दशकों से, ‘टू-स्टेट सॉल्यूशन’ एक कूटनीतिक प्रतीक की तरह हवा में था। कई बार दोहराया गया। पर कभी जमीनी बातचीत में नहीं उतरा। हालांकि इजराइल से सटा कर फिलीस्तीन देश बनाने का आईडिया नीति दस्तावेज़ों में रहा है। संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में भी झलका। शिखर बैठकों में भी औपचारिकता में जपा गया। मानों जिक्र करना अपने आप में बहुत। लेकिन अब, जब ग़ाज़ा की राख में जलते हुए घरों के पीछे से भूख से सूनी आँखों वाले बच्चे टीवी स्क्रीन से झाँककर दुनिया की अंतरात्मा को कचोटते हैं, तो मसला गंभीर हो गया है। तीखेपन से महाशक्ति देश बोलने लगे है कि दो राष्ट्रों के फार्मूले का वक्त आ गया है। फ़िलिस्तीन को सिर्फ़ रणनीति में नहीं, ज़रूरत के रूप में पहचाना जाए!
तभी पिछले कुछ हफ़्तों में, दुनिया के कई देश इस ओर निश्चित क़दमों से बढ़े हैं। फ्रांस ने पहला क़दम उठाया, ब्रिटेन उसके पीछे चला। कनाडा ने समर्थन की घोषणा की, हालांकि अपनी शर्तों के साथ। न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया भी कतार में हैं। अब यह ‘मान्यता’ महज़ बयानबाज़ी नहीं, एक अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति बनती जा रही है। एक-एक कर राष्ट्र मान रहे हैं कि एक रेखा पार हो चुकी है—और शायद, फ़िलिस्तीन को मान्यता देना आख़िरी नैतिक विकल्प बचा है।
आख़िरकार, इज़राइल की आक्रामकता —अगर हल्के शब्दों में कहें तो—निरंतर रही है। सच कहें तो यह बर्बर रहा है। सिर्फ़ सैन्य ताक़त से नहीं, बल्कि मंशा से भी। किसी भूगोल को समतल करना एक बात है, लेकिन किसी क़ौम की स्मृति को विकृत करना, उसका नाम-ओ-निशान मिटा देना—यह कुछ और है। यह युद्ध नहीं, यह सिद्दांत के तौर पर विध्वंस है। और यह सब एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था की निगाहों के सामने हो रहा है जिसने अब तक सिद्धांतों की जगह ‘प्रैगमैटिज़्म’ को चुना है। नेतन्याहू उसी आत्मविश्वास से काम कर रहे हैं, जैसे उन्हें मालूम है कि कोई भी रेड लाइन खींची नहीं जाएगी।
और अधिकांश समय, दुनिया ने उन्हें सही ही साबित किया।
लेकिन अब वैश्विक जनमत में ग़ुस्सा और मतदाताओं में बेचैनी दिखने लगी है। तभी वैश्विक नेता धीरे-धीरे हरकत में आए हैं—वो भी शर्तों और किंतु-परंतु के साथ। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टारमर ने कहा है कि फ़िलिस्तीन की मान्यता तभी संभव है जब इज़राइल हमले बंद करे, दो-राष्ट्र समाधान की प्रतिबद्धता जताए और ग़ाज़ा तथा वेस्ट बैंक में कब्ज़ा छोड़ने का संकल्प ले। बातें सिद्धांतों जैसी लगती हैं, लेकिन आज की राजनीतिक भाषा में यह ज़्यादा लगती हैं—शालीन झूठ।
कनाडा के माइक कार्नी का भी कुछ ऐसा ही रुख़ है। उन्होंने कहा कि अगर फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी—जो वेस्ट बैंक पर शासन करती है—2026 में चुनाव कराए, जिसमें हमास की कोई भूमिका न हो और वह लोकतांत्रिक सुधारों को अपनाए, तभी फ़िलिस्तीन को मान्यता दी जाएगी। उन्होंने यह भी शर्त रखी कि हमास अपने सभी बंधकों को रिहा करे, हथियार छोड़े, और भविष्य में शासन से पूरी तरह अलग हो जाए।
इन घोषणाओं को राजनैतिक नौटंकी कहकर ख़ारिज करना आसान है। इमैनुएल मैक्रों घरेलू राजनीति में अप्रासंगिक होते जा रहे हैं, और विदेश में प्रभाव पाने की कोशिश कर रहे हैं। स्टारमर खुद अपनी लेबर पार्टी के भीतर उठती प्रोपलैस्टीन आवाज़ों से घिरे हैं। लेकिन फिर भी, चाहे ये निर्णय घरेलू दबावों से जन्मे हों, यह वैश्विक सोच में बदलाव का संकेत तो हैं। एक दरार है उस पुरानी सर्वसम्मति में, जो दशकों तक चुपचाप अन्याय को देखती रही।
और फिर हैं डोनाल्ड ट्रम्प—जिनका लहजा एक जिम्मेदार राजनेता से ज़्यादा एक चिड़चिड़े राजा जैसा होने लगा है, जिसे शासन की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा रुचि ताली बजवाने में है। उन्होंने मैक्रों को ‘अप्रासंगिक’ बताया और कनाडा को व्यापारिक नुकसान की धमकी दी, महज़ इसलिए क्योंकि उन्होंने फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की बात की। एयर फ़ोर्स वन पर स्टारमर के रुख़ के जवाब में ट्रम्प बोले—“इससे आप हमास को इनाम दे रहे हैं।” लेकिन जब बात इज़राइल की अंधाधुंध बमबारी, सामूहिक विस्थापन और फ़िलिस्तीनी जीवन के सुनियोजित विनाश की आती है, तब ट्रम्प प्रशासन की चुप्पी यह दिखाती है कि शायद ‘कब्ज़े को इनाम देना’ ज़्यादा स्वीकार्य है।
यही है वह नैतिक धुंध, जिसमें आज की दुनिया भटक रही है।
ज़मीन पर देखें तो फ़िलिस्तीन आज भी बँटा हुआ है—वेस्ट बैंक में एक कमज़ोर होती अथॉरिटी और ग़ाज़ा में एक उग्र हमास। कोई सम्प्रभुता नहीं, सीमाओं पर कोई नियंत्रण नहीं, कोई एकीकृत नेतृत्व नहीं। कानूनी मानकों से देखा जाए तो यह एक देश भी नहीं। लेकिन शायद अब मान्यता ‘लीगल स्टेटस’ नहीं, एकमात्र शेष औज़ार है—उस व्यवस्था को चुनौती देने के लिए जो स्थायी दंडमुक्ति पर टिकी है।
वहीं इज़राइल की सरकार आज भी इस विश्वास के साथ काम कर रही है कि उसे कोई नहीं रोकेगा। नेतन्याहू यूरोप की असहमति को आसानी से झटक देंगे—क्योंकि उन्हें पता है कि असली ताक़त वॉशिंगटन में है। और ट्रम्प—जो किसी सेनापति से ज़्यादा दरबार के विदूषक जैसे लगते हैं—स्पष्ट कर चुके हैं कि वे उस ताक़त का इस्तेमाल नहीं करेंगे। उल्टा, यूरोपीय मान्यता इज़राइल की जिद को और मज़बूत ही कर सकती है।
तो बात यहीं आकर टिकती है—मान्यता कल शांति नहीं लाएगी। यह स्थिरता भी नहीं गारंटी देती। यह उन लोगों के लिए अप्रासंगिक भी हो सकती है जिनके पास निर्णय की ताक़त है। और शायद ‘टू-स्टेट सॉल्यूशन’ अब भी एक मृगतृष्णा ही है।
लेकिन फिर भी सवाल तो रह जाता है:
अगर मान्यता नहीं, तो फिर क्या?