समय बहुत शोरगुल से भरा है, ख़ासतौर से धार्मिक अनुष्ठानों-पर्वो से। त्योहार अब केवल उल्लास-उमंग के नहीं रहे, वे अब “अपनी पहचान” के प्रदर्शन हैं। राष्ट्रवाद ने धर्म को ऐसी दूसरी खाल की तरह पहना है कि दोनों में भेद करना भी कठिन है।
इस संगम को मैंने हाल में कागज़ और रंग में देखा। दिल्ली के तिलक नगर-टिटरपुर की पुतलों (effigy) की मंडी में,जिसे चाहें तो लंका का बाज़ार माने। सड़क किनारे हर आकार के रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण खड़े थे—विशालकाय पुतले, गुड्डे जैसे छोटे पुतले, चमकीली आँखों और दाँत दिखाती मुस्कुराहटों वाले चेहरे। गुलाबी, चाँदी और नारंगी की चमकती परतों में वे खेलपूर्ण-मनोरंजक लग रहे थे तो डरावने भी—जैसे सड़क किनारे कोई पौराणिक मेला सज गया हो। पर मेरी नज़र ठहर गई मूँछों पर। गहरी, लंबी मूँछें—कहीं एके-47 के चारों ओर लिपटी हुई, कहीं उन पर लिखा “ऑपरेशन सिंदूर कामयाब।” सो दशहरा भी राष्ट्रवाद की नई परत ओढ़ चुका है। सिर्फ़ पौराणिक असुर रावण गी नहीं जलता, बल्कि नए दुश्मन और ताज़ा भिडंत के बतौर प्रतीक भी अब जलता है।
इन पुतलों को बनाने वालों को सरकार ने नहीं आदेश दिया था कि वे ये नारे लिखें। पर जब मैंने एक कारीगर से पूछा तो उसने कंधे उचकाते हुए कहा: “देश का मूड ऑपरेशन सिंदूर में चल रहा है।” और वह ग़लत नहीं था। युद्ध के इस मौसम के बाद देश का मूड सचमुच इसी ऑपरेशन में डूबा है। इसे हमने तब और साफ़ देखा जब सरकार ने एशिया कप में भारत–पाकिस्तान मैच को हरी झंडी दी, लेकिन सड़क का मूड इसके उलट था—बहिष्कार की ओर। नारा वही गूँजता रहा: “ख़ून और पानी साथ नहीं बह सकते।” अब यह त्योहारों में भी उतर आया है। जब राष्ट्रीय मूड इतना आवेशपूर्ण हो, तो क्यों न रावण को भी उसके साथ रंग दिया जाए? पुतला जलाना अब अच्छाई पर बुराई की जीत नहीं, बल्कि सामूहिक ग़ुस्से को बाहर निकालने का एक “लाइसेंस प्राप्त” अवसर है।
धर्म हमेशा प्रतीकों की भाषा देता रहा है। पर आज वे प्रतीक जानबूझकर राष्ट्रवाद की पटकथा में लिखे जा रहे हैं। यही चिंता है। यह दुर्घटना नहीं, यह सोची-समझी समाहिति है। और इसमें भय है, खतरा है। क्योंकि जब राजनीति राष्ट्रवाद में घुलती है, तब भी लगाम राज्य के हाथ में रहती है। लेकिन जब राष्ट्रवाद धर्म में घुल जाता है, तो वह अनियंत्रित हो जाता है।
इतिहास गवाह है—भाषा, राष्ट्रवाद और धर्म—ये तीन हमेशा किसी समाज को आकार देने और उकसाने की सबसे मज़बूत शक्तियाँ रही हैं। क्योंकि वे सिर्फ़ नियंत्रण से नहीं, बल्कि “हम कौन हैं और हमें मिलकर क्या होना है”—इस कहानी को गढ़ती हैं। धर्म अपने श्रेष्ठ रूप में आशा और एकजुटता ला सकता है। लेकिन जैसे ही उसे राष्ट्रवाद की सेवा में झोंक दिया जाता है तो वह भविष्य की ओर संकेत करना छोड़ देता है और समाज को स्थायी वर्तमान में जकड़ देता है—हमेशा सशंकित, आक्रामक, युद्धोन्मुख। हमने यह पैटर्न देखा है—नाज़ी जर्मनी में, जहाँ राष्ट्रवाद नस्ली धर्म बन गया और चर्च सत्ता के औज़ार। ईरान में, जहाँ इस्लामी गणराज्य ने धर्म को राजनीति की अकेली भाषा बना दिया। श्रीलंका में, जहाँ सिंहला-बौद्ध राष्ट्रवाद ने दशकों का रक्तपात कराया। और हमारे पड़ोस पाकिस्तान में, जहाँ राज्य पर सवाल उठाना इस्लाम पर सवाल उठाना है—और नतीजा असहिष्णुता तथा स्थायी दुश्मनी।
तो क्या हम भी अब उसी राह पर बढ़ रहे हैं?
भारत अब अपने पड़ोसी जैसा होता जा रहा है। राम मंदिर का भूमिपूजन राष्ट्रवाद से इस तरह जोड़ा गया कि जिन छतों पर भगवा झंडा नहीं लहराया, वे “राष्ट्रविरोधी” कहलाए। कोविड के दौरान, दीया न जलाना आस्था का मामला नहीं रहा, बल्कि “देशद्रोह” बन गया। अब यह पटकथा और गाढ़ी हो गई है। नवरात्रि सिर्फ़ व्रत और पूजन से नहीं आती, बल्कि आदेशों से—कसाईखानों को नौ दिन बंद रखने के आदेश जैसे। बीजेपी शासित राज्यों में बुलडोज़र “दैवीय न्याय” के औज़ार बन जाते हैं—मुस्लिम घर ढहाए जाते हैं, और बहुसंख्यक भीड़ इसे धर्म और राष्ट्रवाद के एक ही रंगमंच में देखती है।
डिजिटल दुनिया में भी यही स्क्रिप्ट है। सोशल मीडिया पर नवरात्रि की डायरी और देवी के पोस्टों की बाढ़। एक स्तर पर यह सुखद लगता है—यह सबूत कि नई पीढ़ी उतनी अधार्मिक नहीं जितना कहा जाता है, कि आस्था अब भी साँस ले रही है। लेकिन इसके साथ असहजता भी है। क्यों आस्था को आज हैशटैग और सर्टिफिकेट चाहिए? क्यों नौ दिन के व्रत और सजे हुए मंदिरों को हर पोस्ट में दिखाना ज़रूरी है? क्यों हर पोस्ट पर “जय श्रीराम” की मोहर होनी चाहिए? यह श्रद्धा कम, घोषणा ज़्यादा लगती है। मानो हमें साबित करना हो कि हम भी उतने ही हिंदू हैं, और इसलिए उतने ही भारतीय, जितने प्रधानमंत्री—जो नवरात्रि के व्रत रखते हैं और व्यस्त कार्यक्रम के बीच भी दुर्गापूजा करने का समय निकाल लेते हैं। और अब बारी रावण की।
यह संगम देशभक्ति नहीं, खोखला राष्ट्रवाद है। यह स्वतःस्फूर्त नहीं, मंचित है। त्योहार अब आस्था नहीं, बल्कि वफ़ादारी के प्रमाणपत्र हो गए हैं। संदेश साफ़ है: भारतीय होना हिंदू होना है। जो कोई इस पटकथा से हटता है, वह “एंटी-इंडिया” है। लेकिन हर धार्मिक क्रिया को राष्ट्रवाद की कसौटी पर क्यों तोला जाए? धर्म एक निजी चुनाव है—वह एकमात्र जगह है जहाँ मनुष्य सचमुच स्वतंत्र हो सकता है। ईश्वर हमें जज नहीं कर रहे, न यह बता रहे कि हमें क्या करना है और क्या नहीं। आस्था का काम है अंतरात्मा को गढ़ना, न कि राज्य को चलाना।
पर आज धर्म विश्वास से अधिक, एक मनुष्य-निर्मित प्रोग्राम बन गया है—जिसका मक़सद है अंतरात्मा की स्क्रिप्ट लिखना। वह कट्टर हो गया है—उग्र, अडिग। आज अगर आप इस स्क्रिप्ट का पालन नहीं करते—चाहे वह नेता लिखें या स्वयंभू बाबा—तो आपको सिर्फ़ “ईश्वर विरोधी” नहीं, बल्कि “भारत विरोधी” कह दिया जाता है। महात्मा गांधी ने चेताया था कि जैसे ही धर्म राजनीति में खींचा जाता है, वह नैतिक शक्ति रहना छोड़ देता है और सत्ता का औज़ार बन जाता है। यही असली ख़तरा है।
जो धर्म को हथियार बनाते हैं, वे खुद को राष्ट्र का रक्षक बताते हैं। और जो इस संगम पर सवाल उठाए, उसे ग़द्दार और विधर्मी करार दिया जाता है। देशभक्ति को हालांकि अनुष्ठानों से तौला नहीं जा सकता। फिर भी संदेश बार-बार गूँजता है: भारतीय होने के लिए हिंदू होना ज़रूरी है। यह पटकथा दैवीय नहीं, डिज़ाइन की हुई है। जैसे टिटरपुर का रावण—जिसकी मूँछ पर युद्ध का नारा लिखा है—वैसे ही धर्म भी राष्ट्रवाद से रंगा जा रहा है।
भारत की विडंबना यही है—हमने सिर्फ़ एक पार्टी को सत्ता नहीं दी, बल्कि ऐसे लोगों को ऊँचाई दी है, सिर पर बैठाया है जिन्होंने सार्वजनिक जीवन से वे सभी तत्व निकाल दिए हैं जो हमें बाँधते थे—विचारधारा, विचार, आदर्श, मूल्य, नैतिकता। इसलिए धर्म को भी अब फिर से निजी क्षेत्र में लौटना चाहिए, न कि राष्ट्र का चेहरा बनना चाहिए। क्योंकि आज का रावण पौराणिक असुर की तरह नहीं जलता। वह दुश्मन की तरह जलता है—युद्ध के नारों से सजा हुआ, राष्ट्रवाद के रंगों में रंगा हुआ।
और यही असली विडंबना है: जब रावण को भी फिर से डिज़ाइन किया जाता है, तो हम पौराणिकता नहीं बचा रहे होते, बल्कि ग़ुस्से, संदेह और बहिष्कार के मूड को जला रहे होते हैं। गांधी ने चेताया था—जब धर्म राजनीति की सेवा करने लगे, तो सबसे पहले सच जलता है।