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मानसून सत्र में क्या विपक्ष जिम्मेदार दिखेगा?

Parliament

संसद में कामकाज को लेकर एक प्रक्रिया तय है। संसद की कार्य मंत्रणा समिति में तय किया जाता है कि कौन से मुद्दे उठाए जाएंगे, किन मुद्दों पर चर्चा होगी, चर्चा कितनी देर चलेगी, किस विषय पर सिर्फ चर्चा होगी और किस विषय पर चर्चा के बाद मतदान होगा आदि। कार्य मंत्रणा समिति की बैठक पीठासीन अधिकारियों के साथ साथ पक्ष और विपक्ष के सांसद मौजूद रहते हैं। वहां सहमति के साथ विषय और चर्चा का तरीका तय होना चाहिए। दुर्भाग्य से विपक्षी पार्टियां कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में बनी सहमति का भी ध्यान नहीं रखती हैं।

सुनील सरावगी

इस बार संसद का मानसून सत्र कई कारणों से विशेष रहने वाला है। इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की एकता व अखंडता से जुड़े कई अहम विषयों पर चर्चा होने की संभावना है। जम्मू कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल को हुए आतंकवादी हमले और उसके बाद भारत की ओर से की गई सैन्य कार्रवाई यानी ऑपरेशन सिंदूर के बाद यह संसद का पहला सत्र है। ध्यान रहे विपक्षी पार्टियां पहलगाम कांड के बाद विशेष सत्र बुलाने की मांग कर रही थीं। ऑपरेशन सिंदूर के बाद भी उन्होंने विशेष सत्र की मांग की थी। अब उनके पास यह अवसर है कि वे इन दोनों अहम विषयों पर मानसून सत्र में अपनी बात रखेंगी। ये दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े विषय हैं, जिन पर निश्चित रूप से संसद में चर्चा होनी चाहिए। लेकिन यह चर्चा आरोप प्रत्यारोप की नहीं होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि विपक्ष इसे राजनीतिक लाभ प्राप्त करने का अवसर माने।

यह ध्यान रखने की जरुरत है कि पहलगाम कांड और ऑपरेशन सिंदूर पर भारत की तीनों सेनाओं के बहादुर अधिकारियों ने भारत का पक्ष देश और दुनिया के सामने रखा था। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान लगातार विदेश मंत्रालय ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें सेना के अधिकारी मौजूद रहे। जब सीजफायर हुआ तब सेना के तीनों अंगों के वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके हर पहलू की जानकारी दी। सवाल है कि क्या भारत की विपक्षी पार्टियां अपनी सेना पर अविश्वास करती हैं? उनकी बातों पर भरोसा नहीं करतीं? क्या विपक्षी पार्टियां चाहती हैं कि सेना के अधिकारियों ने जो कहा है भारत सरकार उससे अलग कुछ कहे? यह तो संभव नहीं है। भारत को कितना नुकसान हुआ या भारत ने कितना नुकसान हुआ इस पर इधऱ उधर की बातों की बजाय विपक्ष को अपनी सेना की बातों पर भरोसा करना चाहिए।

जिम्मेदार और परिपक्व विपक्षी पार्टियों से कूटनीति और सामरिक नीति की बारीकियों को समझने की अपेक्षा की जाती है। विपक्षी पार्टियां पिछले कुछ महीनों से निरंतर यह मुद्दा उठा रही हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप क्यों भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर का श्रेय ले रहे हैं। हालांकि भारत सरकार की ओर से बार बार इसका जवाब दिया जा चुका है। स्वंय   प्रधानमंत्री   नरेंद्र मोदी ने जी 7 देशों की बैठक में ब्राजील में स्पष्ट रूप से कहा कि पाकिस्तान के अनुरोध पर सीजफायर की वार्ता हुई थी और सीजफायर हुआ था। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि सीजफायर की वार्ता में व्यापार से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं उठाया गया था। इस तरह उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के दावों पर भारत का पक्ष स्पष्ट रूप से रख दिया। फिर भी विपक्ष यह मुद्दा उठा रहा है। कूटनीति ऐसे नहीं होती है। भारत की सफल कूटनीति का प्रमाण यह है कि अमेरिका ने लश्कर ए तैयबा से जुड़े संगठन द रेसिस्टेंस फ्रंट यानी टीआरएफ को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया है। ध्यान रहे इसी संगठन ने पहलगाम कांड को अंजाम दिया था और उसकी जिम्मेदारी ली थी। यह भारत की बड़ी सफलता है कि अमेरिका ने उसे आतंकवादी संगठन घोषित किया है। अब भारत का प्रयास उसे संयुक्त राष्ट्र संघ से भी आतंकवादी संगठन घोषित कराने का होगा। सो, अमेरिका ने क्या कहा उससे ज्यादा अहम यह है कि उसने क्या किया! उसने आतंकवाद के मसले पर भारत का साथ दिया है और पहलगाम कांड को अंजाम देने वाले संगठन को आतंकवादी संगठन घोषित किया है।

संसद के मानसून सत्र में बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर भी चर्चा होने की संभावना है। यह मामला ऊपरी तौर पर भले मतदाता सूची की शुद्धता से जुड़ा हुआ दिख रहा है लेकिन यह भी देश की सुरक्षा से जुड़ा मामला है। चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि इस तरह का पुनरीक्षण बिहार के बाद पूरे देश में होगा ताकि पूरे देश की मतदाता सूची की शुचिता सुनिश्चित की जा सके। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए यह बेहद अहम है। दुर्भाग्य से विपक्षी पार्टियों ने इसे भी राजनीति का मुद्दा बना दिया है। बिहार में विपक्ष ने इस विषय पर बंद का आयोजन किया, जिसमें लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष भी शामिल हुए। विपक्ष की ओर से इस विषय को संसद में उठाने की तैयारी हो रही है। संसद की कार्यवाही में विपक्ष के ऐसे मुद्दे उठाने पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है। लेकिन मुद्दे चर्चा के लिए उठाए जाने चाहिए, विचार विमर्श और संवाद के लिए उठाए जाने चाहिए, सरकार से जवाब मांगने के लिए उठाए जाने चाहिए, संसद ठप्प करने के लिए नहीं उठाए जाने चाहिए।

यह आमतौर पर देखा गया है कि विपक्षी पार्टियां राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की एकता व अखंडता से जुड़े विषयों को भी राजनीतिक वाद विवाद का मुद्दा बना देती हैं। उनका उद्देश्य इन विषयों पर चर्चा कराना नहीं, बल्कि सरकार पर आरोप लगाना और अपने अपने समर्थक मतदाता समूह को खुश करना होता है। संसद को इस तरह से राजनीति का अखाड़ा बनाना उचित नहीं है। बिहार में विधानसभा का चुनाव है इसलिए एक खास मतदाता समूह की तुष्टिकरण के लिए विपक्षी पार्टियां चुनाव आयोग पर हमला कर रही हैं। वास्तविकता यह है कि बिहार हो या पूर्वी भारत के कई दूसरे राज्य वहां बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों की बड़ी आबादी बस गई है। उन्होंने आधार कार्ड बनवा रखे हैं और उनके नाम मतदाता सूची में शामिल हैं। बिहार के सीमांचल के इलाके में औसतन एक सौ की आबादी पर 125 आधार कार्ड बने हुए हैं। यानी आबादी से 25 फीसदी ज्यादा आधार हैं और उसी अनुपात में मतदाता सूची में भी नाम हैं। सवाल है कि क्या इन नामों की पहचान करके उन्हें मतदाता सूची से नहीं हटाया जाना चाहिए? हो सकता है कि इसकी प्रक्रिया में कुछ कमियां हों, जो स्थानीय स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों की वजह से हो सकती हैं। विपक्षी पार्टियों के पास अगर इसकी जानकारी है तो उन्हें इसे साझा करना चाहिए। लेकिन पूरी प्रक्रिया को, पूरे अभियान को संदिग्ध बताना और उस पर देश की एक संवैधानिक संस्था को कठघरे में खड़ा करना उचित नहीं है। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि विपक्षी पार्टियां तरह तरह के आरोप लगाती रहीं और बिहार के 90 फीसदी मतदाताओं ने मतगणना प्रपत्र भर कर जमा करा दिया। इस वास्तविकता की रोशनी में संसद में इस पर चर्चा होनी चाहिए।

इन दो अहम विषयों के अलावा भी कई अन्य विषय हैं, जिनको संसद के मानसून सत्र में उठाया जाएगा। अमेरिका के साथ व्यापार संधि को लेकर चर्चा चल रही है। देश के कई हिस्सों में भाषा को लेकर अनावश्यक विवाद चल रहा है। छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव   भूपेश बघेल के बेटे की शराब घोटाले से जुड़े धन शोधन के मामले में गिरफ्तारी का मुद्दा भी है, जिसे विपक्षी पार्टियां संसद में उठाएंगी। संसद का यह सत्र इसलिए भी बहुत अहम है क्योंकि इसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया जा सकता है। केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री   किरेन रिजिजू ने कहा है कि सरकार इसकी तैयारी कर रही है। कई सांसद इस मामले में भी प्रक्रियागत विषय उठा कर इसमें बाधा डालना चाहते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि यह देश की एक अहम संवैधानिक संस्था की शुचिता से जुड़ा मामला है। देश के कई हिस्सों में इस समय प्राकृतिक आपदा आई हुई है और बाढ़ व बारिश से बड़ी आबादी प्रभावित है। यह एक बड़ा विषय है और दीर्घकालिक चिंता का विषय है, जिस पर संसद को रचनात्मक चर्चा करनी चाहिए ताकि इस समस्या का स्थायी समाधान निकाला जा सके।

ध्यान रहे संसद में कामकाज को लेकर एक प्रक्रिया तय है। संसद की कार्य मंत्रणा समिति में तय किया जाता है कि कौन से मुद्दे उठाए जाएंगे, किन मुद्दों पर चर्चा होगी, चर्चा कितनी देर चलेगी, किस विषय पर सिर्फ चर्चा होगी और किस विषय पर चर्चा के बाद मतदान होगा आदि। कार्य मंत्रणा समिति की बैठक पीठासीन अधिकारियों के साथ साथ पक्ष और विपक्ष के सांसद मौजूद रहते हैं। वहां सहमति के साथ विषय और चर्चा का तरीका तय होना चाहिए। दुर्भाग्य से विपक्षी पार्टियां कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में बनी सहमति का भी ध्यान नहीं रखती हैं। विपक्ष के सांसद राजनीतिक लाभ के लिए और मीडिया में खबर बनवाने के लिए संसद परिसर में प्रदर्शन करते हैं और संसद के अंदर तख्तियां लेकर नारेबाजी करते हैं। यह कामकाज का संसदीय तरीका नहीं है। देश की जनता इसे देख रही होती है। इससे विपक्ष की साख तो बिगड़ती ही है साथ ही संसद की गरिमा पर भी सवाल खड़े होते हैं। संसद की गरिमा की रक्षा करना पक्ष और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी होती है। आशा करनी चाहिए कि संसद के मानसून सत्र में विपक्ष परिपक्वता का परिचय देगा और राष्ट्र हित से जुड़े मुद्दों पर सार्थक व रचनात्मक चर्चा करेगा। सरकार कई अहम विधेयक इस सत्र में पेश करने की तैयारी कर रही है। विपक्ष की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि वह इन विधेयकों पर चर्चा में हिस्सा ले। अगर विपक्ष सिर्फ नारेबाजी करता रहेगा तो विधेयक बिना चर्चा के पास होंगे, जो कि संसदीय लोकतंत्र की लिए कोई अच्छी बात नहीं होगी।  (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशेष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)

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