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सुप्रीम कोर्ट ने एक मौका दिया है

तेलंगाना की मुख्य विपक्षी पार्टी भारत राष्ट्र समिति के 10 विधायकों के पाला बदल कर कांग्रेस में जाने के मामले में विधानसभा के स्पीकर के सुप्रीम कोर्ट ने सख्त निर्देश दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि स्पीकर इन विधायकों की अयोग्यता के मामले में तीन महीने के अंदर फैसला करें। असल में इस मामले के एक साल से ज्यादा हो गए हैं। नवंबर 2023 में तेलंगाना में विधानसभा चुनाव हुए थे और कांग्रेस पार्टी ने अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल किया था। चुनाव के थोड़े दिन के बाद मुख्य विपक्षी पार्टी भारत राष्ट्र समिति के विधायकों के टूट कर कांग्रेस में शामिल होने का सिलसिला शुरू हुआ। यह कोई नई बात नहीं है। अवसरवादी राजनीति के लिए उत्तर भारत की हिंदी पट्टी को बेवजह बदनाम किया जाता है।

असली अवसरवादी राजनीति तो दक्षिण के राज्यों में देखने को मिलती है। 2023 से पहले 10 साल तक बीआरएस का राज था तो कांग्रेस के दर्जनों बड़े नेता पाला बदल कर उसके साथ चले गए थे और अब कांग्रेस का राज आया तो उसी अनुपात में बीआरएस के नेता पाला बदल कर कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। बहरहाल, अवसरवादी राजनीति एक अलग मसला है।

अभी तात्कालिक मसला यह है कि बीआरएस छोड़ कर 10 विधायक कांग्रेस में शामिल हुए तो दलबदल विरोधी कानून के आधार पर क्यों नहीं उनकी सदस्यता समाप्त होनी चाहिए? इसमें कोई रॉकेट साइंस नहीं है। 2023 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 64 सीटें मिली थीं और बीआरएस को हिस्से में 39 सीटें आई थीं। दलबदल विरोधी कानून के तहत बीआरएस के टूटने के लिए कम से कम 26 विधायकों का एक साथ आना जरूरी है। अगर उससे कम विधायक टूटते हैं तो उनके ऊपर दलबदल विरोधी कानून लागू होता है और उनकी सदस्यता समाप्त होती है। हालांकि ऐसा नहीं है कि इससे कम विधायक चाहें तो नहीं टूट सकते हैं। वे टूट सकते हैं लेकिन तब उनको विधानसभा से इस्तीफा देना होगा और उनकी सीट पर उपचुनाव होगा। तेलंगाना में इस बेसिक सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है। बीआरएस के 10 विधायक घोषित रूप से कांग्रेस में शामिल हो गए हैं और बीआरएस की ओर से शिकायत के बावजूद स्पीकर उनको अयोग्य नहीं ठहरा रहे हैं।

अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पीकर के लिए तीन महीने की समय सीमा तय कर दी है। इस समय सीमा के अंदर उनको फैसला करना होगा। अगर वे बीआरएस से पाला बदलने वाले विधायकों को अयोग्य ठहराते हैं तो उनकी सीटें खाली होंगी और उपचुनाव होगा और अगर अयोग्य नहीं ठहराते हैं तो सुप्रीम कोर्ट में उनकी अयोग्यता पर सुनवाई होगी। तब यह देखना दिलचस्प होगा कि स्पीकर क्या तर्क देते हैं। यह सुनवाई बहुत दिलचस्प और आगे का रास्ता बनाने वाली हो सकती है। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट हमेशा के लिए इस मामले को सुलझाए और ऐसे मामले में स्पीकर के फैसला करने के लिए एक समय सीमा तय कर दे। आखिर सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभाओं से पास विधेयकों पर फैसला करने के लिए राज्यपाल और यहां तक कि राष्ट्रपति के लिए भी एक समय सीमा तय की है। इसको लेकर विवाद चल रहा है और राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 142 के तहत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस सुप्रीम कोर्ट को भेजा है। परंतु तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल के मामले में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला नजीर बन गया है।

सो, संभव है कि विधायकों की अयोग्यता के मामले में सुप्रीम कोर्ट स्पीकर के लिए एक समय सीमा तय करे। हालांकि बेहतर यह होता कि सुप्रीम कोर्ट के ऑब्जर्वेशन के आधार पर संसद में इसे लेकर नया कानून बनता। आखिर अगर संविधान में किसी मसले पर चुप्पी है और चुप्पी का फायदा उठा कर संवैधानिक पदों पर बैठे लोग एक या दूसरे राजनीतिक दल को फायदा या नुकसान पहुंचाने का काम करते हैं तो उस पर कानून बनाने का काम तो संसद को ही करना होगा! ध्यान रहे संविधान में इसके लिए कोई समय सीमा नहीं निर्धारित की गई है। जैसे राज्यपालों के लिए कोई समय सीमा नहीं है कि वे कितने दिन के अंदर किसी विधेयक पर फैसला करेंगे वैसे ही स्पीकर के लिए समय सीमा तय नहीं है कि अयोग्यता की शिकायत पर वह कितने दिन में फैसला करेगा। इस लूपहोल का फायदा कई बार सत्तारूढ़ दल की ओर से नियुक्त स्पीकर उठा चुके हैं। झारखंड की पिछली विधानसभा में तीन विधायकों बाबूलाल मरांडी, बंधु तिर्की और प्रदीप यादव की अयोग्यता का मामला पूरे पांच साल तक लंबित रहा।

इस विवाद की वजह से चार साल तक झारखंड विधानसभा में नेता विपक्ष ता पद खाली रहा क्योंकि भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को विधायक दल का नेता चुना था, जबकि उनके खिलाफ अयोग्यता का मामला स्पीकर के पास लंबित था और वे उस पर फैसला नहीं कर रहे थे। क्या किसी सभ्य लोकतंत्र में ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है? महाराष्ट्र में भी स्पीकर ने शिव सेना के विधायकों की अयोग्यता का मामला लंबे समय तक लंबित रखा था। सुप्रीम कोर्ट की सख्त फटकार और निर्देश के बाद स्पीकर को फैसला करना पड़ा।

इसी तरह संभव है कि तेलंगाना में भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का पालन करते हुए स्पीकर तीन महीने के अंदर फैसला करें। परंतु यह स्थायी समाधान नहीं है। इस मामले में स्थायी समाधान की जरुरत है, जो संसद से निकले तो ज्यादा बेहतर है। संसद के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक अवसर है। सरकार को इसकी पहल करनी चाहिए कि वह कानून बना कर इस मसले को सुलझाए। ध्यान रहे स्पीकर द्वारा दलबदल करने वाले विधायकों पर कोई फैसला नहीं करना, कदाचार को बढ़ावा देने वाला है। राज्यों में विधायक निजी लाभ के लिए दलबदल करते हैं और सत्तापक्ष के साथ चले जाते हैं। इससे दलबदल विरोधी कानून का उल्लंघन होता है, जनादेश का अपमान होता है और कदाचार को बढ़ावा मिलता है।

इसलिए जितनी जल्दी हो सरकार या तो दलबदल विरोधी कानून में कुछ बदलाव करे या कोई नया कानून लाकर स्पीकर के लिए समय सीमा तय करे। संसद से लेकर विधानसभाओं तक के लिए यह कानून होना चाहिए। अगर सरकार इसकी पहल करती है तो निश्चित रूप से विपक्ष को इसका साथ देना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो जैसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश से महाराष्ट्र का मसला सुलझा वैसे ही तेलंगाना का भी सुलझ जाए और आगे हमेशा के लिए विवाद की संभावना बनी रहेगी।

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