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पुराना पड़ गया फॉर्मूला?

India Economy crisis

आसान शर्तों पर ऋण की उपलब्धता बढ़ा कर अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने की भारतीय रिजर्व बैंक की कोशिशें कामयाब नहीं हुई है। मनी सप्लाई बढ़ाने के कदमों का क्रेडिट ग्रोथ पर ना के बराबर असर हुआ है।

यह समझ अब गलत साबित हो रही है कि बैंकों के पास ऋण देने के लिए अधिक नकदी उपलब्ध होने पर आर्थिक वृद्धि दर तेज होती है। मान्यता है जब बैंक आसान शर्तों पर कर्ज देते हैं, तो लोग ऋण लेकर टिकाऊ उपभोक्त सामग्रियों या मकान आदि की अधिक खरीदारी करते हैं। इससे बढ़ी मांग के कारण उद्योगपति निवेश बढ़ाते हैं, जिससे आर्थिक गतिविधियां तेज होती हैं। मगर अब नए बने हालात में यह सामान्य समझ जवाब देती नजर आ रही है।

पिछले सात महीनों में इस माध्यम से अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने की भारतीय रिजर्व बैंक की कोशिशें कामयाब नहीं हुई है। रिजर्व बैंक ने दिसंबर 2024 से मनी सप्लाई बढ़ाने के लगातार कदम उठाए हैं। बीते फरवरी से लेकर अब तक ब्याज दरों में वह एक प्रतिशत की कटौती कर चुका है। लेकिन इसका क्रेडिट ग्रोथ पर ना के बराबर असर हुआ है। यानी अपेक्षाकृत सत्ता ऋण उलपलब्ध होने के बावजूद इसे लेने के लिए उपभोक्ताओं या कंपनियों की कतार नहीं लगी है। यह बात खुद रिजर्व बैंक के आंकडों से जाहिर हुई है। इनके मुताबिक बीते मई में भारतीय बैंकों से लिए गए गैर-खाद्य कर्ज में 9.8 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि अप्रैल में ये दर 11.2 फीसदी थी। मई 2024 में यह दर 16.2 प्रतिशत रही थी।

सिर्फ उद्योगों के ऋण पर ध्यान दें, तो इसमें वृद्धि दर महज 4.9 प्रतिशत रही। इस परिघटना से अमेरिकी बैंक जेपी मॉर्गन के अर्थशास्त्रियों के इस कथन की पुष्टि हुई है कि एक हद के बाद नकदी बढ़ाने का उपाय बेअसर हो जाता है। इसी महीने के आरंभ में प्रकाशित एक टिप्पणी में इन अर्थशास्त्रियों ने कहा कि नकदी की उपलब्धता का ऋण बढ़ने या घटने से कोई संबंध नहीं है। कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों ने ध्यान दिलाया है कि अगर अर्थव्यवस्था में गति हो, तो ब्याज दर चाहे कुछ भी रहे, ऋण लेने वालों की कतार लगी रहती है। तो संदेश यह है कि मौद्रिक नीति से अर्थव्यवस्था को संभालने की कोशिशें अब बेमतलब हैं। बाजार की सूरत बदलने के लिए अब बड़े नीतिगत बदलावों की जरूरत है, जो आरबीआई के हाथ में नहीं है।

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