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अब्राहमिक भाईचारा बना तो हान-हिंदू सभ्यता का क्या होगा?

यों दूर की कौड़ी है मगर देश, सभ्यताओं की चिंता में दूर की ही सोचनी चाहिए। सोचें, हाल में पाकिस्तान-सऊदी अरब-कतर तथा ईरान के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जो कूटनीति की है वह क्या बतलाती है? मेरा मानना है अबू धाबी में शेख के साथ ट्रंप का ‘अब्राहमिक फ़ैमिली हाउस’ घूमना बड़ी बात है। ध्यान रहे पहले चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने मुसलमानों के खिलाफ तेवर दिखा कर लोकप्रियता पाई थी। 2016 में राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने कुछ इस्लामी देशों के लोगों की आवाजाही रोकी। आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के खिलाफ अमेरिकी सेना को झोंका। उसे खत्म किया। लेकिन तब भी वे सऊदी अरब और कतर पर फिदा थे। उन्होने एक तरफ यहूदी इजराइल के नेतन्याहू और दूसरी तरफ सऊदी अरब और कतर को महत्व दिया।

2017 में ट्रंप जब पहली विदेश यात्रा पर रियाद गए तो वह नए गठबंधन की शुरुआत थी। उन्होंने उस यात्रा में पचास से अधिक मुस्लिम देशों के नेताओं को संबोधित किया। ईरान के खिलाफ साझा मोर्चा बनाने और अरब बिरादरी को नई दिशा देने की जमीन बनाई। दुनिया तब हैरान थी जब 2020 में अमेरिकी मध्यस्थता से संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इज़राइल के साथ ऐतिहासिक ‘अब्राहमिक समझौते’ पर दस्तखत किए। 1979 में मिस्र और 1994 में जॉर्डन ने भी इज़राइल को कूटनीतिक मान्यता दी।

अब मौजूदा हालात पर गौर करें। नेतन्याहू फिलस्तीनी मुसलमानों को तबाह करके गाजा से भगा दे रहे हैं। बावजूद इसके कतर, सऊदी अरब, खाड़ी देशों ने नेतन्याहू पर वरदहस्त रखे हुए डोनाल्ड ट्रंप का दिल खोल कर स्वागत किया है। अरब-खाड़ी देश अमेरिका से वह सब ले रहे हैं, उसे वह सब दे रहे हैं, जो डोनाल्ड ट्रंप चाहते हैं। हम आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि एआई के वैश्विक पैमाने के डाटा सेंटर की स्थापना से लेकर बेइंतहां अमेरिकी हथियारों की खरीद के साथ पश्चिमी सभ्यता की कसौटियों के विश्वविद्यालयों, बौद्धिक संस्थानों, मीडिया, म्यूजियम, फैशन याकि दुनिया की सॉफ्ट और हार्ड पॉवर बनने की जैसी प्लानिंग सऊदी अरब, कतर, यूएई की धुरी पर गुल खिला रही है वह दीर्घकालीन उद्देश्यों में अभूतपूर्व है। इनकी वित्तीय ताकत की पहले से ही एक धुरी है। यदि इनके साथ ट्रंप के कारण इजराइल से सद्भाव बना रहा तो पृथ्वी का यह इलाका भविष्य में उस महाशक्ति क्षेत्र का पर्याय होगा जो रूस, चीन, यूरोपीय संघ में कईयों को पछाड़ता हुआ होगा।

और क्या बूझ सकते हैं कि कतर, सऊदी अरब, अबू धाबी, दुबई आदि का बड़ा प्रभाव क्षेत्र कौन सा होगा? सर्वप्रथम ये दुनिया की मुस्लिम जमात के मसीहा और सरंक्षक होंगे। और एशिया खासकर दक्षिण एशिया इसकी कॉलोनी याकि बाजार होगा। पाकिस्तान उसकी एटमी महाशक्ति होगी वही भारत पर इनका वित्तीय-आर्थिक कब्जा होगा। हम हिंदुओं का दिमाग छोटा और कुएं की मानसिकता वाला है लेकिन मोटामोटी ही कोई अध्ययन करे तो चीन के बाद अरब-खाड़ी देशों में ही हमारा आर्थिक टेटुआ फंसता हुआ है। यह अध्ययन होना चाहिए कि भारत के शेयर बाजार से ले कर अंबानी, अडानी जैसे कथित देशी जगत सेठों ने अरब-खाड़ी देशों से कितनी पूंजी ले कर उन्हें मुनाफा कमा कर दे रहे हैं या वादा किया हुआ है? मुझे यह जानकारी हैरान कर गई कि मुकेश अंबानी के रिलायंस ने रिटेल दुकानदारी के धंधे में भी कतर के सार्वभौम फंड का पैसा निवेश किया हुआ है। जैसे चीन ने किया है वैसे ही अऱब-खाड़ी देशों ने भारत में तंत्र बना लिया है। ये भारत के अडानी-अंबानी आदि एकाधिकारी सेठों को एजेंट बना कर उनके जरिए भारत के बाजार पर कब्जा रखने-बनाने की रणनीति में है। और निश्चित ही ये ऐसा पाकिस्तान, बांग्लादेश में भी कर रहे होंगे। पाकिस्तान का शरीफ घराना वैसे ही पूरी तरह बिकाऊ है जैसे हमारे धंधेबाज हैं।

विषयांतर हो गया है। पते की बात है कि ट्रंप, नेतन्याहू और सऊदी अरब, कतर, अबू धाबी के शेख वह कुछ पका रहे हैं, जिससे यहूदी, ईसाई और इस्लाम का भाईचारा बने। मतलब दुनिया की कोई 8.1 अरब लोगों की आबादी में से इन तीन धर्मों की 56 प्रतिशत आबादी में भाईचारा बन जाए। हां, आंकड़ों के अनुसार दुनिया में अब्राहमिक परंपराओं के आस्थावान (ईसाई 31 प्रतिशत, मुसलमान 25 प्रतिशत और यहूदी 0.2 प्रतिशत) 56 प्रतिशत से अधिक है। इन तीन धर्मों का कोई सौ से अधिक देशों में बोलबाला है। ये हथियार, तकनीक, ईंधन और वित्त के मामलों में निर्णायक हैं।

बाकी कौन बचता है? हान सभ्यता के घमंड में जीने वाले चाइनीज या हिंदू सभ्यता के हम हिंदू। बाकी में स्लाविक रूसी तथा छोटे समूहों में बौद्ध, अफ्रीकी, लातीनी अमेरिका के छोटे-छोटे कबीलाई समूह हैं।

लाख टके का सवाल है क्या सचमुच यहूदी, ईसाई और मुसलमान आपसी भाईचारे में वैश्विक राजनीति की रणनीति अपना सकते हैं?

ध्यान रहे एक ही पितृपुरुष अब्राहम के आध्यात्मिक वंश से यहूदी, ईसाई और इस्लाम जन्मे हैं। लेकिन मानव सभ्यता के इतिहास में इन तीन के बीच ही धर्म के नाम पर सर्वाधिक खून की नदियां बही हैं। यरूशलम के पत्थरों से लेकर कर्बला की रेत, और 9/11 से लेकर गाज़ा तक की हर त्रासदी के ये तीन धर्म जिम्मेवार हैं। लेकिन ये धर्म क्योंकि तलवार के दम से फैले हैं तो आज सबसे बड़ी जनसंख्या, प्रभाव और भूगोल पर भी कब्जा किए हुए हैं।

जो हो, डोनाल्ड ट्रंप का 2016 का भाषण गौरतलब है। वे 2017 में जब सऊदी अरब गए तो उन्होंने पहुंच कर कहा, ‘हम यहा भाषण देने नहीं बल्कि साझेदारी देने आए हैं’ (We are not here to lecture, we are here to offer partnership)फिर 2019 में पोप फ्रांसिस और काहिरा की अल-अजहर के ग्रैंड इमाम अहमद अल तायेब ने अबू धाबी में मिलकर ‘मानव भाईचारे के दस्तावेज’ (Document on Human Fraternity) पर दस्तखत करते हुए कहा,  ‘आस्था एक आस्थावान को दूसरों में भाई या बहन देखने की दृष्टि देती है और सहारा देने और प्रेम के लिए प्रेरित करती है’। (Faith leads a believer to see in the other a brother or sister to be supported and loved.) उस दस्तावेज की पृष्ठभूमि में ही 2020 के आते-आते अब्राहमिक समझौते (Abraham Accords) में यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान जैसे इस्लामी देशों ने इज़राइल से हाथ मिलाया।

फिर अबू धाबी में एक ही परिसर में मस्जिद, चर्च और यहूदी सिनेगॉग की नई इमारत अब्राहमिक फ़ैमिली हाउस (Abrahamic Family House) बनी। एक ही परिसर में मस्जिद (इमाम अल तायेब मस्जिद), चर्च (सेंट फ्रांसिस चर्च), और सिनेगॉग (मूसा बेन मेमोन सिनेगॉग) का निर्माण भू राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भौगोलिक महत्व का मसला है। यह मैसेजिंग है कि अब्राहम के बेटे एक छत, एक इलाके में भाईचारे से रहे हैं, रह सकते हैं।

यह सब इजराइल बनाम हमास और गाजा को मुसलमानों से खाली कराने की कोशिशों के बीच है! ट्रंप ने एक तरह से इस यात्रा में नेतन्याहू को मनमानी की छूट दिलाई है। सउदी अरब, कतर और अबू धाबी की रीति-नीति में उग्रवादी इस्लामी संगठनों (ईरान, यमन भी) को इजराइल व अमेरिका के जरिए निपटने देने की रणनीति दो टूक है। तभी इजराइल से संबंधों में यथास्थिति रखी हुई है। वही सऊदी अरब ने अमेरिका को बेइंतहां हथियार खरीद के ऑर्डर के साथ वहां रिकॉर्ड तोड़ निवेश का फैसला लिया है।

हैरानी की बात है जो सऊदी अरब के प्रिंस ने सीरिया में उभरे नए नेता से ट्रंप की मुलाकात कराई और अमेरिका ने तुरंत सीरिया के खिलाफ लगी पांबदियों को हटाने की घोषणा की। जाहिर है सऊदी अरब, कतर, अबू धाबी, यूएआई चुपचाप वह राजनीति करते हुए हैं, जिसमें वे अपनी अमीरी, विकास और दुनिया भर की बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान, तकनीक को अपना कर, अपने बौद्धिक-वैचारिक विमर्श तथा नैरेटिव से अपनी नई विशिष्ट वैश्विक इमेज और धमक स्थापित करें। इसमें कतर अग्रणी है। उसी ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में तालिबान का अमेरिका से करार कराया था। इस बार भी कतर ने ही डोनाल्ड ट्रंप से पाकिस्तान की केमिस्ट्री बनवाई है।

तो माना जाए कि 1993 का सैमुअल हटिंगटन की ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का सिनेरियो फिजूल साबित होना है? उनकी थ्योरी थी कि अगला वैश्विक संघर्ष विचारधारा या अर्थव्यवस्था से नही भड़केगा बल्कि इस्लामी और पश्चिमी दुनिया के बीच, धर्मों व सभ्यताओं में होगा।

लेकिन ट्रंप के दौर में उल्टा होता दिखता है। ईरान के खिलाफ, चीन के डर में और अपने-अपने स्वार्थ में अमेरिका, इज़राइल और इस्लामी खाड़ी देश कुछ गुपचुप और कुछ बेबाकी से साथ आते दिख रहे हैं। तीनों धर्म, जो कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे रहे, अब साझा ‘आस्था’ और ‘अर्थशास्त्र’ के तकाजे में सुर बदलते दिख रहे हैं।

तय मानें यदि ऐसा होता है, अब्राहमिक भाईचारे में अमेरिका, अरब-खाड़ी देशों और इज़राइल का त्रिकोण बनता है तो सबसे पहले चीन की मुश्किल है। यों हिंदुओं के लिए भी खतरे की घंटी है। मगर भारत न तीन में है और न 13 में है। वह विश्व राजनीति में बिना पैंदे के लुढ़कता लोटा है। अडानी-अंबानियों के स्वार्थों, पैसे की भूख में बुरी तरह उलझ गया है तो सब राम भरोसे और तात्कालिकता में होगा। बावजूद इसके हम कथित विश्वगुरूओं को कुछ तो सोचना चाहिए!

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