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हां, हम भारतीय लोकतंत्र से संतुष्ट!

कौन सोच सकता था कि पश्चिमी दुनिया की उन राजधानियों में लोकतंत्र लुढकेगा जिन्होंने कभी इसके धर्मग्रंथ लिखे थे!  मगर आज यही वास्तविकता है। पश्चिमी देशों में लोकतंत्र पर भरोसा कम हो रहा है। ऐसा माहौल है जैसा 1970 के दशक में था। यह तीखा सत्य फ़रीद ज़कारिया ने अपने हाल के पॉडकास्ट में बताया है। सत्तर के दशक में लोगों को शक था कि उनकी सरकारें काम कर सकती हैं या नहीं? अब उन्हें शक है कि सरकारें वैध भी हैं या नहीं!  दरार कहीं गहरी है, और बताती है कि संकट तब ही थमेगा जब समाज लोकतंत्र पर एक बार फिर विश्वास करने का फैसला करे। विडंबना यह है कि लोगों का विश्वास चुनावों पर नहीं, बल्कि अदालतों पर, संसदों पर और उस अदृश्य ढाँचे पर है जो सत्ता को जवाबदेह बनाते है।

लेकिन इसी बिंदु पर भारत अजीब और थोड़ा बेचैन करने वाले तरीके में सबसे अलग खड़ा है।

सोच सकते है कि जिस देश के लोकतांत्रिक पतन की चेतावनी हर संस्था—वॉचडॉग, थिंक-टैंक, इंडेक्स, और पूरी वैश्विक टिप्पणीकार बिरादरी की जा रही है, वही लोकतंत्र से सर्वाधिक असंतुष्ट लोग होंगे?  पर भारत में लोगों की राय अलग है। प्यू के सर्वे के अनुसार 74% भारतीय कहते हैं कि वे लोकतंत्र के कामकाज से संतुष्ट हैं—दुनिया में सबसे ऊँचे आँकड़ों में से एक। यह संख्या चौंकाती नहीं, बल्कि लगभग पूर्वानुमान जैसी लगती है। क्योंकि भारत की संतुष्टि लोकतांत्रिक सेहत से नहीं आती, बल्कि इससे आती है कि हम लोकतंत्र को सहभागिता से आगे जानते ही नहीं।

भारत में लोकतंत्र महज चुनाव की एक गतिविधि है, संस्कृति नहीं। यह कुछ ऐसा है जो हम करते हैं, न कि उसमें जीते हैं। भारत में मतदान केंद्र की कतार है, उंगली पर लगी स्याही है, हैशटैग हैं, रैलियों का उन्माद है, गिनती के दिन का नाटक है। जब तक ये अनुष्ठान जस के तस हैं, तमाशा चलता रहता है—शोर-शराबे वाला, रंगीन, दिखाऊ—और भारतीय मान लेते हैं कि अपना लोकतंत्र सुरक्षित है।

पश्चिम की तरह, जहाँ वैधता संस्थानों से बँधी होती है—बहस करती संसदें, प्रतिरोध करती अदालतें, सवाल पूछता मीडिया वैसा बोध याकि लोकतंत्र का अर्थ भारत में समझा नहीं जाता क्योंकि भारत भावना में, इलाहम में जीता है। मतलब राजनीति कैसी महसूस होती है, न कि सत्ता कैसे व्यवहार करती है। और जब भरोसा संरचना नहीं, बल्कि भावना पर टिका हो, तो क्षरण लगभग अदृश्य हो जाता है। सत्ता केंद्रीकृत हो सकती है, अदालतें शांत हो सकती हैं, प्रेस पीछे हट सकता है—मगर फिर भी जनता का मूड सामान्य। भारत का लोकतांत्रिक आत्मविश्वास ढांचे से नहीं, अहसास से जन्म लेता है। और यही हमें एक असहज सच के सामने खड़ा करता है: लोकतंत्र, जैसा शब्द, शायद भारत की प्रैक्टिस के लिए बहुत बड़ा, बहुत माँग करने वाला, बहुत संरचनात्मक है।

क्योंकि लोकतंत्र अपने शास्त्रीय रूप में कभी आस्था-आधारित व्यवस्था नहीं था। यह वह राजनीतिक विचार था जिसे जान-बूझकर बिना भविष्यवाणी, बिना दैवी अधिकार, बिना किसी ऐतिहासिक अनिवार्यता के बनाया गया था। इसकी वैधता संदेह से आती थी, न कि समर्पण से; बहस से, न कि आज्ञाकारिता से; और उन नागरिकों से जो झुकने से मना करते थे। लेकिन भारत की लंबी राजनीतिक यात्रा में कहीं लोकतंत्र ने एक अलग ऊर्जा सोख ली। यह ढाँचा होने के बजाय अब भावना की तरह सांस लेता है—लगभग वफादारी जैसा, स्वतंत्रता जैसा नहीं। चुनाव लोकतांत्रिक त्योहार बन गए है और जनादेश नैतिक उपाख्यान। राजनीतिक निष्ठा निर्णय से कम और पहचान से अधिक जुड़ गई। क्योंकि यहाँ लोकतंत्र तर्क पर नहीं चलता, भक्ति पर चलता है। भरोसा संविधान की सीढ़ियों या संस्थाओं के आचरण में नहीं बसता—यह भावनाओं से बहकर करिश्मे के इर्द-गिर्द जमा होता है। जनता का रिश्ता सत्ता से पहले भावनात्मक है, फिर संवैधानिक।

इसीलिए राहुल गांधी का छोटा लाल संविधान-ग्रंथ लहराना और लोकतंत्र के ख़तरे में होने की चेतावनी देना जनमानस को मुश्किल से छू पाता है। मतदाता लोकतंत्र को किसी किताब की तरह नहीं जीता जिसे बचाना हो। वह इसे एक रिश्ते की तरह अनुभव करता है जिसे निभाना हो। भारत अपनी आस्था संस्थानों में नहीं टिकाता। यह उसे उस भावनात्मक भरोसे में टिकाता है कि कोई—नेता—उनकी आकांक्षाएँ ढो रहा है। इसलिए चाहे कांग्रेस या विपक्ष कितना भी कहे कि नरेंद्र मोदी अधिनायकवादी हो चुके हैं, जनता के जहन और दिमाग में मोदी एक भावनात्मक अर्थों वाले मज़बूत नेता हैं—कर्तव्य से बोझिल, त्याग में अनुशासित, और उद्देश्य में संयमी। उनकी सत्ता को लोग ईमानदारी मानते हैं; उनका प्रभुत्व नैतिक स्पष्टता। उनका बल भय नहीं पैदा करता; वह राष्ट्रीय पहचान में समा जाता है।

यह भावनात्मक समेकन नतीजे पैदा करता है। भारत ने असहमति को खतरे के रूप में और आलोचना को विघटन के रूप में देखना सीख लिया है। और अब संतुलन उलट चुका है—राज्य नहीं, बल्कि विपक्ष पर आरोप लगता है कि वही झूठ फैलाता है, वही राष्ट्र को अस्थिर करता है, वही माहौल बिगाड़ता है। ऐसे माहौल में जवाबदेही का आधार सूख जाता है। सुधार की तत्परता गायब हो जाती है। राष्ट्रवाद सुन्न करने वाला उपाय बन जाता है; श्रद्धा इसकी कार्यप्रणाली।

और इसकी जड़ें हमारी ही बनावट में हैं। हमें स्वतंत्रता मिली, पर हमें कभी यह नहीं सिखाया गया कि एक स्वतंत्र नागरिक का मिज़ाज क्या होता है—कैसे सवाल पूछते हैं, कैसे जाँचते हैं, कैसे असहमत होते हैं, कैसे माँग करते हैं, कैसे बनाते हैं, कैसे बचाते हैं। अंग्रेज़ चले गए, और भारतीय चुपचाप उस अगली पदानुक्रम में फिसल गए जिसने व्यवस्था का वादा किया। राज्य स्थिरता देता रहा, हम संतुष्ट होते रहे। और भारत हमेशा से संतुष्ट रहा है—कभी-कभी खतरनाक हद तक।

हमारे ambition, innovation और राष्ट्रीय गर्व के रिश्ते को ही देखिए। दुबई एयर शो में तेजस हादसा इस राष्ट्रीय विरोधाभास की याद दिलाता है। एक लड़ाकू विमान जिसे भारत की तकनीकी परिपक्वता का प्रतीक माना गया, वह अभी भी अमेरिकी इंजन पर उड़ा, क्योंकि अपना कावेरी प्रोजेक्ट कभी उड़ान नहीं भर सका। समस्या महत्वाकांक्षा नहीं थी, क्रियान्वयन था। और जब यह विमान प्रदर्शन के दौरान गिरा—वैश्विक मंच के सामने पायलट की जान लेते हुए—तो प्रतीकवाद को अनदेखा करना असंभव था। उसने एक झटके में उस दूरी को उजागर कर दिया जो हमारे दावों और हमारी क्षमता के बीच है—उस भारत के बीच जो घोषणा करता है और उस भारत के बीच जो निर्माण करता है। हम सुपरपावर वाले वाक्यों में सपने देखते हैं, पर उन्हें हिचकिचाते फुटनोट्स में बनाते हैं।

क्योंकि रचती वही है जो सभ्यता असंतुष्ट होती है। जो संतुष्ट होती है, वह उपभोग करती है। और भारत, अपने मूल में, एक दुकान-का-देश है। आप कहीं भी खड़े हो जाइए—किसी गाँव की पगडंडी पर या महानगर के फ्लाईओवर पर—आपको दुकानें सहज रूप से उगती मिलेंगी। हम बेचना जानते हैं, खरीदना जानते हैं, उपभोग करना जानते हैं, जुगाड़ करना जानते हैं। पर हम बड़े पैमाने पर निर्माण करना नहीं जानते। हम इकोसिस्टम बनाना नहीं जानते। हम मौलिक क्षमता को पोषित करना नहीं जानते। अपने पड़ोसी चीन के उलट—जो अपनी आबादी को उत्पादन और निर्माण में लगाता है—भारत खरीदता और बेचता है। चीन इंजन बनाता है, हम उन्हें आयात करते हैं और फिर इस पर बहस करते हैं कि गलती कहाँ हुई। इसीलिए भारत अपनी अर्थव्यवस्था, अपनी राजनीति, अपने लोकतंत्र—सब से संतुष्ट रहता है, क्योंकि संतुष्टि निर्माण से आसान है।

इसीलिए 73% भारतीय अपने लोकतंत्र से संतुष्ट हैं—क्योंकि लोगों को कभी यह नहीं सिखाया गया कि वास्तव में स्वतंत्र होना क्या होता है—इतना स्वतंत्र कि बेचैन हो सकें, उतावले हो सकें, असंतुष्ट हो सकें। इतना स्वतंत्र कि तमाशे से अधिक की माँग कर सकें। इतना स्वतंत्र कि वह तब तो आवाज़ उठा सकें—जब हवा ज़हर बन जाए, जब शहर पैरों तले टूटने लगें, जब संस्थाएँ चुपचाप सिकुड़ने लगें। और एक ऐसा राष्ट्र जो असंतोष की कीमत नहीं समझता, वह उपभोग को ही प्रगति समझ लेता है और चुप्पी को स्थिरता। यही कारण है कि भारत में लोकतंत्र ख़तरे में नहीं है। क्योंकि जो लोकतंत्र भावना पर चलता है, वह जाँच-परख पर चलने वाले लोकतंत्र से लंबा टिकता है। और जब तक भारत नहीं सीखेगा कि सचमुच स्वतंत्र होना क्या होता है, वह कभी मजबूत नहीं बनेगा। शायद यही इस समय का सबसे अस्थिर करने वाला सत्य है।

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