जब से जोहरान ममदानी न्यूयॉर्क के मेयर का चुनाव जीते हैं तब से अमेरिका से ज्यादा उनकी चर्चा भारत में हो रही है। भारत का राइट विंग इकोसिस्टम पूरी गंभीरता से और कुछ स्वतंत्र विश्लेषक मजाकिया अंदाज में बता रहे हैं कि आखिर ममदानी भी मुफ्त की रेवड़ी का वादा करके चुनाव जीत गए। उनका कहना है कि भारत और न्यूयॉर्क के लोगों में कुछ ज्यादा फर्क नहीं है। दूसरी ओर एक मुस्लिम महिला इन्फ्लूयएंसर इस बात से नाराज हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममदानी को उनकी जीत पर बधाई नहीं दी। सो, चाहे जिस कारण से हो ममदानी की खूब चर्चा है। भारत का मीडिया उनको भारतीय मूल का बताने पर तूला है, जबकि उन्होंने अमेरिका में अपने को युगांडा मूल का प्रवासी बताया है। अब सवाल है कि क्या सचमुच ममदानी के वादे और भारत की ‘मुफ्त की रेवड़ी’ एक ही जैसे हैं? पहली नजर में ये निश्चित रूप से एक जैसे दिखते हैं लेकिन इन दोनों में कुछ बारीक फर्क हैं।
दुर्भाग्य से भारत की पार्टियां और उनके नेता इस फर्क को समझने का प्रयास नहीं करेंगे। वे तो पहले से मान रहे हैं कि यह भारत का मॉडल है, जो न्यूयॉर्क में भी सफल साबित हुआ। न्यूयॉर्क में ममदानी की जीत उनको और प्रेरित करेगी कि वे बढ़ चढ़ कर वादे करें। उनको तो एक प्रेरणा की जरुरत होती है। जैसे इन दिनों राहुल गांधी को नेपाल की घटना से प्रेरणा मिली है। नेपाल के आंदोलन और तख्तापलट के बाद उन्होंने अपने हर भाषण में ‘जेन जी’ का जिक्र शुरू कर दिया है। नेपाल की घटना से पहले ध्यान नहीं आता है कि उन्होंने एक बार भी इस शब्द युग्म ‘जेन जी’ का प्रयोग किया हो। लेकिन उसके बाद उनका कोई भाषण नहीं है, जिसमें वे इसका प्रयोग नहीं करते हैं। उनको नेपाल से प्रेरणा मिल गई है। वे भारत में जाति, धर्म के विभाजन और वैचारिक, सांस्कृतिक विविधता को समझे बगैर ‘जेन जी’ को एक होमोजेनस यानी समरूप नागरिक वर्ग मान कर उसे आंदोलन के लिए प्रेरित करने में लगे हैं। इसमें कामयाबी मुमकिन नहीं है। उसी तरह से मुफ्त की घोषणाओं का भी मामला है। भारत में मुफ्त की सेवाओं और वस्तुओं की घोषणा चुनावी सफलता दिला रही है लेकिन उसके पीछे और भी कई कारण काम कर रहे होते हैं। बिना सोचे समझे ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने की घोषणा जीत नहीं दिला सकती है।
मिसाल के तौर पर बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने हर परिवार को एक सरकारी नौकरी देने का वादा किया। इस वादे पर संभवतः किसी को यकीन नहीं हुआ क्योंकि इसके पीछे कोई सुचिंतित आधार नहीं है। हां, उन्होंने महिलाओं के लिए ढाई हजार रुपए महीने की घोषणा की और चुनाव के बीच कहा कि वे 14 जनवरी को एक साथ पूरे साल के 30 हजार रुपए महिलाओं के खाते में डाल देंगे तो यह बात महिलाओं को अपील कर रही है। नीतीश कुमार की सरकार के 10 हजार के मुकाबले तेजस्वी के 30 हजार की चर्चा हो रही है। यह भी दिखाता है कि वादे ऐसे होने चाहिए, जिन पर लोग भरोसा कर सकें और दूसरे, उन वादों का लक्षित समूह होना चाहिए। याद करें कैसे पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस व विपक्ष का संविधान और आरक्षण बचाने का मुद्दा चला क्योंकि भाजपा के नेता चार सौ सीट पाकर संविधान बदलने की बात कर रहे थे लेकिन हर साल एक लाख रुपए खटाखट खाते में डालने का मुद्दा टांय टांय फिस्स हो गया।
असल में भारत में मुफ्त की रेवड़ी और ममदानी मॉडल का फर्क यह है कि भारत में भेड़चाल है। चांद, तारे तोड़ कर लाने के वादे हैं, जबकि ममदानी मॉडल लक्षित समूहों के लिए खास सुविधाओं की घोषणा का है और साथ ही वैचारिक व सांस्कृतिक प्रतिबद्धता का भी है। दुनिया में पब्लिक रिलेशन के जनक कहे जाने वाले एडवर्ड एल बार्नेस की थ्योरी है कि अगर आपके एक्शन में यानी आप जो करते हैं उसके पीछे नीतिगत तैयारी है तभी आपको अपने एक्शन का लाभ मिलेगा। इसे उदाहरण देकऱ उन्होंने समझाया कि अगर कोई नेता जनता के बीच किसी छोटे बच्चे को दुलार करता या उसको किस करता है तो उससे पहले उसके पास चाइल्ड केयर की कोई अच्छी नीति होनी चाहिए। यानी नीतिगत तैयारी के बगैर आप कोई रैंडम एक्ट करते हैं तो उससे ऑप्टिक्स तो बनता है, वोट नहीं बनते हैं। मिसाल के तौर पर बिहार में तेजस्वी यादव कहीं भी क्रिकेट बैट लेकर बल्लेबाजी करने लगते हैं या बैडमिंटन रैकेट लेकर खेलने उतर जाते हैं। अगर उनके पास कोई अच्छी स्पोर्ट्स पॉलिसी होती, जिसका ऐलान उनको करना होता तब तो इस तरह खेलना लाभ पहुंचाएगा अन्यथा इसका कोई मतलब नहीं है। इसी तरह अगर राहुल गांधी मत्स्य पालन की कोई नीतिगत घोषणा करके तालाब में मछली पकड़ने कूदते तो शायद ज्यादा लाभ होता।
बहरहाल, ममदानी के प्रचार अभियान में यही दिखा कि लक्षित समूहों को ध्यान में रख कर मुफ्त की चीजों की घोषणा की और उसका प्रत्यक्ष लाभ उनको मिला। उन्होंने बहुत सोच समझ कर रिहाइश, परिवहन और खाने पीने की चीजों को अपने चुनावी वादे के केंद्र में रखा। इसके लिए उनकी या डेमोक्रेटिक पार्टी की टीम ने व्यापक अध्ययन किया। उनके सामने यह आंकड़ा था कि पिछले कुछ वर्षों में न्यूयॉर्क में औसत किराया या हाउसिंग का खर्च 68 फीसदी बढ़ गया है। इसी तरह परिवहन और खाने पीने का औसत खर्च 56 फीसदी बढ़ा है। इन दोनों के बढ़ने का राष्ट्रीय औसत 40 फीसदी है। न्यूयॉर्क की एक दूसरी हकीकत यह है कि शेयर बाजार, निवेश या बैंकिंग सेक्टर में काम करने वालों की संख्या 16 से घट कर 13 फीसदी हो गई है, जबकि शिक्षक, नर्स, चाइल्ड केयर जैसे कम वेतन वाले काम में शामिल लोगों की आबादी 30 से बढ़ कर 40 फीसदी हो गई है। ऐसे ही न्यूयॉर्क में रहने वाले विदेश में जन्मे लोगों की आबादी एक चौथाई हो गई है। तभी ममदानी का वादा रिहाइश, परिवहन और खान पान को लेकर था।
इसका फायद यह हुआ कि लक्षित समूहों के बीच उनके वादों ने उत्साह पैदा किया। उनको लगा कि यह उनके जीवन और रहन सहन से जुड़ा वादा है। चुनाव नतीजों में भी यह परिलक्षित हुआ। ममदानी को ब्रूकलिन, मैनहटन और ब्रॉन्कस में 10 से 20 फीसदी तक की बढ़त मिली क्योंकि इन इलाकों में कम वेतन में काम करने और सरकारी सहायता पर निर्भर लोगों की आबादी ज्यादा है। दूसरी ओर निर्दलीय एंड्रूय कुओमो को अमीरों की बस्ती स्टैटन आईलैंड में 33 फीसदी की बढ़त मिली। अगर सोशल प्रोफाइलिंग के हिसाब से देखें तो एशियाई, हिस्पैनिक और अश्वेत लोगों में ममदानी को सबसे बड़ा समर्थन मिला। इससे साफ होता है कि ‘मुफ्त की रेवड़ी’ चुनाव जीतने का एक मंत्र है लेकिन उसका इस्तेमाल लक्षित समूहों के बीच, उन समूहों की जरुरतों के हिसाब से और यकीन दिलाने के अंदजा में करना होगा। इसके साथ ही वैचारिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी पकड़े रहना होगा।
