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फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति जेल की दालान में!

हर गणराज्य के दो चेहरे होते हैं, एक जो आज़ादी के वादे से जगमगाता है, दूसरा वह जो भ्रष्टाचार की अनदेखी, दण्डहीनता की चुप सड़न में ढंका रहता है। राष्ट्र आज़ादी के संकल्प से उठते हैं, फिर धीरे-धीरे उन्हीं मूर्तियों के आगे झुक जाते हैं जिन्हें लोगों ने खुद गढ़ा होता है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जनता के मसीहा बन बैठते हैं, पर अंततः सम्राटों जैसी भूख में अपना पतन बुला लेते हैं। संसदें जो कभी सत्ता से सवाल करने के लिए बनी थी, वे केवल प्रतिध्वनि बनी होती हैं। नागरिक आलोचना की जगह आस्था अपना लेते हैं, और करिश्मे को चरित्र समझने लगते हैं।

इस अनुभव का ताजा उदाहरण लफ्रांस है जहाँ यह भ्रम अब टूट चुका है। पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सारकोज़ी का पतन सिर्फ़ फ्रांस में घोटाले की एक कहानी नहीं बल्कि  लोकतंत्र का आईना भी है।  उसे अपनी ही सूरत देखनी पड़ रही है। उसी प्रतिबिंब में कभी शायद भारत भी अपना चेहरा देखेगा, वह चेहरा, जिससे अब वह बचना चाहता है; क्योंकि भष्ट्राचार की सड़न यहाँ पुरानी है, धीमी है, और बहुत परिचित।

2007 से 2012 तक निकोलस सारकोज़ी ने फ्रांस पर शासन किया, एक ऐसे अंदाज़ में जो दिखावे और शासन दोनों को मिलाता था। आज वही व्यक्ति अपराधी षड्यंत्र के दोषी करार दिए गए हैं।  लिबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी से अवैध चुनावी चंदा लेने के आरोप में। विडंबना सिनेमाई है: एक ऐसा राष्ट्रपति, जिसकी वैश्विक लोकप्रियता कभी उसकी सबसे बड़ी पूँजी थी, अब उसी महत्वाकांक्षा की परछाई में डूब गया है।

उन्हें पाँच वर्ष की सज़ा सुनाई गई है, और वे यूरोपीय संघ के इतिहास में पहले ऐसे नेता हैं जिन्हें जेल की सज़ा मिली। फ्रांस के इतिहास में भी यह दृश्य दुर्लभ है, फिलीप पेटेन के बाद किसी राष्ट्राध्यक्ष का यह पतन पहली बार हुआ है।

जहाँ राष्ट्रपतियों को ताज के बिना राजा माना जाता रहा, वहाँ किसी को लाल कालीन छोड़ जेल की दालान में चलते देखना एक तरह से क्रांतिकारी दृश्य था। अपमान में भी सारकोज़ी की चाल में वही आत्मविश्वास था जो फ्रांस की द्वंद्वभरी आत्मा का प्रतीक है, एक ऐसा लोकतंत्र जो अपने राजाओं की पूजा करता है, जब तक यह साबित न कर दे कि वह उन्हें दंडित भी कर सकता है। सारकोज़ी की सज़ा केवल एक व्यक्ति की पराजय नहीं, बल्कि एक गणराज्य की शक्ति का बयान है। फ्रांस ने अपने नागरिकों को याद दिलाया है कि सत्ता, चाहे जितनी चमकदार क्यों न हो, दैवीय नहीं होती। यह फैसला सारकोज़ी से अधिक उस विचार का है कि कोई पद, कोई पदवी, कोई जनादेश कानून की पहुँच से ऊपर नहीं।

सालों से फ्रांस अविश्वास में डूबा था, राष्ट्रपति घोटालों में फँसे, संसद इस्तीफों से हिली, नागरिक भ्रष्टाचार और अमीरों के पक्ष में झुकी राजनीति से उबलते रहे। गणराज्य की नैतिक दिशा-सूचक सुई अपनी दिशा भूल चुकी थी। और अब, जब यह देश भी गुस्से, विभाजन और अस्थिर विश्वास में जी रहा है, सारकोज़ी का जेल में प्रवेश केवल एक नेता का पतन नहीं था, यह एक व्यवस्था का पुनःस्मरण था कि वह अभी जीवित है।

एक लोकतंत्र जो भरोसे के लिए हाँफ रहा था, उसके लिए यह दृश्य किसी चुनावी वादे से कहीं अधिक वज़नदार था। न्यायाधीश नताली गावारिनो ने कहा कि यह फैसला केवल अपराध की गंभीरता नहीं, बल्कि उस खतरे पर आधारित है जो “नागरिकों के भरोसे को कमजोर कर सकता है।”

सवाल उठता है, क्या भारत में भी कभी ऐसा क्षण आ सकता है?

भारत में प्रधानमंत्री चुने नहीं जाते, वे पवित्र किए जाते हैं। हम नेता नहीं चुनते, हम मिथक रचते हैं। हर शासन अपना नया शास्त्र रचता है, अपना नया देवमंडल बनाता है। यहाँ राजनीति पूजा है, सभाएँ तीर्थ हैं, नारे मंत्र हैं, और संसद मंदिर है। इस लोकतंत्र के मंदिर में जो पुजारी हैं- अदालतें, आयोग, पत्रकार- वे अब न्याय का उपदेश नहीं देते, सत्ता के चरणों में चुपचाप सेवा करते हैं। पिछले एक दशक में लोकतंत्र में विश्वास आस्था से अविश्वास में बदल गया है। संस्थाएँ अब प्रतिरोध नहीं करतीं, प्रार्थना करती हैं। उत्तरदायित्व का ढाँचा खोखला हो गया है, और भीतर सबसे गहरी चीज़ केवल सन्नाटा बचा है।

इसलिए “सारकोज़ी-क्षण” भारत में असंभव है। हमारे यहाँ घोटाले कम नहीं, पर परिणाम नहीं होते। सत्ता जब गलती करती है, हमारी संस्थाएँ प्रतिरोध में नहीं उठतीं, आज्ञा में झुक जाती हैं। क्योंकि भारत में सत्ता केवल राजनीतिक नहीं, पवित्र है। उसे दंडित करना मानो श्रद्धा का अपमान हो। इसलिए व्यवस्था झुकती है, टालती है, भूल जाती है, जब तक कि घोटाला कथा बन जाए, और कथा आस्था में बदल जाए। यही भारतीय लोकतंत्र की शांत त्रासदी है, हम अपने शासकों की पूजा करते हैं, और फिर हैरान होते हैं कि हमारे कानून दैवत्व तक क्यों नहीं पहुँच पाते?  तो यदि फ्रांस का संकट न्याय पर अविश्वास है, तो भारत की त्रासदी और गहरी है, हमने न्याय की अपेक्षा करना ही छोड़ दिया है।

हम एक जनोन्मादी युग में जी रहे हैं, ट्रंप के नाटकीय समय में, जहाँ हर मुकदमा चुनावी मंच बन जाता है और हर झूठ निष्ठा का नारा। सारकोज़ी को सजा का फैसला और उससे उपजा क्रोध, उसी संक्रमण को उजागर करता है जो सभी लोकतंत्रों को संक्रमित कर रहा है, ऐसे नेताओं का उदय जो अदालतों को राक्षस बना देते हैं, तथ्यों को तोड़ते हैं, और अपने अपराधों को ही समर्थन का घोष बना देते हैं। फ्रांस में, अमेरिका में, भारत में, इजराइल में, कानून का राज अब तमाशे के राज के सामने काँपता है।

फिर भी, सवाल वहीं ठहरा है, क्या भारत में कभी ऐसी अनहोनी संभव है?  जब अगला “मजबूत नेता” फिसले, क्या लोकतंत्र अपनी ज़मीन पर टिकेगा? या हम फिर वही करेंगे जो अक्सर करते हैं, सत्ता की वेदी पर अगरबत्ती जलाएँगे, और उन्हीं लोगों की आरती गाएँगे जिन्होंने हमें झुकना सिखाया? जिन्होने हमें भ्रष्ट बनाया।

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