दिल्ली की सरकार को दिल्ली वालों की गाड़ियों की अब जाकर फिक्र हुई है। दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची है, जहां उसने यह तर्क दिया है कि पुरानी गाड़ियों को सड़क पर से हटाने के लिए उनकी उम्र नहीं, बल्कि फिटनेस देखनी चाहिए। सरकार ने कहा है कि सिर्फ 15 साल पुरानी हो जाने की वजह से गाड़ी को नहीं हटाना चाहिए, बल्कि उसके प्रदूषण का स्तर चेक करके तब उसे हटाना चाहिए। यह बहुत समझदारी और तार्किक बात है लेकिन सरकार को और प्रदूषण पर सुझाव देने वाली एजेंसी को पहले क्यों नहीं सूझी? यह भी सवाल है कि एजेंसी ने सुप्रीम कोर्ट को यह सुझाव दिया तो वहां दिल्ली की सरकार ने इसका विरोध क्यों नहीं किया था? ऐसा लग रहा है कि मध्य वर्ग की नाराजगी को लेकर सोशल मीडिया में जो ट्रोलिंग शुरू हुई है उससे घबरा कर सरकार पुराने फैसले से पीछे हट रही है।
ध्यान रहे पिछले कई सालों से यह अभियान चल रहा था। भले इस साल एक जुलाई से पुरानी गाड़ियों को पेट्रोल और डीजल नहीं देने का अभियान शुरू हुआ था लेकिन 15 साल पुरानी पेट्रोल गाड़ी और 10 साल पुरानी डीजल गाड़ी को सड़क से हटाने के अभियान कई साल पहले शुरू हो गया था। लोगों की दरवाजे के सामने खड़ी गाड़ियां उठाई गईं। दिल्ली नगर निगम के लोग टीम लेकर दिल्ली की कॉलोनियों में घूमते थे और फोन ऐप पर गाड़ियों के नंबर चेक करके देखते थे कि कौन सी गाड़ी कितनी पुरानी है। अगर समय सीमा से ज्यादा पुरानी गाड़ी दिख जाती थी तो वहीं नोटिस देते थे, जुर्माने का भय दिखाते थे और गाड़ी उठा कर ले जाने की धमकी देते थे। मजबूरी में लोग स्क्रैप वालों से या एजेंसी वालों से गाड़ियां बेचते थे। एक बहुत बड़ा नेक्सस काम कर रहा था, जो अब भी कर रहा है। उसे रोकने की जिम्मेदारी सरकार, न्यायपालिका और मीडिया सबकी है।