मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (सीता) का विवाह होने के कारण इस पंचमी को विवाह पंचमी कहा जाता है। श्रीराम सीता की महत्ता को देखते हुए इनके सम्मान में सदियों से इस तिथि को भारत में विवाह पंचमी का शुभ मांगलिक त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाये जाने की प्राचीन परंपरा है। मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन ही श्रीराम के साथ ही लक्ष्मण, भरत व शत्रुध्न चारों भाईयों का विवाह क्रमशः सीता, उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ हुआ था।
भारतीय संस्कृति में त्रेतायुगीन दशरथनंदन श्रीराम पुत्र, पति, भ्राता, राजा आदि सभी रूपों में आदर्श माने जाते हैं। जीवन के विविध पहलूओं, विभिन्न स्वरूपों में मर्यादित व्यवहार करने के कारण ही उन्हें मर्यादित पुरुषों में उत्तम अर्थात मर्यादा पुरुषोतम कहा गया है। सभी रूपों में मर्यादित, उत्तम, अनुकरणीय और प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करने के कारण ही उन्हें भगवान माना गया है। उनका विवाह जनकनंदिनी जानकी (सीता) के साथ मार्गशीर्ष अर्थात अगहन मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था। हमारी मर्यादा, भारतीय परंपरा और प्राचीन ग्रंथों में श्रीराम और जानकी की जोड़ी को आदर्श माना गया है। रामायण व पौराणिक कथाओं में श्रीराम और सीता के उत्तम वैवाहिक चरित्र चित्रण के साथ ही भारत में सर्वत्र स्थानीय भाषाओं में लोगों के द्वारा वर-वधू को आशीर्वाद देते समय सीता-राम के समान एक रहो -कहे जाने की उक्ति से भी इस बात की पुष्टि ही होती है।
भगवान श्रीराम और सीता का विवाह त्रेतायुग की और संपूर्ण रामायण की सबसे महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि प्रकृति के नियंता को ज्ञात था कि जीवन में चौदह वर्ष का वनवास और रावण जैसे असुर का वध धैर्य के वरण के बिना संभव नहीं है। इस रूप में श्रीराम जानकी का विवाह मुख्य रूप से एक बड़े संघर्ष से पूर्व धैर्य वरण की घटना है। पुष्प वाटिका में भगवान श्रीराम और सीता के मिलन के पश्चात प्रकृति ने दोनों के ही मिलन का मार्ग तय कर लिया था। भगवान श्रीराम और सीता का विवाह रामायण में रावण के अंत के लिए भगवान का बढ़ाया हुआ एक पग भी है, क्योंकि रावण के अंत का सृजन सीता हरण की घटना से ही प्रारंभ हो गया था। शास्त्रों के अनुसार यह मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी का वही दिन है, जिस दिन भगवान श्रीराम ने सीता का वरण किया था। उनके माथे पर सिंदूर की तिलक लगाईं थी।
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (सीता) का विवाह होने के कारण इस पंचमी को विवाह पंचमी कहा जाता है। श्रीराम सीता की महत्ता को देखते हुए इनके सम्मान में सदियों से इस तिथि को भारत में विवाह पंचमी का शुभ मांगलिक त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाये जाने की प्राचीन परंपरा है। मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी के दिन ही श्रीराम के साथ ही लक्ष्मण, भरत व शत्रुध्न चारों भाईयों का विवाह क्रमशः सीता, उर्मिला, मांडवी और श्रुतिकीर्ति के साथ हुआ था। श्रीराम ने विवाह द्वारा मन के तीनों विकारों काम, क्रोध और लोभ से उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इस विवाह के लिए आयोजित स्वयंबर भगवान राम ने अहंकार के प्रतीक धनुष को तोड़ा था।
यह इस बात का प्रतीक है कि जब दो लोग एक बंधन में बंधते हैं, तो सबसे पहले उन्हें अहंकार को तोड़ना चाहिए और फिर प्रेम रूपी बंधन में बंधना चाहिए। यह प्रसंग इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वैवाहिक बंधन में जुड़ रहे दोनों परिवारों और पति-पत्नी के बीच कभी अहंकार नहीं टकराना चाहिए, क्योंकि अहंकार ही आपसी मनमुटाव का कारण बनता है। श्रीराम-सीता के शुभ विवाह के कारण ही विवाह पंचमी का दिन अत्यंत पवित्र माना जाता है। श्रीराम जानकी का विवाह सनातन धर्म में विशेष महत्व का दिन होने के कारण यह एक शुभ तिथि मानी जाती है, और इस दिन अनेक धार्मिक आयोजन होते हैं। मिथिलांचल, अयोध्या आदि स्थानों पर इस दिन विविध आयोजन होते हैं। इस पावन दिन सभी दंपतियों को श्रीराम-सीता से प्रेरणा लेकर अपने दांपत्य को मधुरतम बनाने का संकल्प करना चाहिए।
पौराणिक मान्यतानुसार भगवान विष्णु एवं लक्ष्मी माता के रूप श्रीराम एवं सीता ने पृथ्वी लोक पर राजा दशरथ के पुत्र एवं राजा जनक की पुत्री के रूप में जन्म लिया था। पुराणों व वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा जनक के द्वारा यज्ञार्थ भूमि तैयार करने हेतु हल से भूमि जोतते समय उन्हें भूमि से एक कन्या प्राप्त हुई थी। जोती हुई भूमि को तथा हल की नोक को सीता कहे जाने के कारण भूमि से प्राप्त उस बालिका का नाम सीता रखा गया। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग के अनुसार लंकाधिपति रावण एक दिन अपने सौतेले भाई दक्षिण दिशा के दिक्पाल कुबेर से छीने हुए मन की गति से गतिमान पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था, कि उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी।
भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्यारत्त उस सुंदर स्त्री का नाम वेदवती था। उसकी रूप पर मोहित हो रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। इस पर उस तपस्विनी वेदवती ने क्षुब्ध होकर रावण को एक स्त्री के कारण ही मृत्यु होने की शाप देकर अग्नि में अपने शरीर को समर्पित कर दिया। उसी स्त्री ने दूसरे जन्म में सीता के रूप में जन्म लिया। रामायण की कथानुसार त्रेता युग में मिथिला नरेश जनक के राज्य में अकाल पड़ने पर उसके निवारण के लिए जनक ऋषि-मुनियों के पास गए। ऋषि- मुनियों के सुझाव पर राजा जनक ने भूमि को जोतना आरम्भ किया। हल जोतते हुए हल का अग्र भाग किसी वस्तु से टकराया और हल वहीं रुक गया।
जब जनक ने मिट्टी हटाकर देखा तो उन्हें एक कन्या मिली। राजा ने उसे अपनी पुत्री स्वीकार किया, और नाम रखा सीता। सीता को विदेह की राजा जनक की पुत्री होने के कारण क्रमशः वैदेही और जानकी भी कहा गया। राजा जनक नित्यप्रति शिवधनुष की पूजा किया करते थे। सीता कुछ बड़ी हुई, तो वह भी घर के पूजाघर में रखे शिव धनुष की पूजा व साज- सम्भाल का कार्य देखने लगी। एक दिन राजा जनक ने देखा कि जानकी ने शिव के धनुष को हाथ में उठा लिया है, और साफ -सफाई के लिए अन्य सामानों के साथ ही धनुष को भी इधर से उधर कर रही है। यह देखकर राजा जनक ने प्रतिज्ञा की कि शिव धनुष को तोड़ने वाले के साथ ही वह अपनी पुत्री सीता की विवाह करेंगे। और उन्होंने इस हेतु सीता स्वयंबर का आयोजन किया। सीता के स्वयंवर में आमंत्रित कोई भी राजा जब धनुष को उठा भी नहीं पाए, तब श्रीराम ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया। और प्रत्यंचा चढाने के प्रयास में ही वह धनुष टूट गया। इस तरह राम और सीता का विवाह हुआ।
श्रीरामचरितमानस के अनुसार महाराजा जनक के द्वारा सीता के विवाह हेतु रचाए गए स्वयंवर में आए राजा-महाराजाओं के द्वारा भगवान शिव का धनुष नहीं उठाये जा सकने के कारण ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम से आज्ञा देते हुए कहा, हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और जनक का संताप मिटाओ। गुरु विश्वामित्र के वचन सुनकर श्रीराम तत्पर उठे और धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए आगे बढ़ें। यह दृश्य देखकर सीता के मन में उल्लास छा गया। प्रभु की ओर देखकर सीता ने मन ही मन निश्चय किया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा अथवा रहेगा ही नहीं। सीता के मन की बात प्रभु श्रीराम जान गए और उन्होंने देखते ही देखते भगवान शिव का महान धनुष उठाया। इसके बाद उस पर प्रत्यंचा चढ़ाते ही एक भयंकर ध्वनि के साथ धनुष टूट गया। यह देखकर सीता के मन को संतोष हुआ। फिर सीता श्रीराम के निकट आईं।
सखियों के बीच में जनकपुत्री सीता ऐसी शोभित हो रही थी, जैसे बहुत सी छवियों के बीच में महाछवि हो। तब एक सखी ने सीता से जयमाला पहनाने को कहा। उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो डंडियों सहित दो- दो कमल चंद्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। सखी के कहने पर सीता ने श्रीराम के गले में जयमाला पहना दी। यह दृश्य देखकर देवता फूल बरसाने लगे। नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। श्रीराम-सीता की जोड़ी इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, मानो सुंदरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गए हो। पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग में यश फैल गया कि श्रीराम ने धनुष तोड़ दिया और सीताजी का वरण कर लिया। विवाह के पश्चात जानकी ने हमेशा राम का अनुसरण किया और उनसे कदम से कदम मिला कर चलीं। संसार के लिए यह भी अनुकरणीय है।
श्रीराम -सीता के मनोरम विवाह के स्मरण में प्रतिवर्ष अगहन मास की शुक्ल पंचमी को प्रमुख श्रीराम मंदिरों में विशेष उत्सव मनाया जाता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम-सीता के शुभ विवाह के कारण ही यह दिन अत्यंत पवित्र माना जाता है। इस पावन दिन सभी को राम-सीता की आराधना करते हुए अपने सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए प्रभु से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीराम का विधिवत पूजन और सांकेतिक रूप से या उत्सव के रूप में भगवान का विवाह माता सीता से कराने से जीवन में सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। मान्यता यह भी है कि विवाह में विलम्ब हो रहे युवक- युवतियों, संतान कष्ट अथवा पारिवारिक समस्या से जूझ रहे विवाहित दम्पतियों के द्वारा विवाह पंचमी के दिन श्रीराम और सीता का पूजन करके श्रीराम रक्षा स्त्रोत्र का पाठ किये जाने से उन्हें अवश्य लाभ प्राप्त होता है। पौराणिक मान्यतानुसार विवाह पंचमी पर भगवान श्रीराम और सीता का विवाह केवल स्त्री और पुरुष के गृहस्थ जीवन में प्रवेश का ही प्रसंग नहीं है, वरन यह जीवन को संपूर्णता देने का अवसर भी है। श्रीराम विवाह के माध्यम से विवाह की महत्ता व गंभीरता को जाना जा सकता है। विवाह ऐसा संस्कार है, जिसे प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी वरण किया था।
