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भाग्य के भरोसे झूलता विपक्ष

अपने रायपुर अधिवेशन में सोनिया गांधी ने अपने राजनीतिक संन्यास की घोषणा बहुत ही मर्यादित ढंग से कर दी है और उन्होंने अपने काल की उपलब्धियों और हानियों का जिक्र भी काफी खुलकर किया है लेकिन कांग्रेसियों का भक्तिभाव भी अद्भुत है। वे बार-बार कह रहे हैं कि इसे आप सोनियाजी का संन्यास क्यों मान ले रहे हैं? वे अब भी कांग्रेस की सर्वोच्च नेता हैं। यह कथन बताता है कि सोनिया गांधी के प्रति कांग्रेसियों में कितनी अंधभक्ति है?

क्या आपने कभी अटलजी या आडवाणीजी के प्रति ऐसा भक्तिभाव भाजपा में देखा है? सभी लोकतांत्रिक देशों की पार्टियां समय-समय पर अपने नेताओं को बदलती रहती हैं लेकिन हमारी कांग्रेस पार्टी को आजादी के बाद जड़ता ने ऐसा घेरा है कि वह पार्टी नहीं, प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है, जैसे कि हमारी प्रांतीय पार्टियां हैं। अब कांग्रेस कह रही है कि उसी के नेतृत्व में मोदी-विरोधी मोर्चा बनाना चाहिए।

यदि कांग्रेस के बिना कोई तीसरा गठबंधन बनेगा तो मोदी को हटाना आसान नहीं होगा। वोट बंट जाएंगे लेकिन तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति, समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी आदि पार्टियां क्या कांग्रेस को अपना नेता स्वीकार कर लेंगी? मल्लिकार्जुन खड़गे तो नाममात्र के अध्यक्ष हैं। असली कमान तो राहुल गांधी के हाथ में है। क्या इन सभी पार्टियों के वरिष्ठ नेता राहुल को अपना नेता मान लेंगे? उम्रदराज लोग राहुल को जरूर नेता मान लेते लेकिन वैसे गुण राहुल में हैं क्या?

खड़गे का यह कहना ठीक है कि 2004 से 2014 तक कई दलों ने कांग्रेस के साथ सफल गठबंधन किया हुआ था लेकिन उस समय कांग्रेस सत्ता में थी और अब तो यह उम्मीद भी नहीं है कि संसद में इस समय उसके जितने सदस्य हैं, उतने भी 2024 के बाद भी रह पाएंगे। कांग्रेस अध्यक्ष का यह कहना कि 2024 में भाजपा के सांसदों की संख्या 100 से नीचे हो जाएगी, कोरी कपोल कल्पना ही है। जो पार्टियां कांग्रेस के साथ मिलकर 2024 का चुनाव लड़ना चाहती हैं, उनमें गजब का लचीलापन है।

कांग्रेस उन पर मुग्ध है लेकिन क्या कांग्रेस यह भूल गई कि नीतीश का जनता दल, शरद पवार की एन.सी.पी. और डी.एम.के. जैसी पार्टियां कब पलटा खा जाती हैं और कब इधर से उधर खिसक जाती हैं, किसी को कुछ पता नहीं। विरोधी दलों का मोर्चा बनने में जितनी देर लगेगी, वह उतना ही कमजोर और अविश्वसनीय होगा। विरोधी दलों का मोर्चा किसी तरह बन भी गया तो भी वह नरेंद्र मोदी की कृपा के बिना कभी सफल नहीं हो सकता।

यदि मोदी सरकार विपक्ष पर वैसी ही कृपा कर दे, जैसी कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल लाकर की थी या राजीव गांधी ने बोफोर्स के जरिए की थी तो हमारे लकवाग्रस्त विपक्ष में थोड़ी-बहुत जान जरूर पड़ सकती है। अब भारत की राजनीति से विचारधारा का तो अंत हो गया है लेकिन हमारे विपक्ष के पास न कोई मुद्दा है, न कोई नीति है और न ही कोई नेता है। वह भाग्य के भरोसे झूल रहा है।

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