लेफ्ट पार्टियों के लिए अगला एक साल करो या मरो का साल है। उसे अगले साल मई में केरल की अपनी सत्ता बचानी है। पश्चिम बंगाल से लेफ्ट मोर्चा का डेरा डंडा उखड़ चुका है और त्रिपुरा में भी मानिक सरकार व कुछ अन्य नेताओं की वजह से लेफ्ट की सांस चल रही है। हालांकि वहां भी वह आईसीयू में ही है। बाकी सभी राज्यों में भी, जहां सीपीएम, सीपीआई, सीपीआई एमएल, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी या फॉरवर्ड ब्लॉक की आंशिक उपस्थिति थी वहां से भी ये पार्टियां लगभग सिमट गई हैं।
बिहार में राजद व कांग्रेस के साथ एलायंस में या तमिलनाडु में डीएमके से एलायंस में या झारखंड में जेएमएम से तालमेल में या महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, तेलंगाना, हिमाचल, जम्मू कश्मीर आदि राज्यों में कांग्रेस गठबंधन में लेफ्ट एकाध सीट लड़ ले और जीत भी ले तो उससे कोई राजनीति नहीं सधनी है।
केरल वह राज्य है, जहां आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों को पहली बार सत्ता मिली थी और अब वह आखिरी व एकमात्र किला बचा है। इसलिए सीपीएम के तमाम पुरोधा नेता उसे बचाने में लगे हैं। एक तरफ लेफ्ट के सामने चुनाव जीतने की चुनौती है तो दूसरी ओर वैचारिक से लेकर तमाम राजनीतिक व आर्थिक मसलों पर घनघोर दुविधा की स्थिति है। पिछले कुछ महीनों से पार्टी कई किस्म की दुविधा से जूझ रही है और इस पर पार्टी की मदुरै कांग्रेस में खुल कर चर्चा हुई।
सीपीएम की मदुरै कांग्रेस में इस बात पर विचार हुआ कि पार्टी धर्म के साथ दूरी बनाए रखे या सभी धर्मों के साथ नजदीकी बढ़ाई जाए। कई कॉमरेड मान रहे हैं कि लगातार धार्मिक होती जा रही जनता के बीच अधार्मिक व्यवहार राजनीतिक रूप से बहुत फायदेमंद नहीं हो सकता है। हालांकि इस दुविधा के बीच सीपीएम ने एमए बेबी को महासचिव चुना।
वे ईसाई हैं लेकिन अपने को नास्तिक बताते हैं। पार्टी यह सुनिश्चित करेगी कि उनकी नास्तिकता चुनावी संभावनाओं को नुकसान नहीं पहुंचाए। वैसे भी सीपीएम चाहे धर्म से दूरी का भाव रखे लेकिन यह यह बता है कि मुस्लिम लीग के कांग्रेस के साथ होने की वजह से मुसलमानों का रूझान ज्यादा कांग्रेस की ओर हो सकता है ऐसे में ईसाई वोट एकजुट करने की जरुरत है, जो बेबी के नाम पर हो सकता है।
धर्म की राजनीति की दुविधा को पश्चिम बंगाल के कॉमरेडों ने काफी पहले छोड़ दिया था। राज्य की जनता की भावनाओं को समझते हुए वहां के कॉमरेड दुर्गापूजा के पंडालों में जाने लगे थे और कहने लगे थे कि यह बंगाल की संस्कृति का हिस्सा है। लेकिन केरल में कम्युनिस्ट पार्टियां सभी धर्मों से समान दूरी के सिद्धांत पर चलती रही हैं।
परंतु अब राष्ट्रीय स्तर पर धर्म के प्रचार की वजह से केरल भी अछूता नहीं रह गया है। वहां धर्म का प्रचार प्रसार तेजी से हुआ है। मुसलमानों और इसाइयों के साथ साथ हिंदू आबादी भी धार्मिक हुई है। याद करें कैसे कुछ समय पहले एक नगर निगम क्षेत्र में भाजपा जीत गई थी तो मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन ने कहा था कि वहां शिक्षा की कमी है और सरकार वहां शिक्षा का प्रसार करेगी।
मदुरै कांग्रेस की शुरुआत से पहले पार्टी ने कम से कम आर्थिक मसले पर अपनी दुविधा दूर की है, जिस पर मदुरै कांग्रेस में मुहर लगी। केरल की पिनरायी विजयन सरकार ने राज्य में निजी विश्वविद्यालयों को मंजूरी देने का फैसला किया है। इसके साथ ही सरकारी उपक्रमों में निजी निवेश को भी मंजूरी देने का फैसला किया है।
इसके लिए देश की सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम की आलोचना हो रही है और कहा है रहा है कि वह अपनी पारंपरिक आर्थिक नीतियों से पीछे हट रही है। सोचें, यह फैसला ऐसे समय में हुआ, जब सीपीएम की कमान अस्थायी तौर पर ही सही लेकिन सबसे शुद्धतावादी प्रकाश करात के हाथ में थी।
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मदुरै कांग्रेस में आर्थिक नीतियों में इस कथित विचलन पर विचार होने की खबर है। पार्टी की ओर से सरकार के इन आर्थिक फैसलों को सही ठहराने के लिए यह तर्क गढ़ा गया कि राज्य को वित्त आयोग का हस्तांतरण कम हो गया है। यानी वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर केंद्र द्वारा संग्रह किए गए कर में जो हिस्सा राज्यों को मिलता था वह कम होता जा रहा है। कहा गया कि केरल भाजपा की शत्रुतापूर्ण नीतियों का शिकार हुआ है।
यह भी दावा किया गया कि 10वें से लेकर 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बीच केरल को होने वाला हस्तांतरण आधा रह गया है, जबकि राज्य को सामाजिक विकास और मानव विकास संकेतकों को बनाए रखने के लिए सामाजिक क्षेत्रों और सामाजिक कल्याण योजनाओं पर अधिक निवेश करने की आवश्यकता महसूस हुई।
साथ ही अधिक निवेश करने के लिए पर्याप्त संसाधन भी जुटाने की जरुरत है। इस आधार पर निजी निवेश को बढ़ावा देने, सार्वजनिक उपक्रमों में निजी निवेश बढ़ाने या विनिवेश की दिशा में बढ़ने और निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना की मंजूरी देने का फैसला हुआ। इसे ‘नए केरल के लिए नए तरीके’ के रूप में परिभाषित किया जा रहा है।
यह बताने का प्रयास किया गया कि भाजपा वही जीत सकती है, जहां शिक्षा का प्रसार कम है। लेकिन अब सीपीएम यह कहने की स्थिति में नहीं है क्योंकि पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के आंकड़ों ने सबकी नींद उड़ाई है। केरल में पहली बार भाजपा का खाता खुला। त्रिशूर सीट से उसके उम्मीदवार सुरेश गोपी करीब दो लाख वोट से चुनाव जीते।
भाजपा तिरूवनंतपुरम सीट पर दूसरे स्थान पर रही और सिर्फ 16 हजार वोट से चुनाव हारी। ऐसे ही अतिंगल सीट पर उसे तीन लाख से ज्यादा वोट मिले और तीसरे स्थान पर होने के बावजूद वह जीतने वाले से सिर्फ 17 हजार वोट पीछे थी। अलपुझा में भी उसे तीन लाख वोट मिले। इसके अलावा तीन सीटों पर उसे दो लाख से ज्यादा वोट मिले। यानी एक सीट जीतने के बाद वह छह सीटों पर काफी नजदीकी लड़ाई में रही।
Pic Credit: ANI