें। इसके साथ पोषण, साफ़ पानी, स्वास्थ्य और इंटरनेट की पहुँच मिले—यानी गरिमा का पूरा ढाँचा। और बारह साल में वही बच्चा दस हज़ार डॉलर सालाना कमाने लायक बन जाए—अपने परिवार का नहीं, देश का भविष्य बदलने वाला नागरिक।
यह सपना असंभव नहीं—यह गणित है। कोरिया ने किया, चीन ने किया, तो भारत क्यों नहीं?
समस्या विचारों की नहीं, इच्छा की है।
हम जानते हैं क्या करना चाहिए, लेकिन करते नहीं।
अफ़सरशाही अपने ढर्रे पर अटकी है, नेता भाषणों में व्यस्त हैं, और अमीर तबका बस तमाशा देखता है।
विकास अब अनुभव नहीं, शो बन गया है—टीवी पर दिखने वाला “इंडिया शाइनिंग” का इवेंट।
हमारे नीति-निर्माता “डेमोग्राफिक डिविडेंड” की बात करते हैं, लेकिन बिना शिक्षा के युवा पूंजी नहीं, बोझ होते हैं। वो देरी से फटने वाला बम हैं।
हमारी व्यवस्था ने लापरवाही को सामान्य बना दिया है।
अगर दस साल का बच्चा पढ़ना नहीं जानता, तो किसी को फर्क नहीं पड़ता।
शिक्षक का स्कूल से गायब रहना आम बात है।
सरकारी स्कूल में टूटा शौचालय बस रिपोर्ट की फुटनोट बनता है।
लेकिन जब मूर्तियों, स्टेडियमों और सम्मेलनों की बात आती है तो अरबों रुपए निकल आते हैं।
हम दुनिया को ताक़त दिखाते हैं, पर अपने घर की अंधेरी गलियों में रोशनी नहीं कर पाते।
जब मैं लौटने लगा तो बच्चे पीछे-पीछे आए। उन्होंने पूछा, “आप क्या करते हैं?”
मैंने कहा, “मैं लिखता हूँ।”
एक बच्चा बोला, “हमारे बारे में लिखिए।”
मैंने वादा किया, लिखूँगा।
पर शब्दों से आगे कुछ करना होगा।
हमें एक नैतिक जागरण चाहिए। यह समझ कि भारत की कहानी अधूरी है जब तक इसके दलित बच्चे उपेक्षा में जीते रहेंगे। वे दान के पात्र नहीं, इस देश के बराबर हिस्सेदार हैं।
अगर मैं एक राष्ट्रीय मिशन बना सकता, तो उसका नाम होता—भारत नवजीवन अभियान। राज्य, निजी क्षेत्र और समाज—तीनों मिलकर यह ठानें कि हर गरीब बच्चे पर सालाना हज़ार डॉलर खर्च होंगे—सहायता नहीं, बीज के रूप में। सभी खर्च पारदर्शी और जवाबदेह हों। स्कूल माता-पिता के प्रति ज़िम्मेदार हों, नेता-अफसर के नहीं।
शिक्षक की इनाम व्यवस्था परिणाम पर हो, उपस्थिति पर नहीं। भोजन शिक्षा से जुड़ा हो, तकनीक पारदर्शिता से।
सौ ज़िलों में इसे शुरू किया जा सकता है। सीखते हुए, सुधारते हुए इसे पूरे देश में फैलाया जा सकता है।
दस साल में भारत की तस्वीर बदल जाएगी। जहाँ गांवों के बच्चे पढ़ेंगे, सोचेंगे और सपने देखेंगे—जाति या ग़रीबी से परे।
यह कोई कल्पना नहीं, सीधा हिसाब है—नैतिकता का गणित और करुणा की अर्थशास्त्र। इतिहास कभी माफ़ नहीं करता उन लोगों को जो कुछ कर सकते थे लेकिन करना नहीं चाहते थे। अंग्रेज़ चले गए, पर उपेक्षा का शासन अब अपने ही हाथों में है।
असली फांक अब अमीर–गरीब या शहर–गांव में नहीं, बल्कि सोचने वालों और सोच से वंचित लोगों के बीच है।
और फिर भी उम्मीद बाकी है। हम अपने को बदल सकते हैं—नारे दोहराकर नहीं, उनका अर्थ बदलकर।
गरीबों पर तरस खाकर नहीं, उन्हें सक्षम बनाकर।
जब मैं उस चौथी कक्षा के बच्चे के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे उसके जैसे लाखों बच्चे याद आते हैं—जो बस एक मौके की प्रतीक्षा में हैं। हमारे पास क्या अधिकार है उन्हें उस मौके से वंचित करने का?
सबसे बड़ा पाप है भूल जाना। हम भूल गए हैं कि भारत का मतलब क्या है—ब्रांड नहीं, बाज़ार नहीं—एक नैतिक संकल्प।आजादी अंत नहीं थी, शुरुआत थी। अब हमें वही अधूरी क्रांति पूरी करनी है—गरिमा, अवसर और शिक्षा की क्रांति।
ताकि पटना की झोंपड़ियों के बच्चे गुरुग्राम के स्कूलों के बच्चों के साथ बराबरी से खड़े हो सकें।
यह संभव है। मैंने उनकी आँखों में वह संभावना देखी है। भारत का भविष्य किसी बोर्डरूम या चुनावी मंच पर तय नहीं होगा। वह तय होगा उन जगहों पर जहाँ उम्मीद अब भी धीमे स्वर में बोलती है। अगर हम ध्यान से सुनें—नारों और शोर से परे—तो वह हमें बुला रही है।
क्योंकि उस गाव के बच्चे हमारे लोकतंत्र का बोझ नहीं हैं, बल्कि वे उसका अधूरा वादा हैं।