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कुंए की टर्र,टर्र ही अब नैरेटिव है!

इन दिनों नैरेटिव से ही सब कुछ है। राजनीति, कूटनीति, यहाँ तक कि पत्रकारिता भी इसी पर थिरकती है। अब एक असरदार विमर्श, नैरेटिव के लिए बस इतना भर होना पर्याप्त है कि वह आपको बाँध ले, झकझोर दे, और हो सके तो आपको प्रभावित करते-करते सोचने की दिशा बदल दे। इतने ही मकसद कान इसका तंत्र है। जीतने-जीताने वाला नैरेटिव वह है, जिसमें कोई भी प्रतिवाद ऐसे फिसले जैसे तेल लगी सतह पर बारिश की बूँद।

और यह अब भारत की राजनीति का नंबर एक तरीका और साधन है। नरेंद्र मोदी को छाए हुए ग्यारह साल हो गए है, और राहुल गांधी—अपने भाषणों, यात्राओं और छवि-परिवर्तन के प्रयासों के बावजूद—अब भी उनकी कहानी को तोड़ नहीं पाए है। कांग्रेस नेता न केवल मोदी के नैरेटिव को ध्वस्त करने में नाकाम हैं, बल्कि अपने लिए भी एक मज़बूत और चिंतनशील नैरेटिव उनके लिए भी नहीं बना पाए हैं जो जागरूक है।

लेकिन आज की टिप्पणी मोदी बनाम राहुल पर नहीं है। बल्कि इज़राइल और उसके नैरेटिव के खेल पर है।

सोमवार को मैंने लिखा था कि हाल में भारतीय पत्रकारों का एक दल इज़राइल ले जाया गया—एक ऐसा दौरा, जो साफ़ तौर पर नैरेटिव गढ़ने के लिए था। ऐसा पहली बार नहीं था। सात अक्तूबर के बाद से चुनिंदा भारतीय पत्रकारों के लिए इज़राइल के दरवाज़े लगातार खुले हैं। यह आम बात है कि इज़राइल के भारत में राजदूत आपके टीवी, आपके फ़ोन, आपके सोशल मीडिया फ़ीड में लगातार मौजूद रहते हैं—हमास के “लंबे समय से पीड़ित” शिकार के रूप में इज़राइल की छवि गढ़ते हुए। संदेश सीधा, सुसंगत और भावनात्मक है: इज़राइल पर हमला हुआ है, इज़राइल ने कष्ट सहे हैं, इज़राइल अपनी रक्षा कर रहा है। और यह अंदाज, यह ढाँचा भारतीय मानस को तुरंत क्लिक होता है, इसे उसके समझ आने वाली भाषा में रचा गया है। आंतकी ‘हमास’ को ‘पाकिस्तान’ से बदल दीजिए और अपने आप वह स्क्रिप्ट मिल जाएगी, जिसे भारतीय श्रौता, दर्शक बरसों से सुनते आए हैं। सो पीड़ा साझा है, दुश्मन साझा है, और समाधान—एकजुटता—बिना कहे सामने रख दिया जाता है। मतलब इजराइल का मॉडल।

यह क्लिक होता है। भारत में यह नैरेटिव बहुत सहजता से आत्मसात हो जाता है। श्रोताओं की राजनीतिक कल्पना, जिसे सुनियोजित रूप से संकुचित किया गया है, अब यह नहीं पूछती कि जो मैं सुन रहा हूँ, क्या वह सच है? इसमें क्या छूट गया है? मसले का क्या कोई दूसरा पहलू भी है?

इसके बजाय, बातचीत उसी खाँचे में बहने लगती है जिसे इज़राइल ने रचा है—एक जटिल और क्रूर संघर्ष को छोटे-छोटे नैतिक द्वैतों में बाँट देना। यह आधुनिक प्रोपगैंडा की सबसे प्रभावी मिसाल है। और भारत में, जहाँ ध्यान, समझ और जिज्ञासा मूँगफली जितनी सिकुड़ गई है, यह बहुत आसान काम है।

इस संवाद, विमर्श में स्वभाविक ही  पत्रकार केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। दौरे तैयार किए जाते हैं, निमंत्रण चुनिंदा होते हैं। चुने गए पत्रकार ग़ाज़ा के नागरिक हताहतों, ध्वस्त मोहल्लों, उजड़ी संरचनाओं के बारे में नहीं पूछते। अपने ही साथी पत्रकारों की लक्षित हत्याओं पर सवाल नहीं उठाते। जिस दिन भारतीय पत्रकारों का एक दल इज़राइल के प्रधानमंत्री से मिल रहा था—तस्वीरें खिंचवा रहा था, ब्रीफ़िंग में सिर हिला रहा था—इज़राइली बल ग़ाज़ा में अल जज़ीरा के पत्रकारों पर हमले की तैयारी कर रहे थे। इनमें थे: अनस अल-शरीफ़ और मोहम्मद कुरैका, साथ में वीडियोग्राफ़र इब्राहिम थाहेर, मोहम्मद नोफ़ल और उनके सहयोगी। ये अल-शिफ़ा अस्पताल के पास एक मीडिया टेंट में शरण लिए हुए थे, वे सीधी मार का निशाना बने। कोई अस्पष्टता नहीं, कोई “क्रॉसफ़ायर” का बहाना नहीं। वे सिर्फ़ रिपोर्टर नहीं थे, बल्कि ग़ाज़ा की तबाही के इतिहासकार थे, यह सुनिश्चित करने वाले कि कोई मोहल्ला गवाही के बिना मिट न जाए।

उनकी मौत ने साफ़ संदेश दिया—किसी भी तरह का, कुछ भी नैरेटिव गवाह के साथ नहीं रहने दिए जाएँगा। इज़राइली अधिकारियों ने अल-शरीफ़ को मारने का दावा करते हुए कहा कि वह हमास की एक इकाई का नेतृत्व करता था—बिना ठोस सबूत के। जो तथाकथित “सबूत” पेश किए गए है, वे दो साल पुराने और अप्रमाणिक स्क्रीनशॉट थे। इन आरोपों को अल-शरीफ़ और अल जज़ीरा ने खारिज किया है।  कुछ मीडिया संस्थानों ने जाँच की जगह इज़राइल की बात को तथ्य की तरह दोहरा दिया। इसमें हमारे कुछ भारतीय “पत्रकार” भी शामिल थे—सवाल पूछने की जगह वही पंक्तियाँ दुहराते हुए।

कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के अनुसार, लगभग दो साल के गाजा युद्ध में 180 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी पत्रकार और मीडिया कर्मी मारे गए—जो पिछले तीन सालों में वैश्विक स्तर पर हुई मौतों से ज़्यादा है। हो सकता है इसमें अतिश्योंक्ति हो। पर रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 26 पत्रकारों  को लक्षित कर मारा गया। सो ग़ाज़ा निर्विवाद रूप से पत्रकारों के लिए जीवित स्मृति में सबसे घातक संघर्ष बन चुका है। और यह सिर्फ़ स्थानीय या क्षेत्रीय त्रासदी नहीं है। बल्कि यह वैश्विक मानकों का गंभीर उल्लंघन है। युद्ध की सच्चाई सामने लाने के लिए सबकुछ दाँव पर लगाने वालों की सुरक्षा की नैतिक ज़िम्मेदारी का खात्मा या पतन है। फिर भी आक्रामकता बेख़ौफ़ हैं और तथाकथित “फ्री दुनिया” नज़रें फेरे हुए है।

कोई आश्चर्यजनक नहीं है कि भारत का एक बड़ा मीडिया हिस्सा सिर्फ़ पहुँच पाने के लालच में stenographer बन गया है, जबकि कुछ अंतरराष्ट्रीय पत्रकार अब भी एक जनसंहार की कहानी, वास्तविक समय में, जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। विदेशी संवाददाताओं को ग़ाज़ा में जाने नहीं दिया जाता, जब तक वे आईडीएफ़ के साथ न हों—और तब भी उन्हें फ़िलिस्तीनियों से बात करने से रोका जाता है। फिर भी तस्वीरें, गवाहियाँ, और हताहतों की सूचियाँ बाहर पहुँचती हैं—ग़ाज़ा के अपने पत्रकारों के ज़रिए, जो अपनी जान देकर यह कर रहे हैं। उनका काम सिर्फ़ दस्तावेज़ीकरण नहीं—यह इतिहास का पहला मसौदा है, जिसके सहारे आने वाली पीढ़ियाँ 21वीं सदी के सबसे ज़्यादा प्रसारित नरसंहार का अध्ययन करेंगी। इसकी  वजह से बीबीसी भी इजराइल सरकार को खटक रहा है। पर जंग के बारे में विश्वसनीय जानकारी तक पहुँचना कोई विलासिता नहीं बल्कि यह प्रोपगैंडा से बचाव, युद्ध अपराधों पर अंकुश और मानवाधिकारों की रक्षा का पुराना और ठोस औज़ार है। जब असली पत्रकार चुप करा दिए जाते हैं, तो हम सब, सभी नागरिक, दुनिया और अधिक असुरक्षित हो जाते हैं—ग़लत सूचना, मनोवैज्ञानिक खेल और बेकाबू ताक़त के सामने।

पर अब दौर ऐसा हैं जहाँ पत्रकारों से सच तलाशने की उम्मीद नहीं, बल्कि उस पक्ष की सेवा की अपेक्षा की जाती है जो बेहतर आतिथ्य और सुरक्षित कहानी पेश करता है। जहाँ ग़ाज़ा में पत्रकारों की मौतें भारत में सुर्ख़ियाँ तक नहीं बनतीं—क्योंकि वे तयशुदा स्क्रिप्ट में नहीं फिट बैठतीं। जहाँ राजनीतिक नेता, राजनयिक और मीडिया संस्थान सब समझते हैं कि नैरेटिव की जंग जीतना, तर्क की बहस जीतने से कहीं ज़्यादा मायने रखता है। और जब ऐसा होता है, तो पत्रकारिता सच की तलाश में नहीं रह जाती, बल्कि पक्ष विशेष की मार्केटिंग टीम बन जाती है जो नैरेटिव पर नियंत्रण रखता है।

यह असहज सच है—नैरेटिव अब सिर्फ़ अपनी कहानी कहने का मामला नहीं रह गया है। यह इस बात का मामला है कि आपकी कहानी ही एकमात्र कहानी बचे और वही सार्वजनिक स्मृति में पैठे। शौर का इतना कसा हुआ घेरा, इकोसिस्मट बनाना कि असहमति की आवाज़ें या तो सुनाई ही न दें, या उन्हें ख़तरनाक, पक्षपाती या देशद्रोही ठहरा दिया जाए। और इसी कारण, भारत में इज़राइल के संदेश की सहज स्वीकृति, महज़ सफल कूटनीति का महज एक उदाहरण नहीं है बल्कि एक चेतावनी भी है। वही तरीक़े, जो भारतीयों को इज़राइल के साथ एकजुट महसूस कराते हैं, घर के भीतर बहस बंद कराने के लिए भी इस्तेमाल हुए हैं। हम एक तयशुदा ढाँचा, एक तयशुदा “सच” स्वीकार करने के इतने आदी हो गए हैं कि यह पूछना, सोचना-समझना भी भूल जाते हैं कि इन्हें गढ़ा किसने और क्यों?

तो सवाल यह नहीं है कि इज़राइल का नैरेटिव “सही” है या “ग़लत।” असली सवाल है—क्या हम, बतौर दर्शक, श्रोता शौर का मकसद बूझने, खामी खोजने की जिज्ञासा और उसे परखने का धैर्य रखते हैं या नहीं? या हमने यह ज़िम्मेदारी पूरी तरह छोड़ दी है, जिससे नैरेटिव, एक बार जड़ पकड़ लेने के बाद, बाक़ी हर दृष्टिकोण को, दूसरी सूचनाओं, पक्ष को घेर कर दम घोट दे?

आज की दुनिया में नैरेटिव ही युद्ध का मैदान है। और जो इसे नियंत्रित करता है, वह सिर्फ़ यह तय नहीं करता कि आप क्या सोचेंगे—वह यह भी तय करता है कि आपको सोचने की इजाज़त किस बारे में है। हर दोहराव उनकी बनाई वास्तविकता को और कठोर करता है, सामूहिक चेतना को इतना सिकोड़ देता है कि असहमति अप्राकृतिक लगने लगती है। यही तरीका है जिससे जनप्रिय नेता सत्ता को जड़ें जमाने देते हैं—और यही तरीका है जिससे समाज अपने चारों ओर खड़ी दीवारों के बाहर कल्पना करना भूल जाता है, और उन दीवारों को ही दुनिया समझ बैठता है।

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