बुधवार को डोनाल्ड ट्रंप ने सस्पेंस बढ़ाया। कहा, “हम भारत के साथ एक समझौते के बेहद करीब हैं, जहां वे बाज़ार खोलने को तैयार हैं… हम भारत तक पहुंच प्राप्त करने जा रहे हैं। और आपको समझना होगा, हमें पहले इन देशों में कोई पहुंच नहीं थी। हमारे लोग वहां नहीं जा सकते थे। और अब हम टैरिफ के ज़रिए पहुंच हासिल कर रहे हैं”।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की आवश्यकता है कि वह अमेरिका से राजी खुशी व्यापार करार करे। और यदि चीन, वियतनाम, इंडोनेशिया के साथ अमेरिका की जो टैरिफ दरें हैं, उनसे कम दर पर डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से आयात करने—सामान खरीदने—का करार किया, तो कहना ही क्या! आखिर भारत आयातित सामान को अन्य देशों को निर्यात कर मुनाफा नहीं कमाता, वह निर्यात-केंद्रित अर्थव्यवस्था नहीं है। इसलिए अमेरिका के लिए यह सुरक्षित है कि वह भारत से कम टैरिफ दर पर व्यापार करे। वियतनाम, इंडोनेशिया और चीन तो व्यापार के वैश्विक हब हैं, इसलिए अमेरिका उनके लिए टैरिफ दरें ऊंची रखे और भारत के लिए कम। ऐसा होना दोनों देशों के बीच विश्वास और केमिस्ट्री बनाने वाला है।
इससे अमेरिका और भारत—दोनों के स्वार्थ फलीभूत होंगे। अमेरिका को भारत का विशाल बाज़ार मिलेगा और भारत को चीन से कम मात्रा में ही सही, आयात में कटौती करने का अवसर। मोदी सरकार भले न माने, लेकिन मेरा शुरू से मानना रहा है कि चीन घोषित रूप से भारत को दुश्मन मानता है और वैसा ही व्यवहार भी करता है। मगर धंधेबाज दोस्तों की सलाहों में प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के बाज़ार को चीन-आश्रित बना दिया है। चीन खुलकर और पीठ पीछे, दोनों तरीकों से भारत पर छुरा मारता है। लेकिन मोदी सरकार में साहस, विज़न और संकल्प ही नहीं है जो वह चीन से पिंड छुड़ा सके।
तभी पिछले ग्यारह वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी और सरकार की आर्थिक नीतियों, विदेश नीति और कूटनीति में राष्ट्रपति शी जिनफिंग की चमचागिरी भारत का परमो धर्म है। या यह मूर्खता है कि चीन से रिश्ता रख कर पाकिस्तान और पुतिन को साधा जा सकता है, और पश्चिमी महाशक्तियों को भारत-मित्रता के लिए विवश किया जा सकता है। इसी रणनीति का नतीजा है कि भारत सुई और कलाई के धागे जैसी छोटी चीज़ों तक में चीन पर निर्भर हो गया है।
बहरहाल, संभव है कि सितंबर में क्वाड शिखर बैठक (जो बिहार चुनाव से पहले होगी) में भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के नेताओं की उपस्थिति में मोदी–ट्रंप की फोटोशूट के मौके तक भारत का अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ से व्यापारिक समझौता हो जाए। तब जरूर यह उम्मीद की जा सकती है कि भारत के व्यापारी, कारोबारी और बाज़ार धीरे-धीरे चीन से दूर होने लगेंगे।
चुनौती और संकट की बात डोनाल्ड ट्रंप का लक्ष्य भारत में अमेरिकी अनाज और डेयरी उत्पाद बेचना है। यही वह मुद्दा है जो भारत के किसानों और ग्वालों की रोज़ी रोटी के लिए संकटपूर्ण है। क्या भारत इसे धीरे-धीरे, चुपचाप मान लेगा? अपने को खटका है क्योंकि इस मामले में आवश्यकता साहस के साथ यह दो टूक घोषणा है कि भारत कतई दूध, डेयरी उत्पाद अमेरिका से नहीं खरीदेगा। क्यों?
इसलिए क्योंकि अमेरिका दुनिया का नंबर एक देश है, जहां दूध ब्लड मील चारे को खाने वाली गायों का सर्वाधिक होता है। अर्थात, “गायों को ऐसा चारा दिया जाता है जिसमें सूअर, मछली, चिकन, घोड़े और यहां तक कि बिल्लियों और कुत्तों का मांस होता है। और प्रोटीन के लिए मवेशियों को सूअर और घोड़े का खून दिया जाता है। साथ ही, उन्हें मोटा करने के लिए उन जानवरों के फैट का भी उपयोग किया जाता है”। (सिएटल टाइम्स)। इसीलिए भारत ने शुरू से विदेश से डेयरी उत्पादों के आयात को महंगा बनाया हुआ है। दूध की शाकाहारी प्रकृति के सर्टिफिकेशन की अनिवार्यता है जबकि इसका अमेरिका लगातार विरोध करता आया है। ट्रंप प्रशासन इस सर्टिफिकेशन को हटवाकर डेयरी उत्पादों पर टैरिफ कम करवाना चाहता है।
यही खतरा है। ऐसे में क्या जरूरी नहीं है जो सरकार हमेशा के लिए यह नीतिगत घोषणा करें कि ऐसा कोई भी दूध या डेयरी उत्पाद, जो ‘नॉन-वेज चारा’ से बनी गायों से आता हो, भारत में न आयात होगा, न बिकेगा—जब तक उसके साथ स्पष्ट घोषणा और प्रमाणपत्र न हो”।