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‘एक व्यक्ति, एक पद’ के सिद्धांत का क्या हुआ?

भारतीय जनता पार्टी ‘एक व्यक्ति, एक पद’ के सिद्धांत का पालन करती है। कांग्रेस भी करती है लेकिन कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए एक अपवाद बनाया। वे अध्यक्ष के साथ साथ राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष भी हैं। इसी तरह कर्नाटक के प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के लिए भी एक अपवाद बनाया। वे अध्यक्ष के साथ साथ उप मुख्यमंत्री भी हैं। लेकिन भाजपा ने केंद्र से लेकर राज्यों तक में ऐसे अनेक अपवाद बना दिए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा केंद्र सरकार में स्वास्थ्य मंत्री हैं और साथ ही राज्यसभा में सदन के नेता भी हैं। पिछले साल जून में सरकार के गठन के समय जब उनको मंत्री बनाने का फैसला हुआ तभी यह तय हुआ होगा कि वे अध्यक्ष पद से हटेंगे। लेकिन अब एक साल होने जा रहे हैं और वे दोनों पदों पर हैं। सोचें, राजनाथ सिंह 2014 में केंद्र में गृह मंत्री बने तो तत्काल उनकी जगह अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया और 2019 में जब अमित शाह गृह मंत्री बने तो उनके साथ जेपी नड्डा कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए और छह से सात महीने में नड्डा को पूर्णकालिक जिम्मेदारी मिल गई।

परंतु नड्डा की जगह कौन बनेगा यह फैसला नहीं हो पा रहा है और वे 10 महीने से दोहरी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। इसी तरह भाजपा ने क्या सोच कर पश्चिम बंगाल के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार को केंद्र में मंत्री बनाया? जाहिर है उनकी जगह नया प्रदेश अध्यक्ष बनना था  लेकिन 10 महीने से वे दोहरी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। ऐसे ही तेलंगाना के प्रदेश अध्यक्ष जी किशन रेड्डी को भी केंद्र में मंत्री बनाया गया और वे 10 महीने से केंद्रीय मंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों हैं। इसी तरह पिछले साल अक्टूबर में महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार बनी तो प्रदेश अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले को राज्य सरकार में मंत्री बना दिया गया और वे छह महीने से दोहरी जिम्मेदारी निभा रहे हैं। झारखंड में पिछले दिनों भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता बनाया। अब वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्य़क्ष दोनों की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। सवाल है कि भाजपा ने ‘एक व्यक्ति, एक पद’ का सिद्धांत छोड़ दिया या वह इन नेताओं का विकल्प ही नहीं खोज पा रही है?

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