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‘वेपन्स’: डर और सोच का संगम

बहुत कम ही आपको ऐसी हॉरर फ़िल्म देखने को मिलती है जो एक साथ कई परतों में बंटी हो, गहरी बेचैनी पैदा करे, गहरी और मनोरंजक हो। हथियार हर कसौटी पर खरे उतरते हैं। चाहे वह एकांत सेटिंग हो, कैमरा वर्क हो या अभिनय, आप इस खौफनाक रहस्य का उतना ही हिस्सा महसूस करते हैं जितना कि किरदार।

सिने-सोहबत

मनोविज्ञान की दृष्टि से भय को एक प्राकृतिक भाव माना गया है, जिसे जीवन की रक्षा से जोड़ कर देखा जाता है। ये हमें किसी भी ख़तरे से बचाने के लिए सावधान करता है परंतु ये ज़रूरी नहीं कि ये हमेशा सक्रिय हो। इसका जागना और फिर ओझल हो जाना स्थितियों के अनुसार होता है। आज के ‘सिने-सोहबत’ में हम चर्चा करेंगे हॉलीवुड की नई हॉरर-थ्रिलर फ़िल्म ‘वेपन्स’ की जो इंसान के भीतर छिपे हथियारों को उजागर करती है। फ़िल्म के लेखक-निर्देशक हैं ज़ैक क्रेगर।

हॉलीवुड में हॉरर-थ्रिलर जॉनर लगातार नए प्रयोग कर रहा है। ये फ़िल्में सिर्फ़ डराने का काम नहीं करतीं, बल्कि डर के साथ सामाजिक टिप्पणी भी करती रही हैं। ‘वेपन्स’ एक ऐसी ही फ़िल्म है, जो पारंपरिक ‘हॉरर’ से आगे जाकर इंसानी मनोविज्ञान और समाज की हिंसा पर गंभीर सवाल उठाती है। फ़िल्म की कहानी सरल सपाट होने की बजाए ठीक ठाक परतदार है। एक छोटे से अमेरिकी कस्बे में जब एक ही कक्षा के 17 बच्चे एक ही रात में अपने घरों से रहस्यमय तरीके से गायब हो जाते हैं, केवल एक छात्र (एलेक्स) और शिक्षक (जूलिया गार्नर जस्टिन) को छोड़कर, तो ज़ाहिर है पूरा का पूरा हैरान शहर जवाब तलाशता है। छोटे शहर की यह रोमांचक रहस्यमयी फ़िल्म हर मोड़ पर चौंकाती है। कभी यह किसी सीरियल किलर का मामला लगता है, तो कभी किसी अलौकिक शक्ति की करतूत। धीरे-धीरे खुलता है कि असली नायक-खलनायक दोनों हैं, हथियार और ये हथियार दरअसल केवल बंदूक, चाकू और कुल्हाड़ी नहीं, बल्कि इंसानी लालच, भय और नफ़रत भी हैं। लेखक, निर्देशक ने प्रतीकात्मकता के ज़रिये यह दिखाया है कि समाज में असली ख़तरा बाहर नहीं, बल्कि भीतर छिपा हुआ है।

एक स्कूल की रात को 2:17 बजे, 17 बच्चे एक साथ गायब हो जाते हैं। वे बिस्तर से उठते हैं, अपने सामने के दरवाज़े खोलते हैं और रात में बाहर भागते हैं, बाहें फैलाए, मानो अपने नींद से भरे उपनगरीय इलाके के लॉन में चुपके से उड़ते छोटे हवाई जहाज़ हों। इन बच्चों में एक बात समान है कि ये सभी जस्टिन गैंडी की तीसरी कक्षा के छात्र हैं, जो अब खाली पड़ी है, सिवाय एलेक्स नाम के एक शर्मीले लड़के के, जो शहर के नाराज़ माता, पिता की तरह ही हैरान है कि उसे इस अजीबोगरीब हस्र से बचा लिया गया।

यह एक हॉरर फिल्म की शुरुआत के लिए एक दिलचस्प जगह है, जिसे ‘वेपन्स’ के लेखक, निर्देशक ज़ैक क्रेगर ने एक स्थानीय लड़की से फिल्म के अलौकिक प्रतीत होने वाले कथानक का वर्णन करवाने के अपने फैसले से और भी अपरंपरागत बना दिया है। इसके बाद होने वाली चौंकाने वाली और आश्चर्यजनक रूप से खूनी घटनाओं में से कितनी की जानकारी उसे रही होगी? कोई बात नहीं। जैसा कि एक अनाम युवा कथावाचक अपने साथियों के लापता होने के बारे में कहती है, ’पुलिस और इस शहर के शीर्ष लोग… इसे सुलझा नहीं पाए’ यह दावा हमें एक ऐसे रहस्य की ओर ले जाता है जो कम से कम आंशिक रूप से तो अनसुलझा ही रहेगा, जो हाल ही में एक सफल हॉरर उप शैली के रूप में उभरा है, क्योंकि ‘हेरेडिटरी’ और ‘लॉन्गलेग्स’ जैसी फिल्में उस अस्पष्टता को अपनाती हैं जो कभी ‘पिकनिक एट हैंगिंग रॉक’ जैसी विचित्र फिल्मों के लिए आरक्षित थी।

ज़ैक क्रेगर की ‘वेपन्स’ इस साल अब तक की सर्वश्रेष्ठ हॉरर फिल्म है। यह फ़िल्मकारी के किसी भी हॉरर ट्रोप के आगे नहीं झुकती और अपनी खुद की सिनेमाई भाषा, गति और शैली स्थापित करती है। जब कहानी अनजाने और अजीब हास्य को जन्म देती है, तब भी आतंक कायम रहता है। फ़िल्म की ‘स्टोरीटेलिंग’ इतनी कमाल कि दर्शकों के भीतर जो भय का भाव पैदा किया जाता है वह अपनी पकड़ कभी ढीली नहीं करता। यह कुछ ऐसा है जो एरी एस्टर (‘हेरेडिटरी’ और ‘मिडसमर’) और जॉर्डन पील (‘गेट आउट’, ‘नोप’) ने इस शैली में वर्षों में हासिल किया है। वेपन्स इस ट्विस्टेड थ्रिलर्स की लीग में काफ़ी ऊंचा स्थान रखता है और इसे लंबे समय तक याद रखा जाएगा।

शुरुआत से अंत तक अनोखा और बेहद डरावना, ‘वेपन्स’ एक सस्पेंस भरी पहेली की तरह खुलता है जो दर्शकों कोबख़ूबी रोमांचित करता रहता है। कहानी अपने आप में दिलचस्प तो है ही, लेकिन इसकी चतुराई से कहानी कहने और घटनाओं का खुलासा सबसे ख़ास है। क्राइम थ्रिलर, रहस्य और हॉरर का एक शानदार मिश्रण है जो दर्शकों को एक ज़बरदस्त पागलपन भरी दुनिया में फंसा लेता है जो उनका भरपूर आनंद भी लेते हैं। ख़ासकर ‘वेपन्स’ का क्लाइमेक्स तो और भी मज़ेदार है।

फ़िल्म का निर्देशन गहरी सोच और सावधानी के साथ किया गया है। बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ साथ फ़िल्म के साउंड डिज़ाइन का कुशल उपयोग कमाल का प्रभाव उत्पन्न करता है। क़िस्सागोई का नॉन लीनियर नैरेटिव (टूटी फूटी घटनाओं में कहानी कहना) दर्शक को लगातार उलझाए रखता है। पटकथा का आकर्षण यह है कि दर्शक कभी निश्चित नहीं हो पाता कि खतरा अलौकिक है या मानवीय।

फ़िल्म के कलाकारों ने अपनी प्रमाणिकता से इसे ऊंचाई दी है। बच्चों और महिलाओं से जुड़े दृश्यों में संवेदनशील अभिनय दर्शकों पर गहरा असर छोड़ता है। ‘वेपन्स’ के तकनीकी पक्ष की बात करें तो सिनेमाटोग्राफी में वीरान गलियां, धुंधले कमरे और सूने खेतों का चित्रण भयावह यथार्थ रचता है। साउंड डिज़ाइन ऐसा कि सन्नाटे और अचानक शोर का संतुलन दर्शकों को चौंकाता है। फ़िल्म की एडिटिंग इतनी कसी हुई कि सस्पेंस लगातार बना रहता है।

प्रोडक्शन डिज़ाइन की खासियत ये कि हथियारों की चमक और रक्तरंजित रूप दोनों बारीकी से दिखाए गए हैं। ‘वेपन्स’ केवल हॉरर नहीं, बल्कि गहरी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक टिप्पणी है। इसमें अमेरिका में बढ़ती बंदूक हिंसा पर अप्रत्यक्ष प्रहार करते हुए गन वायलेंस की झलक है। ये फ़िल्म एक बड़ा सवाल ये भी खड़ी करती है कि ‘इंसान बनाम हथियार’ में बुरा हथियार है या उसे इस्तेमाल करने वाला इंसान? साथ ही ये कि ‘हकीकत’ बनाम ‘अलौकिकता’ की लड़ाई में बार बार इस भ्रम का होना कि दरअसल असली दुश्मन दानवी ताक़त है या इंसान का बीमार दिमाग। फ़िल्म देखते समय और उसके बाद भी दर्शक बेचैनी महसूस करते हैं। ये बेचैनी डर की वजह

से नहीं, बल्कि उन सवालों की वजह से, जो फ़िल्म छोड़ जाती है। क्या इंसान अपने भीतर के हथियारों को कभी काबू कर पाएगा? क्या कानून और बंदूक पर रोक समाज को बदल सकते हैं? ऐसा भी नहीं है कि इस फ़िल्म में सब कुछ सिर्फ़ महिमामंडित करने योग्य है। ज़ाहिर है हर अच्छी फ़िल्म की तरह इसकी भी कुछ कमजोरियां हैं। फ़िल्म की कहानी कुछ हिस्सों में धीमी पड़ जाती है। कहीं कहीं प्रतीकात्मकता इतनी गहरी है कि आम दर्शक के लिए

समझना मुश्किल हो सकता है। साथ ही, कुछ दृश्यों में हिंसा के दृश्य इतने ग्राफ़िक हैं कि संवेदनशील दर्शक असहज हो सकते हैं। बहुत कम ही आपको ऐसी हॉरर फ़िल्म देखने को मिलती है जो एक साथ कई परतों में बंटी हो, गहरी बेचैनी पैदा करे, गहरी और मनोरंजक हो। हथियार हर कसौटी पर खरे उतरते हैं। चाहे वह एकांत सेटिंग हो, कैमरा वर्क हो या अभिनय, आप इस खौफनाक रहस्य का उतना ही हिस्सा महसूस करते हैं जितना कि किरदार।भयानक रूप से सम्मोहक, बेकाबू और हड्डियों तक सिहरन पैदा करने वाला, यह शानदार ढंग से लिखा गया छोटे शहर का रहस्य, प्रतिभा में लिपटा पागलपन है। बहुत कम ही ऐसा होता है कि शानदार तैयारी संतोषजनक परिणाम दे। ‘वेपन्स’ ऐसा कर दिखाती है। यह एक तनावपूर्ण, अंधकारमय और उन्मादपूर्ण रोमांचकारी सफ़र है जिसे आपको बिल्कुल भी मिस नहीं करना चाहिए।

आपके नज़दीकी सिनेमाघर में है। देख लीजिएगा।(पंकज दुबे उपन्यासकार और पॉप कल्चर स्टोरीटेलर हैं।)

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