Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

आखिर तक पर्दादारी!

सवाल नहीं उठते, अगर निर्वाचन आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व आदेश की भावना के अनुरूप जारी मतदाता सूची में नाम जोड़ने या काटने की वजह भी बता दी होती। मगर आयोग ने यह नहीं किया, तो बात फिर अदालत पहुंची।

बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के क्रम में निर्वाचन आयोग ने ऐसी हर कोशिश की है, जिससे लोग उसके इरादे पर शक करें! उसने हर कदम पर पारदर्शिता से परहेज किया। उनमें से कई कोशिशें नाकाम हुईं, तो उसका पूरा श्रेय सर्वोच्च न्यायालय और जागरूक नागरिकों को दिया जाएगा। पहले की सुनवाइयों में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि मतदाता सूची से जिन लोगों के नाम हटाए या जिनके जोड़े गए, उनके बारे में निर्वाचन आयोग पूरी सूचना सार्वजनिक करे। कोर्ट के सख्त रुख के बाद आयोग ने नाम काटने की वजह बताते हुए 66 लाख से अधिक उन लोगों की लिस्ट जारी की, जिनके नाम नई अंतरिम सूची में नहीं थे।

अंतरिम सूची पर दावा और आपत्ति की अवधि पूरी होने के बाद आयोग ने अंतिम सूची जारी की, तो सामने आया कि तीन लाख 66 ऐसे नाम गायब हो गए हैं, जो अंतरिम सूची में थे। इसके अलावा साढ़े 21 लाख नए नाम शामिल किए गए। यह सवाल जायज है कि एसआईआर के दरम्यान उपरोक्त 3.66 लाख नाम सूची में रखने लायक समझे गए थे, तो बाद में उन्हें क्यों काटा गया? और इतनी बड़ी संख्या में नए नाम कहां से आ गए? ये सवाल नहीं उठते, अगर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व आदेश की भावना के अनुरूप जारी सूची में नाम जोड़ने या काटने की वजह भी एक कॉलम में बता दी होती। मगर आयोग ने फिर डंडी मारने की कोशिश की, तो बात फिर अदालत पहुंची।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अंतिम सूची से भ्रम पैदा हुआ है। उसने नए काटे या जोड़े गए नामों की पहचान बताने का निर्देश आयोग को दिया है। तो अब शायद आयोग उन नामों की पहचान के साथ-साथ उन्हें मतदाता सूची में जोड़ने या काटने के कारण बताएगा। लेकिन इस बीच एसआईआर की प्रक्रिया और आयोग के तौर-तरीकों को लेकर समाज के एक हिस्से में नए सिरे से संदेह पैदा हो चुके हैं। इससे चुनाव प्रक्रिया पर आंच आ सकती है। बेहिचक कहा जा सकता है कि इसके लिए पूरी तरह निर्वाचन आयोग जिम्मेदार है।

Exit mobile version