चाहें तो इसे नरेंद्र मोदी का पुण्य मानें या पाप जो उनके हाथों सभी का अर्थ, सभी की औकात खत्म है! फिर भले संसद हो, लाल किले पर प्रधानमंत्री के भाषण की रस्म हो या राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, कैबिनेट, मुख्यमंत्रियों के चेहरों या आरएसएस जैसे संगठनों, एनजीओ, देश की आर्थिक-विदेश-समारिक नीति का मामला हो या विश्व में भारत के अर्थ का। सब ऐंवे ही हो गए हैं। गुरूवार को संसद का सत्र खत्म हुआ। और सत्र से संसद का क्या मान बना? सोचें, याद करें 2014 में संसद और उसका काम कैसा था और अब क्या है? संसद का अब अर्थ केवल स्थगन, हंगामा है। सत्र महज एक रस्म है। कोई उत्पादकता नहीं। स्पीकर- सभापति की कुर्सी पर ओम बिड़ला हो या जगदीप धनखड़ क्या कोई अर्थवान, प्रतिभावान, अनुकरणीय है?
15 अगस्त की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का भाषण पढ़ते चेहरा दिखलाई दिया। सोचें, देश के 140 करोड़ नागरिकों में से कितनों ने सुना, किनमें जोश भरा, कितनों को प्रेरित किया? अगले दिन खुद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भाषण दिया तो उससे जोश, प्रेरणा की बात तो छोड़े उसकी कितनी टीआरपी रही होगी? उसमें क्या नई बात थी? इस सत्य की गहराई जाननी हो तो याद करें 2014 के 15 अगस्त के दिन लाल किले पर, नरेंद्र मोदी के चेहरे, वाक्यों, टीआरपी के जोश और 2025 के 15 अगस्त के मोदी के भाषण को!
मोदी ने संघ को महान बताया! दस साल बाद नागपुर से आरएसएस लाल किले पहुंचा। इसलिए क्योंकि मोदी को अब आरएसएस की जरूरत है। पर आरएसएस के जाप से क्या मोहन भागवत एंड पार्टी जोश में आई होगी? क्या यह जमात भरोसा कर सकती है कि मोदी अब भारत को आत्मनिर्भर बना देंगे? मोदी-अमित शाह भाजपा को सत्ता की बेड़ियों से आजाद कर देंगे? संघ और भाजपा को भी ऐंवे ही, एक पुछल्ला बना देने के बाद वे आत्मनिर्भर भारत, आत्मनिर्भर भाजपा, आत्मनिर्भर संघ की मैसेजिंग के संकल्प में काम करेंगे?
लाल किले से आत्मनिर्भर भारत और संघ को नमन वैसा ही छल, वैसा ही रस्मी और दिखावे की नौंटकी है, जिससे अब कुछ भी नहीं सध सकता। इसलिए पते का सत्य केवल एक है और वह यह कि नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री अपने अर्थ को ग्यारह सालों में पूरी तरह गंवाया है न कि बनाया है!
स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहले कभी किसी प्रधानमंत्री के साथ नहीं हुआ। हिंदी में धाराप्रवाह भाषण नहीं कर पाते एचडी देवगौड़ा तथा मनमोहन सिंह के लाल किले से भाषण को भी देश, समर्थक और विरोधी समभाव सुनते होते थे। प्रधानमंत्री के भले होने, किसान-देशज होने या समझदार या समभावी होने से मनोभावों में एक आदर, एक सम्मान था। फिर मनमोहन सिंह हों या अटल बिहारी वाजपेयी वे खुद लिख-देख-समझ अपनी बात कहते थे। शायद ही कभी किसी का यह प्रायोजन रहा हो कि लाल किले से झूठ के क्या-क्या नए नैरेटिव गढ़ने हैं। तभी कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों को भाजपा के वाजपेयी हों या आडवाणी तथा वाजपेयी के भाषण को मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी सभी लाल किले जा कर गंभीरता से सुनते थे। मीडिया में भाषण में मीनमेख निकालने व आलोचना की बेबाकी अलग होती थी।
उस नाते तब और अब के लाल किले के भाषण का फर्क अपने आप यह बताता है कि नरेंद्र मोदी ने केवल प्रधानमंत्री के पद को ही आभाहीन नहीं बनाया है, बल्कि पाप-पुण्य के निजी खाते में वह दर्ज कराया है, जिसका उन्हें खुद को भान नहीं है। इसलिए लाल किले से विपक्षी नेता नदारद थे और संसद के ताजा सत्र में प्रधानमंत्री के आने पर विपक्ष के खटकने वाला हो हल्ला था तो वह सब यही बताता है कि बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत और भारत के बाहर कितना कुछ गंवाया है! और वह भारत का गंवाना भी है!
कल विदेश मंत्री जयशंकर से मालूम हुआ कि भारत ने तो अमेरिका के कहने से रूस से तेल खरीदा! यह एक वाक्य क्या दर्शाता है? क्या भारत का अपना विवेक नहीं है? इससे रूस और चीन में भारत की साख बनेगी? क्या डोनाल्ड ट्रंप की नाराजगी मिट जाएगी? क्या दुनिया को मालूम नहीं हो रहा है कि भारत की विदेश नीति लुढ़कता लोटा है? कभी इधर, कभी उधर! देश की रीति-नीति में न ईमान धर्म, पवित्रता व सत्यता है और न राष्ट्रहित की सर्वोच्चता! सब ऐंवे है! झूठ है, अवसरवाद है।