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जी-7 से भारत को अब तक क्या मिला?

कनाडा में आज से 17 जून तक तक होने वाली ग्रुप-7 की शिखर बैठक के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रण मिलना (या ना मिलना) भारत में एक बड़ा मुद्दा बना। जब तक आमंत्रण नहीं आया था, मोदी विरोधी खेमों में एक तरह का उल्लास था। वहां इसे मोदी के अपमान की “एक और मिसाल” बताया जा रहा था। मगर आखिरकार आमंत्रण आ गया। इससे उन खेमों में मायूसी पसरी। जबकि मोदी समर्थक खेमे खिल उठे।

देश के मौजूदा राजनीतिक ध्रुवीकरण में ऐसी प्रतिक्रियाएं आम हो चुकी हैं। और उतना ही स्वाभाविक हो गया है- किसी बेहद अहम मसले पर भी सारी चर्चा का मोदी के इर्द-गिर्द सिमट जाना। नतीजा होता है कि आज के माहौल में अक्सर ऐसे मामलों में गंभीर चर्चा नहीं हो पाती।

ताजा प्रकरण में असल मुद्दा है कि जी-7 का सदस्य ना होने के बावजूद भारत का उसके शिखर सम्मेलन में भागीदारी करना क्या आज देश हित में है? गुजरे छह वर्षों से जी-7 शिखर सम्मेलनों में बतौर भारत के प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया जाता रहा है। तो यह आकलन का महत्त्वपूर्ण बिंदु है कि इससे भारत को क्या हासिल हुआ है? इसका नुकसान तो जग-जाहिर है। इस कारण भारत के पारंपरिक संबंध बिगड़े हैं और ग्लोबल साउथ- भारत जिसका स्वाभाविक हिस्सा है- देश की हैसियत घटी है।

इस सिलसिले में दो बातें अवश्य ध्यान में रखनी चाहिएः हाल में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान कूटनीतिक रूप से भारत के पूरी तरह अलग-थलग पड़ जाने में कई ठोस संकेत छिपे हुए हैं। साथ ही विश्व शक्ति संतुलन (या समीकरण) की वो परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण हैं, जिनके बीच सबसे जुड़ कर चलना (all-alignment) और सबसे फायदे उठाना अब बेहद कठिन हो चुका है।

असल में सबको साधने की मौकापरस्ती अब नुकसान का सौदा बन चुकी है। इसी नीति का नुकसान ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत को उठाना पड़ा। भारत के बारे में ऐसी धारणा बनना सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि नई बन रही दुनिया में भारत सरकार की अपनी कोई नीति नहीं है- सिवाय इसके कि वह सबको भ्रम में रख कर लाभ उठाने के प्रयास में जुटी रहती है।

मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद अमेरिकी धुरी से जुड़ने की नीति अपनाई और उसमें अपना पूरा दांव झोंक दिया। मगर साथ ही रूस के साथ लाभ के संबंधों को भी उसने जारी रखा। कुछ वर्षों तक इसे चलाना संभव हुआ, मगर फरवरी 2022 में यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू होने के बाद पेचीदगियां बढ़ गईं। और बढ़ते-बढ़ते ये उस मुकाम तक पहुंच गईं कि ऑपरेशन सिंदूर के समय जब भारत को जरूरत पड़ी, तो ना पश्चिम ने साथ दिया और ना रूस ने!

इस तजुर्बे से सीख लेने के बजाय मोदी सरकार अपनी पुरानी नीति पर आगे बढ़ती दिखी है। तो अब एक तरफ मोदी जी-7 शिखर बैठक में भाग लेने कनाडा में कनानास्किस जाएंगे, तो साथ ही मीडिया में ये खबर भी ब्रीफ की गई है कि अगले 6-7 जुलाई को ब्राजील में होने वाले ब्रिक्स+ शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने वे वहां जाएंगे। अब अनुमान लगाएं कि उन दोनों जगहों पर क्या होगा?

      जी-7 शिखर सम्मेलन में चर्चा चीन और रूस पर केंद्रित रहेगी। जो साझा बयान जारी होगा, उसमें दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में “मुक्त नौवहन” की वकालत की जाएगी। चीन इसे अपने खिलाफ मानेगा और कड़ी प्रतिक्रिया जताएगा।

      अब चूंकि डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति हैं, तो मुमकिन है कि रूस की आलोचना उतनी तीखी ना हो या उसके खिलाफ नए प्रतिबंधों पर वहां सहमति ना बने। फिर भी ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा यूक्रेन युद्ध का मसला अवश्य उछालेंगे। (समूह के बाकी सदस्य इटली और जापान हैं।) इस पर रूस की कड़ी प्रतिक्रिया आएगी।

      जी-7 के सदस्य देश दुनिया पर अपने वर्चस्व को कायम रखने की रणनीति दोहराएंगे। इस वर्चस्व को चुनौती मुख्य रूप से चीन और रूस से मिल रही है।

      ग्रुप का सदस्य ना होने के कारण भारत को यह सुविधा है कि संयुक्त विज्ञप्ति पर उसे दस्तखत नहीं करना होगा। मगर वहां उभरने वाली राय में भारत की मौन सहमति है, ये संदेश फिर भी वहां से जाएगा।

चीन और रूस की अंतरराष्ट्रीय रणनीति को आज एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। उन दोनों बड़ी ताकतों का अंतर्विरोध आज पश्चिम से है। उन्होंने पश्चिमी वर्चस्व से मुक्त दुनिया के निर्माण का खुला इरादा जता रखा है। इन दोनों देशों ने ग्लोबल साउथ के अनेक देशों को साथ लेकर अपने मंच निर्मित किए हैं। ब्रिक्स+ , शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ), और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन (EAEU) ऐसे ही मंच हैं। इनमें भारत ब्रिक्स+ के संस्थापक देशों में है। लेकिन जब भारत ने ऐसा किया था, तब से भारत की नीति के साथ-साथ इस मंच का स्वरूप भी काफी बदल चुका है।

इसी मंच का अगला शिखर सम्मेलन जुलाई में ब्राजील के शहर रियो द जनेरो में होगा। अब अनुमान लगाएं कि वहां क्या होगा?

क्या यह सचमुच विंडबना नहीं है कि परस्पर विरोधी उद्देश्यों के लिए काम कर रहे दो समूहों की शिखर बैठकों में भारत भाग लेगा? यह विडंबना उससे भी ज्यादा तीखे रूप में इसी वर्ष जाहिर होगी, जब चीन में एससीओ की शिखर बैठक होगी। एससीओ तो साफ तौर पर सुरक्षा से जुड़ा मंच है, जिसकी दो साल पहले भारत ने मेजबानी की थी। उसी वर्ष भारत के एतराज के बावजूद चीन की महत्त्वाकांक्षी योजना- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को बतौर समूह एससीओ ने अपना लिया था।

इस संदर्भ में एक नया पेच रूस ने जोड़ दिया है। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव हाल में दो बार रूस- भारत- चीन (RIC) की त्रिपक्षीय शिखर वार्ता प्रक्रिया को फिर से शुरू करने की पेशकश कर चुके हैं। यह मंच ढाई दशक पहले बना था। इसकी बैठकें गलवान घाटी की वारदात से पहले लगातार होती रहीं। मगर लगभग पांच साल से इसमें ठहराव आया हुआ है। RIC मंच पर ये तीनों देश अपनी नीतियों में तालमेल बनाने का प्रयास करते थे। मगर क्या आज की परिस्थितियों में ऐसा हो पाना संभव है?

लावरोव जल्द ही भारत यात्रा पर आने वाले हैं। कूटनीतिक हलकों में जारी चर्चा के मुताबिक इस दौरान वे जानना चाहेंगे कि क्या प्रधानमंत्री मोदी रियो द जनेरो में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से औपचारिक वार्ता के लिए तैयार हैं? कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक चीन चाहता है कि भारत के साथ पाकिस्तान से मेल-मिलाप की नीति अपनाए। अतः RIC शिखर वार्ता के बारे में निर्णय लेना भारत सरकार के लिए आसान नहीं है।

जाहिर है, भारत के सामने विकट स्थिति है। सत्ताधारी दल के समर्थक समूहों को अपने प्रिय नेता नरेंद्र मोदी की तस्वीर दो परस्पर विरोधी समूहों से संबंधित विश्व नेताओं के साथ देख कर भले खुशी होती होगी, मगर नए वैश्विक समीकरणों से परिचित भारतवासी इससे अपने को भ्रमित ही महसूस करेंगे। बहरहाल, इस परिस्थिति में क्या मोदी सरकार के नीतिकार भारतीय विदेश नीति को नई दिशा देने की जरूरत महसूस कर रहे हैं? अगर ऐसी कोशिश नहीं हो रही है, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की अंतरराष्ट्रीय मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं।

अब चीजें जहां पहुंच गई हैं और नरेंद्र मोदी सरकार की जैसी छवि दुनिया में बन चुकी है, उसके बीच ग्लोबल साउथ के नए बन रहे समन्वयों में भारत की पूरी भागीदारी तो फिलहाल संभव विकल्प नहीं रह गया है। ऐसा तब तक नहीं हो सकेगा, जब तक भारत और चीन के बीच रिश्तों में सुधार और दोनों देशों के बीच वैश्विक रणनीति पर सहमति नहीं उभरती। मगर इन हालात के बीच भी भारत के पास स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने का विकल्प जरूर मौजूद है।

बहरहाल, भारतीय विदेश नीति में पश्चिम की तरफ झुकाव अब उचित विकल्प नहीं रह गया है। यहां इस पहलू गौरतलब है कि जिस पश्चिमी धुरी के साथ अपने को जोड़ने की नीति नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनाई थी, वह खुद आज लड़खड़ाती नज़र आ रही है। अमेरिका में गृह युद्ध जैसी स्थितियां हैं, तो यूरोप की अपनी अस्थिरताएं कम नहीं हैं। आर्थिक शक्ति के लिहाज से यूरोप का पराभव जग-जाहिर है। उत्पादक शक्ति के रूप में अमेरिका अपना महत्त्व पहले ही खो चुका है।

बेशक, वित्तीय और तकनीक के क्षेत्र में अमेरिका की ताकत अभी कायम है, मगर डॉनल्ड ट्रंप की नीतियां अमेरिका के बॉन्ड मूल्य, शेयर भाव और डॉलर के रुतबे की जड़ खोद रही हैं। जहां तक तकनीकी श्रेष्ठता का प्रश्न है, तो अब ये बात दुनिया भर में मान ली गई है कि चौथी औद्योगिक क्रांति का नेतृत्व चीन कर रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रॉबोटिक्स, क्वांटम कंप्यूटिंग, ग्रीन एनर्जी आदि औद्योगिक सभ्यता के नए चरण का आधार हैं। इन सबमें चीन की अग्रणी हैसियत धीरे-धीरे अधिक स्पष्ट होती जा रही है।

बात इतनी ही नहीं है। पश्चिम के रुतबे का एक बड़ा पहलू उसका सॉफ्ट पॉवर था। ये शक्ति पश्चिमी देशों की अंदरूनी व्यवस्था में कथित खुलेपन, लोकतंत्र, सत्ता को संतुलित रखने के लिए उस पर अवरोध की व्यवस्था, नागरिक अधिकारों को तरजीह आदि के कथानक से बनती थी। उसी से बनी धारणाओं का नतीजा था कि विश्व मंचों पर पश्चिमी देश खुद को लोकतंत्र और मानव अधिकारों का पहरेदार बता पाते थे। ऐसी धारणा बनने और बनाए रखने के पीछे एक बड़ी वजह संस्कृति, शिक्षा, और सूचना के तंत्र पर उन देशों का नियंत्रण था। मगर सोशल मीडिया के उदय ने कहानी पलटनी शुरू कर दी।

और अब पश्चिम में आर्थिक-सामाजिक अंतर्विरोधों के चरमसीमा तक पहुंचने के ठोस हालात हैं। उसी नतीजा है कि उपरोक्त उसूलों से खुलेआम वे देश मुंह मोड़ रहे हैं। ट्रंप काल के अमेरिका को कौन लोकतंत्र का पैरोकार मानेगा? गजा में इजराइली मानव संहार को संरक्षण दे रहे अमेरिका और आम तौर पर पूरे पश्चिम को कौन मानव अधिकारों का पहरुआ समझेगा? लगभग हर अहम देश में धुर दक्षिणपंथ के उदय के बाद पश्चिम को लिबरलिज्म यानी उदार मूल्यों का गढ़ कौन समझने को तैयार होगा? और जब The Economist जैसी पत्रिका यह कहने लगे कि यूरोप में प्रेस एवं अभिव्यक्ति की आजादी समस्याग्रस्त हो गई है, तो समझा जा सकता है कि वहां खुलेपन की धारणा किस मुकाम पर पहुंच गई है।

इसीलिए भारत के सामने यह अहम सवाल है कि ढहते हुए खेमे के साथ अपने भविष्य को जोड़े रखना क्या बुद्धिमानी की बात होगी? कहा जा सकता है कि चीन के नजरिए को देखते हुए उसके रसूख वाले मंचों के साथ अभिन्न रूप से जुड़ना भी भारत के लिए उचित विकल्प नहीं है। वैसे तो यह एक विवादास्पद तर्क है, क्योंकि जो मंच आज नई विश्व व्यवस्था को गढ़ने की पहल कर रहे हैं, वे चीन की मिल्कियत नहीं हैं। बल्कि भारत स्वतंत्र विदेश नीति अपनाए, तो वह भी वहां उतनी ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में होगा।

बहरहाल, आज देश में बहस का मुद्दा यह होना चाहिए कि आज की दुनिया में स्वतंत्र विदेश नीति का मतलब क्या हो सकता है और यह कैसी होनी चाहिए? मगर ये बहस तब होगी, जब देश का विमर्श मोदी समर्थन और मोदी विरोध के ध्रुवीकरण से निकल पाएगा। और यह बहस तब होगी, जब पहले यह स्वीकार किया जाएगा कि all-alignment की मोदी-जयशंकर की नीति ना सिर्फ सिरे से नाकाम रही है, बल्कि यह देश के लिए हानिकारक भी साबित हुई है।

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