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रिपोर्ट अनेक, संकेत एक

Economy crisis

Economy crisis: देहाती इलाकों में कर्ज के बोझ तले दबे परिवारों की संख्या में साढ़े चार प्रतिशत इजाफा हुआ है।

2016-17 के सर्वे के दौरान ऐसे परिवारों की संख्या 47.40 प्रतिशत थी, जो ताजा सर्वे के समय 52 फीसदी हो चुकी थी।

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श्रमिक वर्ग की बढ़ती रही दुर्दशा

एक और सरकारी संस्था की रिपोर्ट ने श्रमिक वर्ग की बढ़ती रही दुर्दशा पर रोशनी डाली है। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण बैंक (नाबार्ड) के अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वे (एनएएफआईएस) 2021-22 के दौरान पाया गया देहाती इलाकों में कर्ज के बोझ तले दबे परिवारों की संख्या में साढ़े चार प्रतिशत इजाफा हुआ है।

2016-17 के सर्वे के दौरान ऐसे परिवारों की संख्या 47.40 प्रतिशत थी, जो ताजा सर्वे के समय 52 फीसदी हो चुकी थी। कहा जा सकता है कि अब ज्यादा लोग लाइफ स्टाइल बढ़ाने के लिए कर्ज ले रहे हैं। मगर आय की स्थिति पर गौर करें, तो ऐसे तर्क निराधार मालूम पड़ेंगे।

ताजा सर्वे में ग्रामीण परिवारों की औसत मासिक आय 12,698 रु. सामने आई। इसमें पांच साल में डेढ़ गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई। तब औसत आमदनी 8,059 रु. थी।

राष्ट्रीय परिवार 4.4 व्यक्तियों का है। तो हर व्यक्ति पर आय 2,886 रु. बैठती है। यानी प्रति दिन एक व्यक्ति की खर्च क्षमता 96 रुपये होगी।

यह औसत आय है, जिसमें ग्रामीण इलाकों के सबसे धनी और गरीब दोनों तबकों की आमदनी शामिल है।

2013-14 में रंगराजन समिति ने भारत की गरीबी रेखा 32 रु. प्रति दिन खर्च क्षमता रखने का सुझाव दिया था। दस साल की मुद्रास्फीति से उसे एडजस्ट करें, तो ये रकम आज तकरीबन 60 रुपये बैठेगी।

भारत में आधे से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे (Economy crisis) 

इस पैमाने पर पर अनुमान लगाएं, तो संभव है कि भारत में आधे से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे आएंगे। वैसे, जिन परिवारों की औसत आय 12 हजार रुपये हो, वे लाइफ स्टाइल संबंधी चीजों की खरीद के लिए कर्ज लें, यह मानने का कोई तुक वैसे भी नहीं है। (Economy crisis) 

तो जाहिर है, शिक्षा, स्वास्थ्य और शादी-विवाह आदि जैसे खर्चों के लिए कर्ज लेने वाले परिवार बढ़े हैं।

इसके पहले लेबर ब्यूरो की पारिश्रमिक दर सूचकांक रिपोर्ट, कृषि मंत्रालय के जारी हुए आंकड़ों, तथा पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे रिपोर्ट आदि में बताया जा चुका है कि श्रमिक वर्ग की वास्तविक आय गिरी है और औसत आय में वृद्धि गतिरुद्ध हो गई है।

उपभोग और मांग गिरने की बातें सामने आ चुकी हैं। ऐसे में दुर्दशा का तथ्य नकारना व्यर्थ है।

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