कौन सोच सकता था कि “नियम-आधारित व्यवस्था” का अपने को संरक्षक बताने वाला अमेरिका एक दिन दुनिया में अछूत बनने की और होगा? जिसने उदार वैश्विक व्यवस्था बनवाई, नेटो को गूंथा, संयुक्त राष्ट्र का चार्टर लिखा, और दशकों तक दूसरों को वैश्विक ज़िम्मेदारी पर उपदेश दिया, वही उस वास्तुशिल्प से अब मुंह चुरा रहा है, पीछे हट रहा है!
आइजनहावर से लेकर रीगन जैसे सख्त रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के दौर में भी अमेरिका की वैश्विक भूमिका स्थिर रहीष मतबल दुनिया का चौकीदार, अपरिहार्य शक्ति, गठबंधनों का संरक्षक, लोकतंत्र-बाज़ार-आधुनिकता का अगुआ। अमेरिकी शक्ति अंतरराष्ट्रीय जीवन का लंगर थी—अहंकार, उपदेशों और हस्तक्षेपों तथा नेतृत्व के दावे के साथ। वह खुद को वैश्विक लोकतंत्र का माई-बाप मानता था। दुनिया ने भी उस मिथक को खरीदा। दुनिया भर के छात्र उसके विश्वविद्यालयों की ओर भागे, वैज्ञानिक उसकी प्रयोगशालाओं की तथा असंतुष्ट उसकी आज़ादियों की ओर लपके।
सचमुच “अमेरिकी ड्रीम” घरेलू आकांक्षा से कहीं बड़ा, एक सीमाहीन विचार था। और यह लगातार सिलिकॉन वैली, हॉलीवुड, वॉल स्ट्रीट और उसकी अर्थव्यवस्था के गुरुत्वाकर्षण से पुष्ट होता गया।
लेकिन वह मिथक उसी दिन से दरकना शुरू हुआ जब डोनाल्ड ट्रम्प व्हाइट हाउस में दाखिल हुए। अमेरिका का चुबंक, चमक फीकी हुई और उसकी परतें उखड़ी। जो राष्ट्र प्रवासियों की विविधता से ही बना था, उसने अचानक दीवारों, वापसी और आहत गर्व की नई भाषा बोलनी शुरू कर दी। नतीजतन अमेरिका सिमटने लगा। और आधुनिक इतिहास में पहली बार, अकेले पड़े अमेरिका की कल्पना—गठबंधनों से पीछे हटते, बहुपक्षवाद को छोड़ते, अपनी शिकायतें पालते—एक सैद्धांतिक खतरे से चलकर वास्तविकता बन गई।
पीयू रिसर्च के हालिया सर्वे ने इस बदलाव को बेरहमी से दर्ज किया है। जून की रिपोर्ट बताती है कि प्रमुख लोकतंत्रों में अमेरिकी राष्ट्रपति पर भरोसा ऐतिहासिक स्तर पर गिरा है। अमेरिका के प्रति अनुकूली दृष्टि भी तेज़ी से घटी है। 24 में से 19 देशों में आधे से अधिक लोगों ने कहा कि उन्हें विश्व मामलों में ट्रंप के नेतृत्व पर भरोसा नहीं। पश्चिमी व्यवस्था की जो आधारशिला दशकों तक अमेरिका की विश्वसनीयता रही, वह इसलिए नहीं टूटी कि प्रतिद्वंद्वी उसे कमजोर कर रहे थे—बल्कि इसलिए कि वॉशिंगटन ने स्वयं अपनी भूमिका छोड़ने और बिगाड़ने का निर्णय लिया।
अगर हम इतिहास को देखने दें, तो वह एक दर्पण पेश करता है। व्लादिमीर पुतिन के रूस को एक सुबह अचानक मवाली नहीं कहा गया। उसका अलगाव चरणों में आया। वैश्विक मंशाओं पर उसका अविश्वास, बहुपक्षीय मंचों से चयनात्मक दूरी, संस्थानों के प्रति तिरस्कार ने कभी उसे वैधता दी थी। अंततः यह भ्रम भी बना कि दुनिया को रूस की उतनी ही ज़रूरत है जितनी रूस को दुनिया की। भागीदारी से अधिकार तक की यह मनोवैज्ञानिक छलांग मॉस्को की गिरावट का शुरुआती बिंदु थी।
और वैसे ही शुरुआती संकेत अब वॉशिंगटन में विचलित कर देने वाली समानता से उभरते दिखते हैं। ट्रंप प्रशासन की वैश्विक संस्थाओं के प्रति अवमानना, कूटनीति का लेन-देन में सिमटना, सहयोगियों को संपत्ति के बजाय बोझ समझना, और राष्ट्रीय महानता को साझे प्रयास की जगह अकेली परेड के रूप में देखना-दिखाना। रूस ने दुनिया का धैर्य तब तक परखा जब तक वह खत्म न हो गया। आज वह बाज़ारों से कटा है, विश्वसनीयता से वंचित है, और उसकी महत्वाकांक्षा का पैमाना कुछ तनावपूर्ण “दोस्तों” पर निर्भर एक कमजोर साझेदारी में सिमट गया है। रूस प्रतिबंधित है, घिरा हुआ और रणनीतिक चौड़ाई से खोखला है। यह रणनीतिक अकेलेपन की चे
तावनी है।
यों रूस से अमेरिका की तुलना पूरी तरह समान नहीं है। अमेरिका रूस नहीं है। मगर देश विशेष के अलगाव का गुरुत्व हर जगह एक ही तरह असर करता है। जब कोई राष्ट्र मान लेता है कि उसे दुनिया की ज़रूरत नहीं, तो जल्द ही दुनिया भी मान लेती है कि उसे उस राष्ट्र की ज़रूरत नहीं। अलगाव अकड़ से शुरू होता है और अकेलेपन के सन्नाटे पर खत्म।
अमेरिका का अलग-थलग पड़ना व सन्नाटा अब साफ़ सुनाई देने लगा है। कुछ अधिक ही सख्त और भारी मगर सोचा-समझा।
बेलें में हुए हालिया कॉप-30( COP30) महाअधिवेशन देशों पर नज़र डालिए। 190 देशों के जमावड़े में अमेरिका के प्रति हिकारत थी। जबकि जलवायु कूटनीति हमेशा अमेरिका का नैतिक वैधता जताने का मंच रही है—चाहे वह इसे पूरी तरह निभा न पाया हो। लेकिन ट्रंप ने जलवायु संकट को मज़ाक बना दिया, इसे “दुनिया पर थोपा गया सबसे बड़ा छल” कहा। इसलिए जब व्हाइट हाउस ने औपचारिक रूप से घोषणा की कि अमेरिका COP30 में कोई उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल नहीं भेजेगा, तो यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के राजनयिकों ने एक विचित्र प्रतिक्रिया दी: राहत।
मतलब एक खाली अमेरिकी कुर्सी, एक अमेरिकी विध्वंसक से बेहतर थी। आधिकारिक बयान यह था कि राष्ट्रपति राष्ट्रहित को “अनिश्चित, हानिकारक जलवायु महत्वाकांक्षाओं” के लिए खतरे में नहीं डालेंगे। लेकिन शोर के नीचे संदेश बिल्कुल साफ़ था—देशभक्ति के नाम पर अलगाववाद, दृढ़ता के नाम पर वापसी, और उस वैश्विक व्यवस्था से इंकार जिसे अमेरिका ने कभी जन्म दिया था।
ऐसे ही जोहान्सबर्ग में भी अमेरिका की अनुपस्थिति समझी गई। जी-20 (G20) बैठक में अमेरिका का न होना किसी साधारण कूटनीतिक संकेत से कहीं अधिक था। एक दरार का अनुभव था। जो देश कभी वैश्विक मंचों की कोरियोग्राफी करता था, वह उसी मंच से अनुपस्थित दिखा। और जब वॉशिंगटन ने समापन समारोह में—अगले मेजबान फ्लोरिडा को प्रतीकात्मक हस्तांतरण के लिए—सिर्फ एक जूनियर दूत भेजने की कोशिश की, तो दृश्य लगभग अनुनय-सा लगा, मानो महान-शक्ति की जिम्मेदारी किसी छोटे काम की तरह सौंप दी जा सके। दुनिया ने एक स्थिर लंगर को बहते हुए देखा—उसकी रस्सी ढीली पड़ती हुई।
अमेरिका का यह अकेलापन या अलगाव छिपा नहीं रही। आखिर ट्रंप ने ही नेटो (NATO को पुराना बताया था, सहयोगियों को सबके सामने डांटा, और अपना स्नेह लगभग उन्हीं सत्तावादियों के लिए बचाकर रखा जो उसे आर्थिक सौदे या चापलूसी का वादा करते थे। कनाडा, यूरोप और जापान पर व्यापार युद्धों ने रिश्ते थकाए ही नहीं—उन्होंने अपेक्षाओं को बदल दिया। सहयोगियों ने चुपचाप बैक-अप योजनाएँ बनानी शुरू कीं—साझेदारियों में विविधीकरण, रणनीतिक दांव-पेंच—त्याग की तैयारी का कूटनीतिक, नम्र तरीका।
फिर आया कल्पनाशील भू-राजनीतिक रंगमंच—ग्रीनलैंड खरीदने की चाहत, कनाडा को “51वाँ राज्य” बनाना, पनामा नहर “वापस लेने” की बातें। मेक्सिको या वेनेज़ुएला के हिस्सों में “हस्तक्षेप” पर विचार। जो बातें पहले हँसी में उड़ जातीं थी, उन्हें अचानक नीति की तरह बोला गया। जाहिर किसी संवैधानिक गणराज्य (अमेरिका) की भाषा कूटनीतिज्ञों को पुतिन-शैली की भू-राजनीतिक कल्पना जैसी लगी। यह जानने का शायद ही कोई मतलब था कि यह उकसाहट थी या सच्चा इरादा—असर एक-सा था। अमेरिका की इमेज अब नियम-निर्माता से एक अविश्वसनीय शक्ति-दलाल में बदल गई है।
ट्रंप अब पुतिन के विश्वदृष्टिकोण को सिर्फ दोहराते नहीं, बल्कि उसे पुनरुत्पादित कर रहे है। शिकायत-केंद्रित राजनीति, संस्थाओं पर अविश्वास, सीमाओं को उकसाने का लालच, प्रदर्शनकारी मर्दानगी—मानो वॉशिंगटन और मॉस्को अब वैचारिक विरोधी नहीं रहे, बल्कि एक जैसी मनोवैज्ञानिक भाषा साझा करने लगे हों। क्रेमलिन की जो प्रवृत्ति दशकों से रूस को चलाती रही, उसकी झलक व्हाइट हाउस में दिखने लगी। अमेरिकी विशिष्टता में लिपटी, लेकिन बिल्कुल पहचानी जाने वाली। ट्रंप जितना पुतिन की “सोच” और “ताकत” की प्रशंसा करते गए, उससे उनकी अपनी राजनीति उसी सत्तावादी प्लेबुक की छाया में आ गई, जिसे अमेरिका कभी रोकने का दावा करता था। दुख यह नहीं कि ट्रंप पुतिन की प्रशंसा करते हैं—दुख यह है कि वे उसकी तरह शासन करने लगे, सुपरपावर आत्मविश्वास और निरंकुश कल्पना की रेखा धुंधली करते हुए। और हर ऐसे मोड़ के साथ, अमेरिका उस दुनिया से दूर हो रहा है जिसे उसने आकार दिया था। और वह उस अकेलेपन के करीब जा रहा है जिसमें मॉस्को वर्षों से जीता आया है।
दो राष्ट्र जो कभी अपनी-अपनी सदियों के स्वामी थे, आज विचलित कर देने वाली समान राहों पर खड़े दिखते हैं। उनकी शुरुआतें जितनी भिन्न, उनका गिरना उतना ही मिलता-जुलता—महाशक्तियाँ अपने भीतर सिमटती हुईं, सहयोगियों से संदेह, संस्थाओं से अवमानना, और उस सहकारी ताने-बाने का टूटना जो कभी वैश्विक अव्यवस्था को बाँधे रखता था।
सो शीत युद्ध के बाद पहली बार, दुनिया चुपचाप एक ऐसे भविष्य की तैयारी कर रही है जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका केंद्र में नहीं होगा। और जैसे ही वॉशिंगटन डगमगाता है, बीजिंग आगे आता है—किसी व्यवस्था के संरक्षक की तरह नहीं, बल्कि एक नई, असममित व्यवस्था के वास्तुकार की तरह। उसका उदय शोरगुल वाला नहीं—धीमा, पद्धतिगत, अवसंरचनात्मक: व्यापार गलियारे, खनिज मार्ग, डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र, ग्लोबल साउथ की धैर्यपूर्ण कूटनीति से है। इसी बीच रोम से नई दिल्ली तक लोकलुभावन नेता राजनीति को शिकायत और आत्म-संयम पर नया रूप दे रहे हैं—जबकि वैश्विक संकट ठीक उलटा मांग रहे हैं। इस माहौल में बहुपक्षवाद सिर्फ कमजोर नहीं—बिखर रहा है। 1945 के बाद बनी संस्थाएँ 2025 की उस दुनिया को संभाल नहीं पा रहीं जहाँ हर बड़ी शक्ति अपने ही कोने, अपनी ही सच्चाई, अपनी ही सुरक्षा के लिए लड़ रही है। यही इस क्षण की सबसे काली सच्चाई है: जब “नियम-आधारित व्यवस्था” का संरक्षक मंच छोड़ देता है, दुनिया ज्यादा मुक्त नहीं होती—वह और अकेली, और महीन, और कहीं अधिक शिकारी होने की दिशा में है।
