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ऑपरेशन सिंदूर से भारत ने क्या पाया?

मोदी

इस चुनौती पर विचार की जरूरत है कि भारत का पक्ष न्यायपूर्ण है, इसको लेकर कथानक कैसे निर्मित हो और उसे कैसे व्यापक रूप से विश्व में स्वीकार्य बनाया जाए। अपने देश के अंदर कूपमंडूक ढंग से बनाई और फैलाई गई कहानियों का अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई महत्त्व नहीं है, ये बात इस प्रकरण में साफ हुई है। तो अब नजरिया बदलने की आवश्यकता है।

भारत और पाकिस्तान पूर्ण युद्ध के मुहाने पर जाकर लौट आए, इस पर ना सिर्फ इन दोनों देशों, बल्कि दुनिया भर में राहत महसूस की गई है। परमाणु हथियार संपन्न दो देशों के बीच खुला युद्ध हो, तो इन हथियारों के इस्तेमाल की आशंका से कोई इनकार नहीं कर सकता। यह अंदेशा फिलहाल टल गया है, बेशक यह अच्छी खबर है।

इसके बावजूद भारत के नजरिए से देखें, तो युद्ध टलने के क्रम में हुई घटनाएं असहज करने वाली हैं। हर लड़ाई की तरह इस प्रकरण में भी दोनों शामिल देशों के सैन्य बल, कूटनीतिक प्रभाव, और कथानक को प्रभावित कर सकने की क्षमता दांव पर लगी थी। चूंकि बात युद्ध जैसी स्थिति से आगे नहीं बढ़ी, इसलिए इनमें से किसी क्षमता का पूरा इम्तहान नहीं हुआ।

फिर भी साढ़े तीन दिन की लड़ाई के दौरान जैसी धारणाएं दुनिया बनीं, वह भारत के लिहाज से असंतोषजनक हैं। मगर इस मुद्दे पर हम बाद में बात करेंगे। पहले लड़ाईबंदी के क्रम में हुई घटनाओं पर ध्यान देना अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इनके ठोस दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।

तो ध्यान दीजिएः

(https://x.com/realDonaldTrump/status/1921174163848401313)

(https://x.com/SecRubio/status/1921175185836708140)

(https://x.com/John_Hudson/status/1921211844494000618)

(https://www.youtube.com/live/09E0Teq5YbQ)

(https://x.com/DrSJaishankar/status/1921183635274608685)

(https://x.com/RT_com/status/1921226845824950331)

जम्मू-कश्मीर समस्या पर भारत की पारंपरिक नीति और इस मसले की पृष्ठभूमि पर गौर करें, तो ये तमाम बातें अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। भारत की नीति जम्मू-कश्मीर मसले को द्विपक्षीय (यानी भारत और पाकिस्तान के) दायरे में रखने की रही है। जबकि पाकिस्तान हमेशा इसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप देने और इसमें तीसरे पक्ष की भूमिका बनाने के लिए प्रयासरत रहा है।

1965 के युद्ध तक भारत इसे द्विपक्षीय दायरे में सीमित करने में सफल नहीं हुआ था। उस युद्ध के बाद सोवियत संघ के दखल पर ताशकंद (उज्बेकिस्तान की राजधानी जो उस समय सोवियत संघ में था) में भारत और पाकिस्तान की शिखर वार्ता हुई और वहीं संबंधित समझौता हुआ था।

आखिरकार 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर निर्णायक जीत के बाद भारत इस मसले को द्विपक्षीय दायरे में लाने में सफल हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने तब जोर डाला कि युद्ध के बाद के मुद्दों को हल करने के लिए शिखर वार्ता भारत में होगी। नतीजतन, 1972 में शिमला में इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टों के बीच शिखर बैठक हुई।

वहां बहुचर्चित शिमला समझौता हुआ, जिसमें जम्मू-कश्मीर मसले को द्विपक्षीय दायरे में रखने और ‘बातचीत के रास्ते शांतिपूर्ण ढंग से’ इसका समाधान निकालने के लिए पाकिस्तान को वचनबद्ध किया गया। 1999 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने कारवां के साथ लाहौर गए और वहां लाहौर घोषणापत्र जारी हुआ, तो उसमें भी पाकिस्तान ने ये वचनबद्धता दोहराई।

इस बीच जनरल जिया-उल हक के शासनकाल (1977-88) में पाकिस्तान ने ‘हजारों जख्मों के जरिए भारत का खून’ बहाने की नीति अपनाई। उसके तहत आतंकवाद को प्रायोजित करने का ढांचा वहां बनाया गया। उसने पहले खालिस्तानी, फिर कश्मीरी उग्रवादियों और उसके बाद अपने नागरिकों के जरिए को इस नीति को आगे बढ़ाया है।

आरंभ से ही इस नीति का मकसद शिमला समझौते की भावना को नाकाम करना रहा है। चूंकि औपचारिक तौर पर पाकिस्तान सरकार द्विपक्षीयता और शांतिपूर्ण समाधान के लिए वचनवद्ध रही है, तो उसने गैर-सरकारी ढांचे के जरिए कश्मीर मसले पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान खींचने की जद्दोजहद की है।

परमाणु हथियार बना लेने के बाद पाकिस्तान के पास इस सिलसिले में एक और ताकत आ गई। तब से वह दुनिया में यह भय फैलाने की कोशिश में रहा है कि कश्मीर मसले पर उसने ध्यान नहीं दिया गया, तो दक्षिण एशिया में परमाणु युद्ध हो सकता है।

नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद अघोषित नीति यह हो गई कि जम्मू-कश्मीर को लेकर कोई विवाद नहीं है। मसला सिर्फ पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) को लेकर बचा है, जिसे भारत देर-सबेर अपनी सीमा में मिला लेगा। अगस्त 2019 में संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से तो इस नीति का एलान और भी जोरदार ढंग से होता रहा है।

वैसे उसके काफी पहले से ये जुमला भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की जुब़ान पर रहा है कि ‘गोली और बोली साथ-साथ नहीं चल सकती’। 2019 के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार पाकिस्तान से बातचीत की किसी संभावना को सिरे से ठुकराते रही है।

इस बीच 2016 में उरी आतंकवादी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 में पुलवामा कांड के बाद ऑपरेशन बंदर के तहत बालाकोट पर हवाई हमला कर नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘घर में घुस कर मारने’ की अपनी नीति का एलान किया। इसलिए बीते 22 अप्रैल को पहलगाम में वीभत्स आतंकवादी हमले के बाद अपेक्षित था कि मोदी सरकार उन दोनों कार्रवाइयों से आगे जाकर सैन्य ऑपरेशन करेगी। 22 अप्रैल से सात मई तक जैसा माहौल बनाया गया, उससे ये अपेक्षाएं और बढ़ीं।

6-7 मई की रात पाकिस्तान में नौ ठिकानों पर भारतीय सेना के हमलों के बाद घटनाक्रम अपेक्षित ढंग से आगे बढ़ रहा था। धीरे-धीरे लड़ाई बढ़ती नजर आ रही थी। विभिन्न देशों की तनाव घटाने की अपीलों का कोई असर भारत और पाकिस्तान पर होता नजर नहीं आ रहा था। 10 मई को लड़ाई और भड़क गई, जब भारत ने पाकिस्तान में ना सिर्फ (कम से कम तीन) सैनिक ठिकानों को निशाना बनाया, बल्कि रावलपिंडी के पास एक ठिकाने को खासा नुकसान भी पहुंचाया।

भारत का पक्ष न्यायपूर्ण है कूटनीति

इसके जवाब में पाकिस्तान ने भी अनेक ठिकानों पर निशाने साधे। भारत ने भी स्वीकार किया है कि उनमें से कुछ ठिकानों पर कुछ क्षति पहुंची, हालांकि भारी नुकसान पहुंचाने के पाकिस्तानी दावे का भारतीय अधिकारियों ने खंडन किया।

इसी मुकाम पर अमेरिकी कूटनीति तेज हुई, जिसकी जानकारी मार्को रुबियो के अलावा अमेरिकी मीडियाकर्मियों ने भी दी है। नतीजा युद्धविराम और इसके बाद बड़े मुद्दों पर तटस्थ स्थल पर वार्ता के लिए दोनों देशों के सहमत होने के रूप में सामने आया है। (https://www.youtube.com/watch?v=jwXOqZxnfOU)।

जिस पृष्ठभूमि में यह हुआ, उसमें भारत का इन बातों पर सहमत होना समस्याग्रस्त है। क्योंकि,

जाहिर है, घटनाक्रम के इस मोड़ के साथ हुए युद्धविराम को भारतीय कूटनीति की सफलता कतई नहीं कहा जा सकता। हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने युद्धविराम समझौते को अपने देश की जीत बताया है, मगर यह सचमुच पाकिस्तान की कितनी कामयाबी है, इस बारे में अभी कुछ ठोस रूप से कहना संभव नहीं है। इसलिए कि अभी कुछ बातें स्पष्ट नहीं हैं।

मसलन, तटस्थ स्थल पर किन-किन मुद्दों पर बातचीत होगी, क्या बातचीत में सिर्फ भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधि शामिल होंगे या कोई तीसरा पक्ष भी वहां मौजूद रहेगा, क्या आतंकवाद की हालिया घटनाओं में पाकिस्तान के हाथ से जुड़े अकाट्य साक्ष्य लेकर भारत वहां जाएगा, और क्या वार्ता से पहले हाल में स्थगित की गई द्विपक्षीय संधि या समझौतों को बहाल किया जाएगा?

इनमे सिंधु जल संधि को भारत ने लंबित किया है, जबकि शिमला समझौते एवं लाहौर घोषणापत्र सहित बाकी तमाम द्विपक्षीय समझौतों को पाकिस्तान ने निलंबित किया है।

इन सवालों के जवाब मिलने के बाद ही इस बारे में ठोस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकेगा कि 6-7 मई की रात शुरू हुई सैनिक कार्रवाई के बाद हुई कूटनीति में भारत कितना कारगर या नाकाम रहा। फिलहाल, इतना कहने भर का आधार जरूर है कि कुल मिलाकर इस प्रकरण में कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को नुकसान ही अधिक हुआ है।

सैन्य मोर्चे पर क्या हुआ, बारे में जानकारियों का घोर अभाव है। कहा जाता है कि युद्ध में सबसे बड़ा शिकार सत्य बनता है। हर घटना को दोनों पक्ष अपने नजरिए से पेश करते हैं। घटना के तथ्य क्या हैं, उस बारे में जितनी बातें बताई जाती हैं, उससे अधिक छिपी रह जाती हैं। इसलिए इस बिंदु पर हम कोई अकटल नहीं लगाएंगे।

सिर्फ यह उल्लेख करेंगे कि भारत ने सरहद पार किए बिना पाकिस्तान के अंदर दूर तक जाकर मार करने की अपनी क्षमता का बेहतर प्रदर्शन किया। पाकिस्तान ने भी भारत के अंदर हमले किए, मगर वे किस हद तक प्रभावी रहे, इस संबंध अधिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं।

पाकिस्तान के इस दावे कि उसने पहले ही दिन भारत के तीन राफेल सहित पांच लड़ाकू विमान मार गिराए, तथ्य कम और कहानियां ज्यादा सामने आई हैं। पाकिस्तान की सैनिक क्षमता के संदर्भ में ये कहानी सबसे अधिक प्रचारित हुई है। इस हद तक कि पश्चिमी मीडिया में ना सिर्फ इसकी चर्चा हुई है, बल्कि इसको लेकर चीन, रूस एवं पश्चिमी देशों की हथियार प्रणालियों की क्षमता को लेकर लंबी बहसें हुई हैं। (गौरतलब है कि पाकिस्तान ने चीन निर्मित विमान से दागी गई चीनी मिसाइलों के जरिए भारतीय विमानों को गिराने का दावा किया था।)

युद्ध की एक हकीकत यह है कि उसमें तथ्यों का जितना महत्त्व होता है, उतनी ही अहमियत कहानियों और उनको लेकर बनने वाली धारणाओं की रहती है। आरंभिक संकेत यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धारणा की होड़ में पाकिस्तान काफी कामयाब रहा। दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिम एशिया, और यूरेशियन विमर्श के दायरे में उसके इस कथानक को काफी प्रचार मिला है कि चीन के साथ मिल कर उसने जो सैन्य क्षमता विकसित की है, साढ़े तीन दिन की लड़ाई में वह भारत पर भारी पड़ी।

यहां तक कि पश्चिमी मीडिया में इसकी खूब चर्चा है, भले वहां इन कहानियों को सहज स्वीकृति ना मिली हो। साथ ही परमाणु युद्ध का अंदेशा फैला कर भारत के साथ अपने टकराव को अंतरराष्ट्रीय चिंता के रूप में पेश करने में पाकिस्तान खासा कामयाब रहा दिखता है।

इस क्रम में ये तथ्य उल्लेखनीय है कि चीन की बढ़ी ताकत के साथ नैरेटिव गढ़ने और फैलाने की अपनी क्षमता भी उसने बढ़ाई है। आज चीन समर्थक मीडिया (खास कर सोशल मीडिया) का बड़ा नेटवर्क दुनिया में फैल गया है। ताजा संकट में इस नेटवर्क का पूरा साथ पाकिस्तान को मिला। अगर यह नहीं होता, तो पाकिस्तान अपने पक्ष में धारणा गढ़ने और फैलाने में उस हद तक कामयाब नहीं हो पाता, जितना फिलहाल हो गया वह दिखता है।

इन हालात ने भारत की चुनौतियां बढ़ा दी हैं। सबसे ज्यादा चुनौती भारतीय कूटनीति एवं प्रचार तंत्र के सामने है। मसलन, तटस्थ स्थल की वार्ता में यह सुनिश्चित करने की जरूरत होगी कि बातचीत को द्विपक्षीय दायरे में रखा जाए और तीसरे पक्ष की बनी भूमिका को भविष्य में निष्प्रभावी बनाने के उपाय हों।

अगली चुनौती इस पर विचार करने की है कि भारत का पक्ष न्यायपूर्ण है, इसको लेकर कथानक कैसे निर्मित हो और उसे कैसे व्यापक रूप से विश्व में स्वीकार्य बनाया जाए। अपने देश के अंदर कूपमंडूक ढंग से बनाई और फैलाई गई कहानियों का अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई महत्त्व नहीं है, ये बात इस प्रकरण में साफ हुई है। तो अब नजरिया बदलने की आवश्यकता है।

वर्तमान सत्ताधारियों की प्राथमिकताओं और दृष्टिकोण पर ध्यान दें, तो उपरोक्त तकाजे बहुत बड़ी मांग मालूम पड़ते हैं। मगर अब भी अपनी ‘मर्दाना विदेश नीति’ के व्यामोह में वे फंसे रहे और नियंत्रित मीडिया से मनोनुकूल कहानियां देश में फैला कर सियासी लाभ को लेकर आश्वस्त बने रहने से आगे नहीं सोच पाए, तो देश को उसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। आखिरकार, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस पूरे घटनाक्रम में भारत अकेला खड़ा नजर आया है।

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Pic Credit: ANI

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