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गलत दवा से इलाज

बेरोजगारी जिस हद तक बढ़ गई है, उसके मद्देनजर समझा जा सकता है कि सरकारों पर इस समस्या को हल करते हुए दिखने का भारी दबाव है। मगर दिखावटी कदमों से इस गंभीर समस्या का समाधान संभव नहीं है।

कर्नाटक सरकार ने एक विधेयक को मंजूरी दी है, जिसके पारित होने पर राज्य के बाशिंदों के लिए प्रबंधकीय नौकरियों में 50 प्रतिशत और गैर-प्रबंधकीय नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण हो जाएगा। बेरोजगारी जिस हद तक बढ़ गई है, उसके मद्देनजर समझा जा सकता है कि सरकारों पर इस समस्या को हल करते हुए दिखने का भारी दबाव है। मगर ऐसे दिखावटी कदमों से इस गंभीर समस्या का समाधान संभव नहीं है। सैद्धांतिक तौर पर ऐसे कदमों के साथ मुश्किल यह है कि यह संविधान के उस प्रावधान और भावना के खिलाफ जाते हैं, जिनके तहत भारत के हर नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाकर रोजगार पाने का हक है। व्यावहारिक दिक्कत यह है कि अतीत में अनेक राज्यों में उठाए गए ऐसे कदमों को न्यायपालिका असंवैधानिक बता कर रद्द कर चुकी है।

यानी ऐसा प्रावधान करते वक्त संभवतः संबंधित सरकार को भी अंदाजा होता है कि वह कदम न्यायिक पड़ताल में टिक नहीं पाएगा। वैसे फिलहाल इन दोनों बाधाओं को नजरअंदाज भी कर दें, तब भी हकीकत यही है कि ऐसा आरक्षण इस बीमारी की गलत दवा है। बेरोजगारी का ठोस हल सिर्फ यह है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े, जिससे धीमा पड़े आर्थिक चक्र में गति आएगी। फिर रोजगार स्वतः पैदा होंगे। मगर वित्तीय पूंजीवाद के इस दौर में पूंजीपतियों से इस दिशा में पहल की आशा कमजोर पड़ती गई है। वैसे में एकमात्र रास्ता यही है कि सरकार सामाजिक क्षेत्र एवं सार्वजनिक क्षेत्र में अभूतपूर्व निवेश शुरू करे। इसके लिए संसाधनों की जरूरत होगी। इसीलिए अब दुनिया भर में वेल्थ टैक्स और उत्तराधिकार कर लगाने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है। उधर भारत में राज्यों को सशक्त बनाने के लिए जरूरी हो गया है कि जीएसटी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हो या इस सिस्टम को वापस लिया जाए। स्पष्टतः ऐसा करना राज्यों के वश में नहीं है। मगर वे और विपक्ष इस सवाल को राजनीतिक बहस के केंद्र में जरूर ला सकते हैं। बेरोजगारी का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था के स्वरूप और राजकीय नीतियों से है। इसमें बदलाव के बिना कोई मरहम कारगर नहीं होगा।

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