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मोदी क्यों नहीं अमेरिकी गूगल, मेटा, एक्स, अमेज़न जैसी कंपनियों को भारत से बाहर करते?

आगे पढ़ने से पहले यह तथ्य ध्यान में रहे कि इन अमेरिकी कंपनियों के बिना भी चीन विकसित है। चीन आईटी का सुपरपावर बना है। इसलिए ट्रंप द्वारा भारत के युवा आईटी कर्मियों के पेट पर लात मारने, भारतीय कंपनियों को घायल करने का आवश्यक जवाब अमेरिकी गूगल, अमेज़न, फेसबुक, व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम को भारत के बाजार से बाहर निकालने का है। नरेंद्र मोदी को यह डर पालने की ज़रूरत नहीं है कि तब सोशल मीडिया की लत में भारत का यूथ अमेरिकी सोशल मीडिया पर पाबंदी से सड़कों पर (नेपाल की तरह) उतरेगा। उलटे प्रधानमंत्री मोदी ने 140 करोड़ लोगों के बाजार की ताक़त अब भी यदि अमेरिका को नहीं दिखाई तो न केवल भारत की आईटी कंपनियों का धंधा चौपट होगा, बल्कि आईटी, इंजीनियरिंग करती जेन जेड, 25–40 वर्ष की मध्यवर्गीय विशाल युवा आबादी बेरोज़गारी, बेगारी से सड़कों पर “मोदी हाय-हाय” करती होगी।

मैं नहीं मानता कि आईटी के सपनों के इस तरह चूर होने पर भारतीय यूथ चुप रहेगा। हिसाब से हर आईटी कर्मी अब मन ही मन यह सोच गुस्से में भन्ना रहा होगा कि हमने 11 साल सभी तरफ मोदी के लिए ताली–थाली बजाई और बदले में क्या मिला? मोदी ने हमारे आईटी सपने, अमेरिका व विदेश में रोजगार के अवसरों का भी बाजा बजा दिया।

नोट रखें, आने वाले महीनों–सालों में ट्रंप और एआई की नई वर्चस्ववादी अमेरिकी ओपनएआई जैसी कंपनियां भारत के आईटी रोजगारों को खाएंगी। इसलिए ट्रंप का भारतीयों के खिलाफ वीज़ा वॉर, चीन का मैन्युफैक्चरिंग वॉर तथा पाकिस्तान का इस्लामी कूटनीति वॉर वह रणभेरी है, जिसे यदि हिंदुवादी नरेंद्र मोदी ने अनदेखा किया, कायरता में कुछ न करते हुए ट्रंप, शी जिनपिंग, शहबाज़–मुनीर–मोहम्मद बिन सलमान के नए गठजोड़ के आगे मौन और रेंगते रहने की नीति बनाए रखी तो दुनिया में भारत जल्द बिना रीढ़ का फूंका परमाणु कारतूस होगा। 140 करोड़ लोगों की आबादी दुनिया के लिए बेगैरत, निर्लज्ज भीड़ का पर्याय होगी।

मैं दक्षिणपंथी हूं। अमेरिका–पश्चिमी देशों से सामरिक, भूराजनीतिक रिश्तों का पैरोकार रहा हूं। बावजूद इसके शुक्रवार को डोनाल्ड ट्रंप ने एच-1बी वीज़ा से काम करने वाले भारतीय आईटी कर्मियों को जैसे बेइज्ज़त किया है वह अक्षम्य है। लाखों परिवारों की नींद हराम करते हुए, मेहनती भारतीयों के अमेरिकी–विदेश के सपनों पर ग्रहण लगा, चौबीस घंटे की मोहलत की तलवार वाली क्रूरता भारत की वैश्विक आईटी पहचान (जो नरसिंह राव सरकार से बनना शुरू हुई थी) पर कालिख है। तभी ट्रंप प्रशासन को जवाब दिया जाना चाहिए। और यह भारत के लिए चुटकियों में हो सकने वाला काम है।

मोदी सरकार को सिर्फ एक अध्यादेश से ट्रंप और अमेरिकी आईटी कंपनियों को नानी याद करवानी चाहिए। वैसे ही जैसे 1977 में मोरारजी देसाई सरकार में जॉर्ज फर्नांडीज ने अमेरिकी कोका कोला कंपनी को भारत से बाहर निकाल फेंका था। मोदी अपने अफसरों से सिर्फ एक नोट–प्रारूप बनवाएं, उसे कैबिनेट के सामने रखें, ठप्पा लगवाएं और राष्ट्रपति के दस्तख़त से 24 घंटे में (ट्रंप की तरह) गूगल, मेटा, एक्स, अमेज़न आदि को भारत छोड़ने का वैसा ही झटका दें, जैसे ट्रंप बार–बार भारत को झटके दे रहे हैं।

तब दुनिया जानेगी कि भारत के विशाल बाजार का क्या अर्थ है। डोनाल्ड ट्रंप को ऐसा सदमा लगेगा कि शायद ही वे कभी उससे उबर पाएं। भारत अमेरिकी ऑनलाइन–सोशल मीडिया दुकानदारी का सबसे बड़ा बाजार है। इससे ही गूगल, मेटा, एक्स, अमेज़न आदि का शेयर बाजारों में जलवा है। ये कंपनियां भारत से बेइंतहां नाम–दाम कमा रही हैं!

और सबसे बड़ी बात, भारत के पास हर वह तर्क, वह आधार है जो ट्रंप प्रशासन की बोलती बंद कर दे। भारत सरकार को अमेरिकी आईटी कंपनियों को उन्हीं शर्तों से बाहर करना है जो ट्रंप खुद चाइनीज़ कंपनी टिकटॉक पर पाबंदी लगाते हुए चीन से सौदेबाजी में रखते हैं। मतलब भारत भी गूगल, फेसबुक, एक्स, मेटा, अमेज़न को भारत छोड़ने का आदेश देते हुए उन्हें यह विकल्प दें कि वे भारत में तभी रह सकती हैं जब वे भारत की कंपनियों (इंफोसिस, टीसीएस, विप्रो आदि) को अपना भारतीय ऑपरेशन सुपुर्द करें। बहुत हो गया, अब 140 करोड़ की आबादी के डेटा, उनकी निजता के सभी आंकड़े भारत में रहेंगे, न कि अमेरिका के सर्वरों में।

सो, प्रधानमंत्री मोदी को देश को भाषण नहीं झाड़ना चाहिए। आत्मनिर्भर भारत का ग्यारह साल से चला आ रा पाखंडी राग नहीं आलापना चाहिए। न ही नए जुमले गढ़ कर लोगों, युवाओं को नए झांसे देने चाहिए। न ही दरबारी अमिताभ कांत (अमेरिका में इनोवेशन रुकेगा, भारत तेज़ी से आगे बढ़ेगा) जैसे मसखरों के ये झूठ फैलाने चाहिए कि ट्रंप के लात मारने से भारत के अवसर बनेंगे! न ही अडानी–अंबानी (जो फेसबुक जैसी कंपनियों की पैरोकारी या देश को चीन का बाजार बनाए रखने की धंधेबाज़ी में देश की आत्मनिर्भरता को निगल गए हैं) जैसे धंधेबाज़ों के इस डर में भारत को कायर, भयाकुल बने रहना चाहिए कि ट्रंप से पंगा बढ़ाया तो लेने के देने पड़ेंगे!

ट्रंप कुछ नहीं कर सकते। इसलिए क्योंकि ट्रंप को भारत का बाजार चाहिए। वह वैसा ही भूखा, भयाकुल और लालची एक बिल्डर खरबपति है जैसे अंबानी–अडानी छाप भारत के क्रोनी पूंजीपति हैं। ट्रंप ने टिकटॉक पर बड़े तेवर दिखाए थे। जबकि अब वे कैसे शी जिनपिंग से फ़ोन पर बात कर सौदा पटा रहे हैं!

मगर ये बातें प्रधानमंत्री मोदी, उनके बाबुओं, सचिवों, दरबारियों के गले नहीं उतर सकतीं। इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी का पिछले 11 वर्षों में झूठ और प्रोपेगेंडा का सर्वोपरि औज़ार कौन थे? यही गूगल, यूट्यूब, एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम वाली अमेरिकी कंपनियां। गूगल का प्रवासी भारतीय चेहरा सुंदर पिचाई हो या मेटा कंपनी (मुकेश अंबानी का निवेशक) का मार्क ज़ुकरबर्ग, इन्होंने नरेंद्र मोदी को खुश करते हुए जब भारत में मोदी भक्ति का सैलाब बनाया तो मोदी सरकार अब इन्हें कैसे भारत से निकालने का साहस कर सकती है? ध्यान रहे, इन्होंने ट्रंप के साथ बैठक में भारत की पैरवी नहीं की। इसलिए क्योंकि इन्हें पता है भारत और भारत के हिंदू कुंभकर्णी नींद में सोए भक्त हैं।

तभी सौ साल पहले जिन चंद हिंदुओं ने आरएसएस नाम का संगठन बनाया था, उन बेचारों ने क्या सपने में सोचा होगा कि उनका बनाया संगठन सौ साल बाद भारत को चीन का आर्थिक उपनिवेश तथा अमेरिकी आईटी कंपनियों का मानसिक उपनिवेश बनाकर अपने स्वर्णजयंती जलसे कर रहा होगा।

सोचें, इन अमेरिकी कंपनियों ने भारत को बाजार के अलावा बना क्या रखा है? नरेंद्र मोदी हों या राहुल गांधी या मोहन भागवत या मैं और आप, प्रधानमंत्री दफ्तर के सचिवों से लेकर सभी नौकरशाही यानी भारत के सभी नागरिकों की प्राइवेसी, तथ्यों, जीवनी का चप्पा–चप्पा अमेरिकी कंपनियों के व्हाट्सऐप चैट, फेसबुक पोस्ट, इंस्टाग्राम रील आदि के सर्वरों में इकट्ठा है। नतीजतन आने वाले सालों में ये कंपनियां एआई के ज़रिए भारत का दोहन कैसे करेंगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है?

पर भारत के दिमाग़ में यह समझ कभी बनी ही नहीं कि देश का प्रधानमंत्री हो या प्रधानमंत्री दफ्तर के सचिव, सारे नागरिक गूगल ईमेल आईडी से बंध गए हैं और इनके दिमाग़ की मैपिंग भी इन कंपनियों के डेटा में जमा है। तभी मेरी इस थीसिस का लोग मज़ाक उड़ाते हैं कि अमेरिकी कंपनियों को भारत छोड़ने का आदेश हुआ तो गूगल ईमेल के बिना देश का काम कैसे चलेगा! देश क्या रुक नहीं जाएगा? मतलब अमेरिकी कंपनियों के बिना 140 करोड़ लोगों का जीना ही संभव नहीं है! दुनिया में शायद ही दूसरा कोई देश होगा जो अमेरिकी आईटी कंपनियों पर इतना निर्भर, पराश्रित और गुलाम हो। सोचें, चीन बिना गूगल, गूगल ईमेल, अमेज़न, मेटा और एक्स के भी आईटी की महाशक्ति है। अब एआई में उसने स्वदेशी उद्यमशीलता से अमेरिकी एआई कंपनियों को पछाड़ा है। यदि इन अमेरिकी कंपनियों को भारत आउट करे और इंफोसिस, टीसीएस, विप्रो आदि स्वदेशी कंपनियों को इनकी जगह प्रोडक्ट बनाने के लिए कहे तो ये क्या स्वदेशी सर्च इंजन, ईमेल सेवा प्रदाता, सोशल मीडिया कंपनियां नहीं बन सकतीं?

गूगल से पहले भी वीएसएनएल ईमेल सेवा प्रदाता थी। ये सब काम भारतीय आईटी कंपनियों के लिए चुटकियों में संभव है। बशर्ते सरकार अध्यादेश से अमेरिकी कंपनियों को बोरिया–बिस्तर बांध अपने ऑपरेशन को भारतीय कंपनियों के सुपुर्द करने का विकल्प दे।

मगर मोदी सरकार में ऐसे सोचने–समझने का क्या चरित्र है? यदि होता तो डोनाल्ड ट्रंप क्या अपने कथित मित्र मोदी से खुन्नस में भारत को लात मारने जैसा व्यवहार करते? दरअसल पिछले 11 वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ज़रिए हम हिंदुओं का चरित्र दुनिया के आगे खोला है। सोचें, नरेंद्र मोदी–अमित शाह–डोवाल–जयशंकर–गौतम अडानी–मुकेश अंबानी के चेहरों के अनुभव में दुनिया ने भारत पर क्या विचारा होगा? निश्चित ही ये चेहरे हम हिंदुओं के नेतृत्व और मिज़ाज के प्रतिनिधि हैं। और मेरी पुरानी थीसिस है कि हम क्योंकि हज़ार साल गुलाम रहे हैं, तो पहली बात हममें सत्ता की भूख गहरी है। सत्ता से हर हाल चिपके रहना है। कैसे? कोतवाल का आतंक बनवाकर, भक्ति का अंधविश्वास पैदा कर तथा नजराना, शुकराना और जबराना से ख़ज़ाना भरकर अपनी कीर्ति, प्रोपेगेंडा की अफ़ीम से प्रजा से लगातार थाली बजवाते रहना!

तभी प्रधानमंत्री मोदी के 11 साल सत्ता और विश्व नेता होने की अंधी यात्रा के रहे। भारत के हित, भारत की सुरक्षा, भारत की मान–मर्यादा की जगह मौकापरस्ती में वह कूटनीति, छप्पन इंची छाती फुलाने–दुबकाने का वह चाल–चेहरा–चरित्र दिखाया कि हमारा बेसिक इंस्टिंक्ट मौकापरस्ती का प्रगट है। इसका क्लासिक अनुभव ट्रंप–मोदी के रिश्ते हैं। मोदी ने शपथ लेने के बाद सर्वप्रथम ओबामा को चाय पिलाई। डेमोक्रेट हारे और ट्रंप राष्ट्रपति बने तो आगा पीछा सोचे बिना (रिपब्लिकन कभी भारत के स्थायी हिमायती नहीं रहे) मोदी–ट्रंप भाई–भाई में इस हद तक गए कि अमेरिका की जनसभा में नरेंद्र मोदी ने “अबकी बार ट्रंप सरकार” के नारे लगवाए। मगर ट्रंप ज्योंहि हारे तो मोदी की 380 डिग्री पलटी।

राष्ट्रपति बाइडेन से यह डायलॉग, “आप हैं तो सब संभव है”। फिर अमेरिका में चुनाव का वक्त आया व ट्रंप का शोर सुना तो अमेरिकी यात्रा में ट्रंप से मिलने की सोची। ट्रंप खुश, उनके मुंह से किलकारी कि देखो, मेरा दोस्त मुझसे मिलने आ रहा है। तभी न जाने किसने मोदी को डरा दिया। और मोदी ने ट्रंप से मुलाक़ात में कन्नी काटी! कहते हैं ट्रंप ने तभी गांठ बांधी। फिर भी वाशिंगटन में मोदी को गले लगने दिया। मगर मई में बिना आगा–पीछा सोचे जब मोदी सरकार ने “ऑपरेशन सिंदूर” करवाया और 22 मिनट के ऑपरेशन में लेने के देने पड़े तो मोदी–डोवाल–जयशंकर के वाशिंगटन फ़ोन खड़खड़ाए। ट्रंप ने सीज़फ़ायर का श्रेय लिया तो मोदी सरकार को सांप सूंघ गया। ट्रंप से पल्ला झाड़ा। ट्रंप को धन्यवाद देने या उनके नोबेल पुरस्कार मंसूबे का भारत ने समर्थन नहीं किया। जबकि पाकिस्तान ने किया तो ट्रंप पाकिस्तान के हो गए। तभी से वे नरेंद्र मोदी से निजी खुन्नस में भारत से रिश्ते बिगाड़ते हुए हैं। भारत को टैरिफ वॉर और वीज़ा वॉर से ऐसे घायल कर रहे हैं कि अमेरिका प्रवासी भारतीयों की प्रभावशाली लॉबी भी यह देख–समझ हैरान है कि मोदी–जयशंकर–डोवाल और भारत राष्ट्र–राज्य को यह हो क्या गया, जो कूटनीति को बंदर के उस्तरे में ऐसे बदल दिया!

परिणाम सामने है। 1994 में बिल क्लिंटन–नरसिंह राव के आपसी सद्भाव की नींव से बनी भारत–अमेरिकी समझदारी अब तार–तार है। अमेरिका, यूरोप, पश्चिमी देशों में भारत से साझेदारी में इतनी दरारें आ गई हैं कि इतिहास में संभवतः पहली बार पाकिस्तान और चीन दोनों भारत को उस विवशता में फंसा मान रहे होंगे, जिसमें भारत का अलगाव बढ़ना ही है, घटना नहीं है। मुझे कतई नहीं लगता कि कोई मोहन भागवत या स्वदेशी का राग आलापने वाला आरएसएस संगठन प्रधानमंत्री मोदी में यह हिम्मत भर सकता है या अल्टीमेटम दे सकता है कि जैसे भी हो ट्रंप को मुंहतोड़ जवाब दो। अमेरिका को टैरिफ–वीज़ा वॉर के जवाब में ऐसा जवाब दो, जिससे अमेरिकी आईटी कंपनियां बिना भारत के यूज़रों की तलाश में दुनिया में भटकती फिरे।

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