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नफरत है राष्ट्र धर्म!

यों मुर्दा कौम मुर्दों, कब्रिस्तानों में ही सांसें लेती हैं और भय के भूत उसका परिवेश! इसलिए आश्चर्य नहीं है जो हिंदू राजनीति में औरंगजेब का कंकाल उपयोगी है और काला रंग संसद को स्थगित करवा देता है! इस सप्ताह तमिलनाडु के नेताओं के टीशर्ट पर ‘तमिलनाडु विल फाइट, तमिलनाडु विल विन’ शब्दों को पढ़ संसद स्थगित हुई। वहीं नागपुर में औरंगजेब पर हिंसा हुई। उसकी कब्र तोड़ने वाले के लिए पुरस्कार की घोषणा सुनी! तीसरी खबर भूतहा मणिपुर में सुप्रीम कोर्ट के छह जजों की विजिट है। यह सब किस बात का प्रमाण है? नफरत का बतौर राष्ट्र (सत्ता) धर्म उपयोग!

शनिवार को चेन्नई में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, पंजाब और ओडिशा के मुख्यमंत्रियों के साथ विचार कर रहे हैं कि दक्षिण कैसे उत्तर भारत से, भाजपा से बचे! सप्रीम कोर्ट के जज मणिपुर में फील करेंगे कि नफरत में लोग कैसे एक दूसरे के जानी दुश्मन है! संभव है औरंगजेब की कब्र के मसले में दंगे के कथित देशद्रोही मास्टरमाइंड और पकड़े जाएं!

क्या यह सब उसी इतिहास की और भारत के पुनर्वास का सफर नहीं है, जिसमें औरंगजेब, संभाजी भी था तो भगवे, हरे झंडे की रियासतें भी थीं? भूल जाएं संघ परिवार, भाजपा और नरेंद्र मोदी के एकात्म मानववाद, एक भारत-श्रेष्ठ भारत के जुमलों को और याद करें उस औरंगजेब को, जिसने पूरे भारत पर कब्जा करने की जिद्द में  नफरत, क्रूरता से यह ठानी कि दक्षिण में भी मेरा राज हो। और हिंदुओं से ऐसा सलूक हो कि उनकी नस्ल भयाकुल हो जाए। वह फिर इतिहास का महानायक, विश्वगुरू कहलाएगा। औरंगजेब की रग-रग में तब क्या था? सिर्फ सत्ता की भूख और भूख। तभी  चौबीसों घंटे अपने एकेश्वर अहंकार में दिन-रात सत्ता के अभियानों में खोए रहना।

क्या मैं गलत हूं? ध्यान रहे औरंगजेब उस मुगल खानदान का था, जिसमें उससे पहले एक अकबर हुआ था। अकबर भी सत्ता की ललक में साम्राज्य बढ़ाने का धुनी था। उसे राणा प्रताप की एक गज स्वतंत्र जमीन बरदाश्त नहीं थी। बावजूद इसके उसे औरंगजेब जैसा नहीं समझा गया। तभी अकबर और औरंगजेब का फर्क इतिहास का वह सत्य है, जिसमें अकबर की मौत के बाद परिवार का आगे भी शासन कायम रहा वही औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का हिंदुस्तान तितर-बितर होने लगा!

बहरहाल, तमिलनाड़ु और दक्षिण के मन को बूझें। किसलिए मुख्यमंत्री स्टालिन और उनके बेटे ने सनातन धर्म, रुपए के सिंबल की जगह तमिल शब्द, हिंदी विरोध और परिसीमन पर वह रूख बनाया जो असल में मोदी-योगी याकि हिंदू राजनीति के तौर-तरीकों के प्रति नफरत है? वजह केंद्र सरकार की दादागिरी है। वह शोर, वह भौकाल है कि हमी से देश है। भाजपा ने वह भगवा राजनीति बनाई है, जिसमें नफरत है और हर कोई अपनी अस्मिता, पहचान, भाषा और सत्ता को लेकर भयाकुल है। नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ, देवेंद्र फड़नवीस, मणिपुर को तबाह करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री बीरेन सिंह हों या ममता बनर्जी, स्टालिन, सिद्धारमैया, तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव आदि सभी का दिल-दिमाग चौबीस घंटे इस असुरक्षा में गुजरता है कि कहीं हम हार न जाएं, कहीं हम धांधली के शिकार न हो जाएं। धोखा न खा जाएं।

उद्धव ठाकरे, शरद पवार, राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में अपने को धोखे में हारा माना है तो अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल भी ऐसा ही मानते हैं। इसलिए ममता बनर्जी और स्टालिन भी आशंकित हैं। ममता बनर्जी, तेजस्वी यादव सब वोटर लिस्ट से भारत की व्यवस्था, लोकतंत्र, चुनाव आयोग, कोर्ट सभी के प्रति आशंकित और भयाकुल हैं। वही दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ दिन रात सोचते होते हैं कि वह क्या हो, जिससे भयाकुल हिंदू गोलबंद हों, वे सब कुछ भूलकर औरंगजेब के दुःस्वप्न देखें, मस्जिद देखें, मुसलमान देखें! तबी पूरा देश नफरत के दो मैदान में कनर्वट है। पक्ष से भी नफरत और विपक्ष से भी नफरत!  दोनों से परे जो तटस्थ है उनका कुल आबादी में प्रतिशत नगण्य सा है।

इसलिए सब कुछ एक्स्ट्रिम! इतना भयावह की जहरीले पानी को भी फर्जी सर्टिफिकेटों से ‘अमृत’ करार दिया जा रहा है! साल भर बाद एमके स्टालिन के आगे विधानसभा चुनाव है तो वे भी लोहे से लोहे को काटने के लिए लोगों को भड़काने, नफरत से गोलबंद करने की वही राजनीति कर रहे हैं जो मोदी के आइडिया ऑफ इंडिया का कामयाब नुस्खा है। इसलिए भारत के लोकतंत्र में राजनीति अब मध्यकाल से अधिक नफरती है। युद्ध में दुश्मनों की आमने-सामने की हथियारों की लड़ाई से वह अधिक घातक है। पूरा देश ही मैदान हो गया है!

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