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सांसदों को विधायकी लड़ाना कितना उचित?

यह बड़ा सवाल है और राजनीति में शुचिता की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी से जरूर पूछा जाना चाहिए कि हर विधानसभा चुनाव में सांसदों को मैदान में उतारना और चुनाव जीतने के बाद विधानसभा की सीट से उनका इस्तीफा कराना कहां तक उचित है? क्योंकि हर इस्तीफे के बाद उपचुनाव कराना होता है। फिर उस क्षेत्र में आचार संहिता लगती है, कामकाज प्रभावित होता है, सरकार का खर्च होता है, चुनाव आयोग का खर्च होता है आखिर ऐसा करना क्यों जरूरी है? चुनाव जीतने के लिए क्या इस बात की इजाजत दी जा सकती है कि सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा का चुनाव लड़ाएं और वे जीत जाएं तो फिर इस्तीफा कर कर वहां उपचुनाव कराया जाए?

मध्य प्रदेश में अभी तक घोषित 78 उम्मीदवारों में से सात लोकसभा के सांसद हैं। सोचें, अगर ये सातों लोग चुनाव जीत जाते हैं तो क्या होगा? अगर भाजपा इन सातों को विधायक ही बनाए रखती है तब तो कोई बात नहीं है क्योंकि लोकसभा सीट का कार्यकाल छह महीने बचा रहेगा और इसलिए उपचुनाव कराने की जरूरत नहीं होगी। लेकिन अगर ये जीतते हैं और सातों से या कुछ लोगों से विधानसभा सीट छुड़वाई जाती है तो वहां उपचुनाव कराना होगा। ऐसा ही पिछले दिनों त्रिपुरा में हुआ, जहां भाजपा ने केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक को विधानसभा का चुनाव लड़वाया था। उनके इस्तीफे से खाली हुई विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ था। पश्चिम बंगाल में दो साल पहले भाजपा ने केंद्रीय मंत्री निशिथ प्रमाणिक और सांसद जगन्नाथ सरकार को विधानसभा का चुनाव लड़ाया था। ये दोनों जीत गए तो पार्टी ने इनको विधानसभा से इस्तीफा दिलवा दिया। दोनों सीटों पर उपचुनाव में भाजपा हार गई। एक और सांसद बाबुल सुप्रियो को पार्टी लड़वाया था लेकिन वे विधानसभा चुनाव हार गए थे। चुनाव जीतने या राजनीतिक मैसेज बनवाने के लिए इस तरह के काम करने से भाजपा जैसी बड़ी पार्टी को बचना चाहिए।

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