दिल्ली से लेकर पटना तक की मीडिया में चर्चा है कि बिहार में राजद के साथ कांग्रेस का गठबंधन टूटते टूटते बचा और वह भी तब, जब सोनिया गांधी ने दखल दिया और राहुल गांधी सक्रिय हुए। कहा जा रहा है कि राहुल देश के किसी भी हिस्से में रहे लेकिन वे पटना में नेताओं के लगातार संपर्क में थे और हर घटनाक्रम की समीक्षा कर रहे थे। अंत में सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत को पटना भेजा। उनके बाद अविनाश पांडे भी पटना भेजे गए। वे पटना में समन्वय देखेंगे। यह आम धारणा है कि अशोक गहलोत पटना गए तो उन्होंने जादूगरी दिखाई और गठबंधन को टूटने से बचा लिया। उन्होंने लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव से बातचीत की और उसके बाद साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें तेजस्वी यादव को महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री का दावेदार और मुकेश सहनी को उप मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित किया गया।
अब सवाल है कि क्या कांग्रेस तेजस्वी को चेहरा घोषित करने के बदले जो चाहती थी वह उसको मिल गया? इस सवाल का जवाब है कि कांग्रेस को तेजस्वी का नाम घोषित करने के बदले में कुछ नहीं मिला। कह सकते हैं कि ‘न खुदा मिला न विसाले सनम’। बेइज्जती अलग से हुई। कांग्रेस को घुटने टेक कर नौ सीटें छोड़नी पड़ी, जिसमें जीती हुई सीट भी है। क्वालिटी सीट के नाम पर कोई अच्छी या नई सीट नहीं मिली यानी पुरानी ही सीटें लड़नी पड़ रही है, जिनमें पिछली बार स्ट्राइक रेट 27 फीसदी का था। कांग्रेस को राजद के खिलाफ खड़े किए गए अपने उम्मीदवारों को नाक रगड़ कर वापस लेना पड़ा और तेजस्वी के नाम की घोषणा भी करनी पड़ी। अपमान अलग से यह हुआ कि लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ जो उम्मीदवार खड़े किए थे उनमें से किसी का नाम वापस नहीं हुआ। कांग्रेस जिन 61 सीटों पर चुनाव लड़ रही है उन्हीं में से 10 सीटों पर दोस्ताना लड़ाई हो रही है। राजद की 143 में से सिर्फ दो सीट पर दोस्ताना लड़ाई है। लेकिन वह भी कांग्रेस के साथ नहीं वीआईपी के साथ। उसने कांग्रेस से उम्मीदवार वापस कराए, जबकि उसके उम्मीदवार कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे हैं। ऊपर से सीपीआई के साथ संबंध अलग बिगड़े। बिहार का लेनिनग्राद कहे जाने वाले बेगूसराय में सीपीआई की मजबूत बछवाड़ा सीट पर उम्मीदवार देकर कांग्रेस ने उसे ऐसा नाराज किया कि उसने कांग्रेस की जीती हुई सीट पर भी अपना उम्मीदवार उतार दिया और तमाम मान मनौव्वल के बाद भी नाम वापस नहीं लिया।
सोचें, जब लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव की हर बात मान ही लेनी थी तो अशोक गहलोत को भेजने की क्या जरुरत थी? वह काम तो कोई भी कर सकता था। मोलभाव या दबाव की राजनीति का मतलब होता है कि दोनों पक्ष कुछ कुछ समझौता करें। लेकिन यहां तो सारे समझौते कांग्रेस को करने पड़े! राजद ने कोई समझौता नहीं किया है। वह पिछली बार 144 सीटों पर लड़ी थी और इस बार 143 पर लड़ रही है। सीपीआई माले पिछली बार 19 पर लड़ी थी और इस बार 20 पर लड़ रही है। सीपीआई पिछली बार छह पर लड़ी थी तो इस बार नौ पर लड़ रही और सीपीएम पिछली बार चार पर लड़ी तो इस बार छह पर लड़ रही है। दूसरी ओर कांग्रेस पिछली बार 70 पर लड़ी थी और इस बार 61 पर लड़ रही है और उसमें भी 10 सीटों पर दोस्ताना लड़ाई है। यानी चौबे जी गए थे छब्बे जी बनने और दुबे जी बन कर आ गए।
असल में बिहार में कांग्रेस का कोई संगठन पिछले कई बरसों से नहीं है। पिछले सात साल में तो तीन अध्यक्ष और तीन प्रभारी बदले हैं लेकिन कांग्रेस का प्रदेश संगठन नहीं बना। कांग्रेस के पास कोई जातीय आधार नहीं है और न संगठन की मजबूती है। इस वास्तविकता को समझे बगैर राहुल गांधी ने बिहार में कांग्रेस के पुनरूत्थान का सपना पाला। सोशल मीडिया से भरी गई हवा से फुल कर कुप्पा हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस के वेतनभोगी कर्मचारी कृष्णा अल्लावरू को बिहार का प्रभारी बना कर भेजा। राहुल गांधी की ओर से इम्पावर्ड किए गए अल्लावारू ने पटना पहुंचते ही टकराव की राजनीति शुरू कर दी। उन्होंने कांग्रेस के तमाम पुराने नेताओं को हाशिए में डाल दिया और राजेश राम व शकील अहमद खान के सहारे दलित और मुस्लिम का समीकरण बैठाना शुरू कर दिया, जिसका कोई जमीनी आधार नहीं था। यह सही है कि कांग्रेस के वोट पर ही प्रादेशिक पार्टियों की राजनीति चल रही है लेकिन उनसे अपना वोट वापस हासिल करने के लिए कांग्रेस को पहले संगठन के स्तर पर मजबूत होना होगा। इस बुनियादी वास्तविकता को समझे बगैर राहुल गांधी और अल्लावरू ने यह सोच लिया कि दबाव डाल कर लालू प्रसाद से न सिर्फ अच्छी सीटें हासिल कर लेंगे, बल्कि इसी बहाने अपना वोट बैंक भी वापस पा लेंगे। कांग्रेस को इस प्रयास में जोर का झटका बहुत जोर से लगा है।
कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती अल्लावरू को प्रभारी बना कर भेजने की थी। अल्लावारू की जगह किसी राजनीति समझने वाले नेता को बिहार भेजा जाना चाहिए था, जो बारीकियों को समझता हो। मोटा मोटी सिद्धांत जानने और महत्वाकांक्षा पाल लेने से कुछ नहीं होता है। राजनीति की बारीकियों को समझने वालों को भी बिहार में राजनीति करने के लिए कुछ अतिरिक्त कौशल की जरुरत होती है। कांग्रेस ने अविनाश पांडे को देर से भेजा अगर वे पहले गए होते तो वे कांग्रेस की संगठनात्मक शक्ति, उम्मीदवारों की क्षमता और राजनीतिक नैरेटिव को समझ कर मोलभाव करते। अल्लावरू में वह समझ भी नहीं थे और वे लचीलापन भी नहीं ला पाए, जिसकी जरुरत थी। लालू परिवार ने उनकी इस कमजोरी को समझा और कांग्रेस को राजनीति को पंक्चर कर दिया। अल्लावरू और कुछ हद तक राहुल गांधी भी पप्पू यादव और कन्हैया कुमार के भरोसे लालू परिवार पर दबाव डाल पाने का भ्रम पाले रहे। इसका अंत नतीजा बहुत बुरा हुआ।
कांग्रेस ने समझा ही नहीं कि बिहार के तीन चौथाई जिलों में उसके पास संगठन के अच्छे नेता नहीं हैं और न अच्छे उम्मीदवार हैं। राजद को यह पता था कि कांग्रेस के पास अच्छे उम्मीदवार नहीं हैं। इसलिए उसने एक भी नई सीट कांग्रेस के लिए नहीं छोड़ी। अंत में दिखा कि कैसे कांग्रेस ने करीब डेढ़ दर्जन ऐसे उम्मीदवार चुनाव में उतारे, जो थोड़े दिन पहले तक भाजपा या जनता दल यू में थे। कई उम्मीदवार तो संघ की शाखा में जाने वाले थे। एक उम्मीदवार तो ऐसा उतारा, जिसने राहुल गांधी पर दर्जनों अपमानजनक पोस्ट सोशल मीडिया में डाले थे। विवाद बढ़ने पर उसकी उम्मीदवारी वापस ली गई। 60 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाली एक सीट पर जीते हुए विधायक की टिकट काट कर एक कमजोर उम्मीदवार को टिकट दिया गया, जिसका क्षेत्र में जबरदस्त विरोध हुआ। पिछली बार महज 113 वोट से हारे एक उम्मीदवार की टिकट काट दी गई, जिसकी सार्वजनिक रूप से शिकायत कटिहार के सांसद तारिक अनवर ने की। पैसे पर टिकट बेचे जाने के ऐसे ऐसे आरोप लगे, जैसे पहले कभी नहीं लगे थे। तभी चुनाव के अधबीच कृष्णा अल्लावरू के पर कतरे गए। उनको यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रभारी पद से हटाया गया और अविनाश पांडे को समन्वय के लिए भेजा गया।
कुल मिला कर कांग्रेस ने जो तेवर दिखाए और लालू प्रसाद को झुका कर कांग्रेस को स्थापित करने का जो दांव खेला वह बुरी तरह से पिट गया। जमीनी राजनीति और धारणा की राजनीति दोनों में कांग्रेस को नुकसान हुआ। साथ ही कांग्रेस ने समूचे महागठबंधन की संभावना को भी पलीता लगा दिया। पहले तो राहुल गांधी एकदम बिना मतलब का एसआईआर का मुद्दा लेकर बिहार में दो हफ्ते घूमे और उसके बाद जब राजनीति करने की बारी आई तो पता नहीं कहां लापता हो गए। उन्होंने राजनीति ऐसे नौसिखिया नेताओं के हाथ में दी, जिनको अपने क्षेत्र के बाहर कोई नहीं जानता था। अखिलेश प्रसाद सिंह, तारिक अनवर, मदन मोहन झा जैसे नेता शोपीस बना दिए गए और अल्लावरू, राजेश राम, शकील अहमद खान फैसले करते रहे!
