डोनाल्ड ट्रंप को सुनना आजकल एक अजीब तरह का मनोरंजन है। आदमी बेतुकी बातें ऐसे आत्मविश्वास से कहता है कि आप चाहकर भी आधे अविश्वास, आधी हँसी में नज़रें नहीं हटा पाते। हालाँकि ऐसा हमेशा नहीं था। उनकी पहली राष्ट्रपति पारी लोगों में गुस्सा पैदा करती थी। अमेरिका जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोकतंत्र का एक मसख़रा, वह भी उच्चतम दर्जे का, मुखिया बना था। पूरी दुनिया हैरान थी। उनका हर बयान चोट की तरह लगता था। हर बकवास अहसास कराती थी कि मूर्खता व्हाइट हाउस तक पहुँच चुकी है।
अब, उनकी दूसरी पारी में, वह गुस्सा वैसा नहीं है। वजह ट्रंप का बदलना नहीं, बल्कि यह है कि जब आप उम्मीद करना छोड़ देते हैं, तो शब्दों की धार कुंद हो जाती है। ध्यान से सुनिए तो पता चलेगा—वह सिर्फ़ ग़लत नहीं बोलते, बल्कि हास्यास्पद बोलते हैं। ख़तरे की परत हटाइए तो बस एक स्लैपस्टिक कॉमेडी बचती है। चुटकुला भले ही साधारण हो, पंचलाइन उतर जाती है। आप हँसते हैं क्योंकि अब और बचा ही क्या है?
संयुक्त राष्ट्र में उनका ताज़ा भाषण लीजिए। 58 मिनट का एकालाप—नेता का संबोधन कम, स्टैंड-अप कॉमेडी ज़्यादा। इसे “भाषण” कहना भी उदारता होगी। भाषण तो विचार जगाते हैं, किस्से सुनाते हैं, असहज सवाल पूछने का साहस करते हैं। ट्रंप का संबोधन तो उलझी हुई शिकायतों और अधपकी टिप्पणियों की माला था, जिसने असहज किया—सचाई से नहीं, बल्कि इस खयाल से: क्या यही शख़्स युद्ध रोकने, शांति लाने और अमेरिका को “महान” बनाए रखने वाला है?
वह झूलते, बहकते रहे। कभी स्वच्छ ऊर्जा का मज़ाक उड़ाते, कभी प्रवासन नीति को कोसते, कभी यूरोपीय नेताओं को अपमानित करते, तो कभी संयुक्त राष्ट्र से अपनी दशकों पुरानी दुश्मनी निकालते। एक जगह तो उन्होंने न्यूयॉर्क स्थित यूएन मुख्यालय के रेनोवेशन का कॉन्ट्रैक्ट न मिलने पर अफ़सोस जताया। “मैं 500 मिलियन डॉलर में कर देता, शानदार होता—मार्बल फ्लोर, महोगनी की दीवारें।” यह उन्होंने विश्व नेताओं के सामने रियल एस्टेट डीलर की आत्मा से कहा। कोई और नेता ऐसा कहता तो उपहास होता। ट्रंप ने इसे भी आत्मविश्वास से पेश किया।
और यह सब कम नहीं था। शुरुआत में ही उन्होंने शिकायत की कि टेलीप्रॉम्प्टर ख़राब हो गया और संयुक्त राष्ट्र की एस्केलेटर भी उसी सुबह अटक गई। बोले—“अगर फ़र्स्ट लेडी फिट न होतीं तो गिर जातीं।” हॉल में बैठे प्रतिनिधियों ने न गुस्सा दिखाया, न हँसी। उन्होंने बस चुपचाप देखा—और वही चुप्पी सबसे ज़्यादा अपमानजनक थी: दया। लेकिन ट्रंप यहीं नहीं रुके। प्रवासियों के राष्ट्र का राष्ट्रपति यूरोप को “नर्क की ओर जा रहा” बताता है। लंदन के मेयर सादिक़ ख़ान को “भयानक” कहते हैं, उन पर झूठा आरोप लगाते हैं कि वे शहर को शरीया क़ानून के हवाले करना चाहते हैं। वही पुराना ट्रंप कॉकटेल—डर फैलाना, इस्लामोफ़ोबिया और शिकायतों की राजनीति—बिना किसी आत्मचेतना के।
और फिर आया डंके की चोट वाला समापन: सात युद्ध ख़त्म करने का दावा। “जो काम यूएन को करना चाहिए था, मुझे करना पड़ा।” उनकी गरजती आवाज़ से दिल्ली तक बेचैनी महसूस हुई। क्योंकि अब वॉशिंगटन का युद्धविराम से किनारा करना संयुक्त राष्ट्र मंच से कहा जा रहा था।
पर ट्रंप के भाषण सिर्फ़ यूएन तक सीमित नहीं। वे अपने Truth Social के जरिए बात करते हैं, प्रेस कॉन्फ़्रेंस में गूंजते हैं, हर माइक्रोफ़ोन में घुस जाते हैं। हाल ही में ब्रिटेन रवाना होने से पहले एक ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार पर भड़के: “मैं आपके प्रधानमंत्री से कह दूँगा, आपने ऑस्ट्रेलिया के लिए हालात बिगाड़ दिए।” यह कूटनीति से ज़्यादा मोहल्ले का झगड़ा लग रहा था।
सच यही है: ट्रंप अब डर पैदा करने वाले राजनेता नहीं रहे, बल्कि हँसी और दया एक साथ जगाने वाला तमाशा बन गए हैं। यही उनका विरोधाभास है: जितने हास्यास्पद होते जाते हैं, उन पर हँसना आसान होता जाता है, मगर मानना मुश्किल कि यह मज़ाक हमें कितना महँगा पड़ रहा है। आज वे 50 प्रतिशत टैरिफ़ की घोषणा करते हैं, कल मोदी को “बहुत अच्छा दोस्त” बताते हैं। विरोधाभास इस तरह जमते जाते हैं जैसे किसी बाज़ारू नाटक का सामान।
उनके समर्थक इसे रणनीति बताते है। एक अनिश्चित राष्ट्रपति, माहिर सौदेबाज़, जो सबको सतर्क रखता है। लेकिन अनिश्चितता तभी काम करती है जब लोग मानें कि आप गंभीर हैं। और आज, कोई नहीं मानता। अमेरिका की विदेश नीति अब कोई सुर नहीं बजाती; यह बस ट्रंप का कोलाहल है—शोर है, मगर संगीत नहीं। दुनिया सुनती है, हाँ, लेकिन पर्दे के पीछे हँसती है, सिर हिलाती है और उनके इर्द-गिर्द अपनी योजना बना लेती है। विश्व नेता ट्रंप को उसी तरह लेते हैं जैसे आप उस पड़ोसी को लेते हैं जो बालकनी पर पानी गिरने पर बार-बार पुलिस बुला ले। शुरुआत में आप सतर्क रहते हैं। फिर बातचीत बंद कर देते हैं। आख़िरकार, पुलिस भी आँखें घुमा लेती है। बचता है सम्मान नहीं, बस सतर्कता। भरोसे की जगह आपातकालीन योजना (contingency plans) ले लेती हैं।
और यही ट्रंप की असली त्रासदी है: समस्या यह नहीं कि वह हास्यास्पद हैं, बल्कि यह कि दुनिया ने उन्हें झेलने के लिए उपहास को ही सहारे में बदल लिया है। उन्हें यक़ीन है कि वह हर बार सही हैं, मगर यक़ीन कोई जवाब नहीं है ऐसे दौर में जब दुनिया खाई के किनारे खड़ी है। अंत में, ट्रंप वही कर रहे हैं जो उन्हें सबसे प्यारा है—ध्यान और ताली बटोरना—चाहे इसके लिए डर और अराजकता ही क्यों न फैलानी पड़े। और दुनिया, जो अब थक चुकी है, उसी एक तरीक़े से प्रतिक्रिया देती है जिसे वह जानती है: आप बस हँसते हैं—और दया महसूस करते हैं।