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चुनाव का समय बदलने की जरुरत

बिहार में चार सीटों पर महज 49 फीसदी मतदान हुआ। पिछली बार इन चार सीटों पर 53 फीसदी से ज्यादा वोट पड़े थे। इसी तरह राजस्थान में 57 फीसदी और महाराष्ट्र में 61 फीसदी वोट पड़ा है। उत्तर प्रदेश में जैसे तैसे मतदान का आंकड़ा 60 फीसदी पहुंचा। पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़ दें तो उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में आंकड़ा बहुत उम्मीद जगाने वाला नहीं है। इसका एक कारण भीषण गरमी है। अप्रैल के अंत में ही देश के कई हिस्सों में भारी गरमी पड़ रही है। देश के 11 राज्यों में हीटवेव चल रही है और कम से कम 43 शहरों में तापमान 43 डिग्री से ऊपर पहुंच गया है। उत्तर भारत के अनेक हिस्सों में लू के थपेड़े चल रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में गरमी से हालत खराब है। महाराष्ट्र व दक्षिण भारत के राज्यों में भी स्थिति अच्छी नहीं है।

हिंदी महीने के लिहाज से देखें तो वैशाख का महीने शुरू होने वाला है और अगले दो महीने सर्वाधिक गरमी वाले होते हैं। मार्च से जून तक शादियों का भी मुख्य सीजन होता है। बिहार और देश के कई हिस्सों में गरमी, शादियों और खेती व कारोबार से जुड़ी गतिविधियों की वजह से मतदान प्रतिशत में गिरावट आई है। इसलिए चुनाव आयोग को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। ध्यान रहे पहले 1991 में लोकसभा असमय भंग होने की वजह से चुनाव का चक्र टूटा था और नवंबर की बजाय मई-जून में चुनाव हुए थे। उसके बाद फिर सर्दियों में चुनाव होने लगा था लेकिन 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने समय से पहले चुनाव का फैसला किया तो फिर चक्र टूटा। अगर चुनाव आयोग सचमुच चाहता है कि मतदान का प्रतिशत बढ़े और लोकतंत्र के उत्सव में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो तो उसे कुछ ऐसा प्रयास करना चाहिए कि चुनाव अक्टूबर से मार्च के बीच हो।

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