पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति को देखकर हर भक्त का मन श्रद्धा और आश्चर्य से भर उठता है। बड़ी-बड़ी गोल आंखें, नथ से सजी हुई नाक, और अधूरा शरीर — यह रूप जितना सरल दिखता है, उतना ही रहस्यमय भी है।
हिन्दू धर्म में जहाँ अधिकांश देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पूर्ण शरीर, शास्त्रीय अनुपात और भव्य शिल्पकला से सज्जित होती हैं, वहीं भगवान जगन्नाथ का यह अपरंपरागत रूप एक गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य को अपने भीतर समेटे हुए है।
पुरी का जगन्नाथ मंदिर स्वयं में ही कई रहस्यों का केंद्र है — कभी न झुकने वाला ध्वज, समुद्र की दिशा के विपरीत बहती हवा, और मंदिर के शिखर पर उड़ने वाला ध्वज जो हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।
ऐसे ही अनेक रहस्यों की सूची में भगवान जगन्नाथ की यह अलौकिक मूर्ति भी शामिल है। मूर्ति अधूरी है, फिर भी वह पूर्ण प्रतीत होती है। इसमें हाथ-पैर नहीं हैं, लेकिन आभास ऐसा होता है मानो वो सब कुछ कर सकते हैं। उनके विशाल नेत्र मानो पूरे ब्रह्मांड को निहारते हैं और हर जीवात्मा की पीड़ा को समझते हैं।
इस अनोखे स्वरूप के पीछे अनेक पौराणिक कथाएं और लोकमान्यताएं प्रचलित हैं। एक प्रमुख कथा के अनुसार, यह मूर्ति स्वयं भगवान विष्णु के उस रूप की प्रतीक है जो उन्होंने अपने भक्त राजा इंद्रद्युम्न को दर्शन देने के लिए धारण किया था।
कहा जाता है कि विश्वकर्मा जी, जो देवताओं के शिल्पकार हैं, इस मूर्ति को बना रहे थे और उन्होंने शर्त रखी थी कि जब तक मूर्ति निर्माण पूरा न हो, तब तक उन्हें कोई न टोके। लेकिन अधीरता के कारण राजा ने दरवाज़ा खोल दिया, और विश्वकर्मा अधूरी मूर्ति को वहीं छोड़कर अंतर्धान हो गए। तभी से भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के अधूरे स्वरूप की पूजा होती है।
धरती पर ईश्वर का निवास……भगवान जगन्नाथ
एक अन्य मान्यता यह भी है कि यह स्वरूप उस समय का प्रतीक है जब भगवान कृष्ण का शरीर पृथ्वी पर छोड़ दिया गया था और उनके अंगों के अवशेष जल में प्रवाहित किए गए थे। उस समय भगवान जगन्नाथ का शेष रूप ही शालिग्राम काष्ठ में परिवर्तित हुआ और वही जगन्नाथ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।
भगवान जगन्नाथ जी की यह मूर्ति भक्तों को यह संदेश देती है कि भगवान की आराधना शरीर की पूर्णता से नहीं, बल्कि भाव और भक्ति की पूर्णता से की जाती है। उनका अधूरा शरीर बताता है कि ईश्वर को आकार में बाँधा नहीं जा सकता। वे प्रत्येक कण में व्याप्त हैं, और भक्त के प्रेम में ही पूर्ण हो जाते हैं।
इसलिए जब भी कोई भक्त भगवान जगन्नाथ के इस अद्भुत स्वरूप के दर्शन करता है, वह केवल एक मूर्ति नहीं, बल्कि भक्ति, रहस्य, और परंपरा का अद्वितीय संगम देखता है — एक ऐसा रूप, जो अधूरा होते हुए भी, सम्पूर्णता का एहसास कराता है। यही कारण है कि पुरी के इस धाम को ‘धरती पर ईश्वर का निवास’ कहा जाता है, और भगवान जगन्नाथ को ‘सबके नाथ’ — यानि जगत के नाथ माना जाता है।
भगवान जगन्नाथ की अधूरी मूर्ति का रहस्य
पुरी धाम के भगवान जगन्नाथ का स्वरूप जितना अनोखा है, उतनी ही रहस्यमयी है उनकी अधूरी मूर्ति के पीछे की कथा। हिन्दू धर्म की प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान जगन्नाथ के भव्य मंदिर का निर्माण राजा इंद्रद्युम्न ने करवाया था। इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ, उनके भ्राता बलराम और बहन सुभद्रा की मूर्तियां स्थापित की जानी थीं।
राजा ने इन दिव्य मूर्तियों को गढ़ने का दायित्व देव शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा को सौंपा। लेकिन विश्वकर्मा ने राजा से एक कठोर शर्त रखी—जब तक मूर्तियों का निर्माण कार्य पूर्ण न हो, तब तक कोई भी उनके कार्य में बाधा नहीं डालेगा और कोई उस कक्ष में प्रवेश नहीं करेगा। अगर किसी ने ऐसा किया, तो वे अधूरी मूर्तियाँ छोड़कर चले जाएंगे।
राजा इंद्रद्युम्न ने यह शर्त मान ली और विश्वकर्मा एकांत में मूर्तियाँ गढ़ने लगे। राजा हर दिन बाहर खड़े होकर मूर्तियों के निर्माण की आवाजें सुनते। परंतु एक दिन जब भीतर से कोई आहट नहीं आई, तो उन्हें चिंता हुई कि शायद विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं या मूर्तियाँ अब पूरी हो चुकी हैं। अधीरता में आकर राजा ने दरवाजा खोल दिया।
दरवाजा खुलते ही शिल्पकार विश्वकर्मा क्रोधित हो उठे और तत्काल अंतर्ध्यान हो गए। परिणामस्वरूप भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ अधूरी रह गईं—बिना भुजाओं और सामान्य शरीर रचना के।
हिंदू परंपरा में अधूरी मूर्ति की पूजा वर्जित मानी जाती है, लेकिन पुरी में यह अपवाद है। यहां इन अधूरी मूर्तियों की ही नहीं, बल्कि अत्यंत श्रद्धा, आस्था और भक्ति से पूजा होती है। यह एक ऐसी दिव्यता का प्रतीक है, जिसमें अधूरेपन में भी संपूर्णता का अनुभव होता है। यही विश्वास भगवान जगन्नाथ के इस रहस्य को और भी पवित्र और चमत्कारी बना देता है।
भगवान जगन्नाथ का अलग और रहस्यमय स्वरूप
पुरी के श्रीमंदिर में विराजमान भगवान जगन्नाथ का स्वरूप अन्य देवी-देवताओं से बिल्कुल अलग और विशेष माना जाता है। उनका यह रूप न केवल आध्यात्मिक रहस्यों से भरा है, बल्कि प्रतीकात्मक दृष्टिकोण से भी अत्यंत गूढ़ है।
बड़ी-बड़ी आंखें
भगवान जगन्नाथ की विशाल गोल आंखें उनके सर्वव्यापक और सर्वद्रष्टा स्वरूप की प्रतीक हैं। ये आंखें यह दर्शाती हैं कि भगवान बिना पलक झपकाए संपूर्ण सृष्टि पर दृष्टि रखते हैं और हर प्राणी की गतिविधियों पर उनकी निगाह रहती है।
हाथ-पैरों का अभाव
जगन्नाथ जी की मूर्ति में हाथ और पैर नहीं होते। यह अधूरा स्वरूप ब्रह्म के निराकार और अविनाशी स्वरूप का प्रतीक माना जाता है, जो बिना किसी रूप और आकार के संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।
नीम की लकड़ी का उपयोग
भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा — इन तीनों की मूर्तियां नीम के विशिष्ट वृक्षों की लकड़ी से बनाई जाती हैं, जिसे ‘दारू ब्रह्म’ कहा जाता है। यह लकड़ी स्वयं दिव्य मानी जाती है और इसे चुनने की प्रक्रिया अत्यंत रहस्यमयी और धार्मिक होती है।
हर 12 साल में मूर्ति का परिवर्तन (नवकलेवर)
भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को हर 12 वर्षों में एक विशेष विधि से बदला जाता है। इस प्रक्रिया को नवकलेवर कहते हैं, जिसमें पुरानी मूर्तियों को विधिपूर्वक समाधि दी जाती है और नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। यह परिवर्तन आत्मा के एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का प्रतीक माना जाता है।
भगवान जगन्नाथ का यह अनोखा रूप न केवल गहराई से जुड़ी आध्यात्मिक अवधारणाओं को प्रकट करता है, बल्कि यह दर्शाता है कि ईश्वर को किसी एक रूप में सीमित नहीं किया जा सकता।
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