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कभी ‘इंडिया आउट’ का नारा अब ‘इंडिया वेलकम’

सन् 2023 में मोहम्मद मुज़्ज़ू जब मालदीव के राष्ट्रपति बने, तो भारत को उन्होने दो टूक सख़्त संदेश दिया, भारत अब मालदीव से आउट हो जाए। वे ‘इंडिया आउट’ अभियान के नारे से चुनावी मैदान में उतरे थे। मुज़्ज़ू ने वहा तैनात मददगारों, मानवीय तथा मेडिकल इवैकुएशन के काम में तैनात भारतीय सैनिकों को देश से बाहर निकालने का लोगों से वादा किया था। उनकी वह नारेजबाजी राष्ट्रवादी भावनाओं से लबरेज़ थी। और उन्हे इसका चुनाव के नतीजों में फायदा हुआ। मुज़्ज़ू को एकतरफ़ा जीत मिली। वह उनके लिए मालदीव की विदेश नीति को पूरी तरह से पलट देने का जनादेश था।

मुज़्ज़ू ने शपथ लेने के बाद तेज़ी से काम किया। राष्ट्रपति बनने के बाद परंपरा तोड़ते हुए उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा में दिल्ली को नज़रअंदाज़ किया। उन्होने सीधे तुर्की और चीन का रुख़ किया। उनके जूनियर मंत्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सोशल मीडिया के ज़रिए टिप्पणियाँ कीं। भारत ने इसका जवाब बेहद संयमित अंदाज़ में दिया। ना कोई सार्वजनिक नाराज़गी, ना कोई आधिकारिक विरोध। सिर्फ़ एक ख़ामोश लेकिन असरदार वार। भारतीय पर्यटकों ने मालदीव का बहिष्कार किया। जबकि उसकी जीडीपी में लगभग एक-तिहाई हिस्सा पर्यटन से है।. जल्दी ही मालदीव को आटे-दाल का भाव मालूम हुआ।

पर मुज़्ज़ू तब भी डटे रहे। उन्होंने दोहराया कि भारतीय सैनिकों को मालदीव छोड़ना ही होगा। भारत ने तब मार्च 2024 में सैनिकों की वापसी कराई। लेकिन अपने दरवाज़े बंद नहीं किए। दिल्ली ने कूटनीतिक बातचीत की राह खुली रखी। आखिर ऐसा करना हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती मौजूदगी को देखते हुए आवश्यक था।

बहराल अब तस्वीर बदल गई है। मालदीव को समझ या है कि बिना भारत के काम नहीं चलेगा। मालदीव में विदेशी निवेश धीमा पड़ गया। चीन की ओर से दिए गए कर्ज़, जिनका वादा खुले हाथों से किया गया था, धीरे-धीरे जटिल और अपारदर्शी शर्तों से बंधे लगने लगे। बीजिंग के साथ कर्ज़ पुनर्संरचना की बातचीत रेंगने लगी। घरेलू स्तर पर लोगों को बहकाने वाली विदेश नीति, अंतरराष्ट्रीय मंच पर विफल होती दिखी।

और तभी मालदीव के राष्ट्रपति का स्वर बदलना शुरू हुआ।

सर्वप्रथम प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी जीते के बाद के शपथग्रहण समारोह में मुज़्ज़ू की मौजूदगी दिखी। फिर पिछले हफ़्ते आया असली मोड़—नाटकीय, लेकिन पूर्व नियोजित। प्रधानमंत्री मोदी मालदीव की 60वीं स्वतंत्रता वर्षगांठ पर मुख्य अतिथि के तौर पर माले पहुंचे। हवाई अड्डे पर लाल कालीन बिछा था, राजधानी तिरंगे से सजी थी, मंत्री स्वागत के लिए पंक्तिबद्ध थे। काले चश्मे और आत्मविश्वास से लबरेज़ मोदी केवल पहुंचे ही नहीं बल्कि यह संदेश भी छोड़ आए: भारत लौट आया है। इस बार, अपने शर्तों पर।

हथेलियों की गर्माहट और कैमरे के सामने की मुस्कानें! इन सबके  पीछे ठंडा रणनीतिक हिसाब था।

मालदीव भले ही सिर्फ़ पाँच लाख की आबादी वाला एक छोटा सा द्वीपीय देश है, लेकिन उसकी भौगोलिक स्थिति हिंद महासागर में चल रही शक्ति-संग्राम की धुरी है। वह उन समुद्री रास्तों पर स्थित है जहाँ से पूर्व-पश्चिम व्यापार और तेल परिवहन होता है। अमेरिका ने पास ही डिएगो गार्सिया में एक रणनीतिक सैन्य अड्डा बना रखा है। चीन, जो अब पहले से कहीं ज़्यादा आक्रामक है, वहाँ तक पहुंच बनाना चाहता है। और भारत भी, जिसके पास भू-राजनीतिक निकटता और ऐतिहासिक संबंध हैं, अपनी पकड़ बनाए रखना चाहता है।

बीजिंग ने मालदीव को अब तक लगभग 1.3 अरब डॉलर का कर्ज़ दिया है—जो देश के कुल विदेशी कर्ज़ का लगभग 19 प्रतिशच है। भारत ने इसके जवाब में थोड़ा कम शोर, ज़्यादा स्थायित्व वाली नीति अपनाई है—“पड़ोसी प्रथम” सिद्धांत के तहत बुनियादी ढांचे से लेकर आपातकालीन सहायता तक, मदद के कई स्तर।

दिल्ली की रणनीति अब एक सरकार तक सीमित नहीं रही। वह अब वहा के विपक्षी नेताओं से भी संवाद बना रही है। मोदी की यात्रा के दौरान विपक्षी नेताओं से मुलाकात का यही संकेत था—भारत कोई तात्कालिक लेन-देन वाला साथी नहीं, बल्कि वह लंबी साझेदारी के लिए है।

कोई यह उम्मीद नहीं करता कि मालदीव चीन से संबंध तोड़ लेगा—और ना ही ऐसा होना चाहिए। लेकिन मुज़्ज़ू अब शायद समझने लगे हैं कि एकतरफ़ा झुकाव की अपनी सीमाएँ हैं। इस क्षेत्र में, जहाँ कूटनीतिक रस्साकशी स्थायी है, संतुलन बनाना कोई अवसरवादी रवैया नहीं, बल्कि अस्तित्व की रणनीति है।

‘इंडिया आउट’ जैसे नारों ने चुनाव तो जितवा दिया था लेकिन उसके बाद वे ना पर्यटन संभाल पाए, ना पूंजी ला सके, और ना ही कर्ज़ की सियासत सुलझा पाए। मोदी के लिए बिछाया गया लाल कालीन सिर्फ़ दिखावा नहीं था—वो मुज़्ज़ू की विदेश नीति का सोचा-विचारा पुनर्मूल्यांकन था। एक शांत लेकिन आवश्यक वापसी—उस नीति से जिसने संप्रभुता का वादा तो किया, लेकिन तनाव ही सौंपा।

उन्हे  ‘इंडिया आउट’ ने चुनाव जितवा दिया लेकिन शासन चलाने, विकास की गति बनाए रखने के लिए, और वैश्विक भू-राजनीति में टिके रहने के लिए, राष्ट्रपति  मुज़्ज़ू को आखिरकार यह समझ आ गया है कि मालदीव को भारत की ज़रूरत है, और वो भी उसका पूरा भरोसा पा कर।

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