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आयोग और पार्टियों के लिए एसआईआर का सबक

मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर का काम अब पूरे देश में होने जा रहा है। चुनाव आयोग ने बिहार में इसका प्रयोग किया और उसके बाद पूरे देश में यह प्रक्रिया चलेगी। आयोग को सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के फैसले का इंतजार है। आठ सितंबर को आगे की सुनवाई होनी है। अभी तक की सुनवाई में चुनाव आयोग और बिहार में चल रहे एसआईआर को चुनौती देने वाले याचिककर्ताओं की दलीलों और सर्वोच्च अदालत के निर्देशों से बहुत सी बातें स्पष्ट हो गई हैं। इससे चुनाव आयोग को और साथ ही राजनीतिक दलों को भी सबक मिला है कि उनको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। बिहार का सबक उन राज्यों के लिए ज्यादा खास है, जहां अगले साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं।

पहला सबक, बिहार में हुए एसआईआर का पहला सबक टाइमिंग का है। बिहार में यह चुनावी साल है और समरी रिवीजन यानी संक्षिप्त पुनरीक्षण का काम पहले से चल रहा था। जनवरी 2025 में आयोग ने यह काम पूरा किया था। लेकिन उसके पांच महीने बाद अचानक 24 जून को आयोग ने अधिसूचना जारी करके स्पेशल इंटेसिव रिवीजन यानी एसआईआर शुरू कर दी और करीब आठ करोड़ मतदाताओं का पुनरीक्षण एक महीने के अंदर करने का फैसला किया। आयोग की मंशा पर सबसे ज्यादा सवाल इसी बात को लेकर उठा कि उसने अचानक क्यों घोषणा की और इतना कम समय क्यों दिया। सो, आगे जिन राज्यों में एसआईआर की प्रक्रिया होनी वहां आयोग को एसआईआर के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए।

दूसरा सबक, बिहार एसआईआर का दूसरा बड़ा सबक भी समय की अवधि से जुड़ा है लेकिन इसका ज्यादा संबंध काम की गुणवत्ता से है। आयोग ने एसआईआर की प्रक्रिया इसलिए शुरू की थी कि मतदाता सूची में विसंगतियां हैं और उनको दूर करने की जरुरत है। अच्छी बात है। लेकिन अगर एसआईआर के बाद भी विसंगति रह जाए तो उसको क्या कहा जाएगा? आयोग ने विसंगति दूर करने और मतदाता सूची की पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए एसआईआर की प्रक्रिया चलाई और उसके बाद भी हजारों, लाखों विसंगतियां रह गईं। ऐसा इसलिए हुआ कयोंकि जल्दबाजी में गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया गया। बूथ लेवल ऑफिसर्स यानी बीएलओ को बहुत कम समय दिया गया। उनके कामकाज की मॉनिटरिंग का प्रभावी सिस्टम नहीं बना। मतदाता पंजीकरण अधिकारी यानी ईआरओ और असिस्टेंट ईआरओ ने आंख मूंद कर बीएलओ की रिपोर्ट पर भरोसा किया। इसका नतीजा यह हुआ कि तमाम तरह की विसंगतियां मतदाता सूची में रह गईं। कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां तो 89 लाख विसंगतियों की बात कर रही हैं लेकिन  अगर इसका एक फीसदी यानी 89 हजार भी है तो क्यों है? इसी को ठीक करने के लिए तो एसआईआर हुआ!

तीसरा सबक, चुनाव आयोग और राजनीतिक दल दोनों के लिए है। यह सबक बूथ लेवल ऑफिसर्स यानी बीएलओ और बूथ लेवल एजेंट्स यानी बीएलए के प्रशिक्षण का है। यह प्रशिक्षण एसआईआर की प्रक्रिया और उसमें इस्तेमाल होने वाली तकनीक दोनों के लिए है। मतगणना प्रपत्र कैसे भरा जाना है और जरूरी दस्तावेज कैसे अपलोड किए जाने हैं, इसका प्रशिक्षण होना चाहिए। राहुल गांधी ने बेंगलुरू सेंट्रल लोकसभा सीट के तहत आने वाली महादेवपुरा विधानसभा सीट पर एक लाख वोट चोरी की जो बात कही थी उसमें उनका एक आरोप यह भी था कि सैकड़ों नाम के आगे फोटो इतनी छोटी थी कि उसे पहचाना ही नहीं जा सकता था। ऐसे में फर्जी वोटिंग की आशंका बढ़ती है। एसआईआर के बाद यह विसंगति नहीं रहे इसका ध्यान रखना चाहिए। इसी तरह एसआईआर के पहले चरण के बाद जो मसौदा मतदाता सूची जारी हुई है उसमें बहुत से लोगों के नाम छूट गए हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि परफेक्शन के साथ काम करने का न तो समय था और न बीएलओ व बीएलए के पास काम का प्रशिक्षण था।

चौथा सबक, चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के साथ सहमति बनानी चाहिए थी। एसआईआर से पहले अगर चुनाव आयोग बिहार के राजनीतिक दलों के साथ बैठक करके उनको एसआईआर के बारे में बताता, उनकी राय जानता, उनको बूथ लेवल एजेंट्स को प्रशिक्षित करने के लिए कहता तो शायद एसआईआर की घोषणा पर इतना विवाद नहीं होता। सोचें, चुनाव आयोग मतदान की तारीखों की घोषणा से पहले कई बार राज्यों का दौरा करता है, पार्टियों की राय जानता है, तीज त्योहार के कैलेंडर देखता है, खेती किसानी का समय देखता है लेकिन बिहार में एसआईआर के मामले में आयोग ने ऐसा कुछ नहीं किया। बिहार में धान रोपने का सीजन था और कई इलाके बाढ़ व बारिश से परेशान थे, उसी बीच आयोग ने बिना कोई सहमति बनाए एसआईआर की घोषणा कर दी। हालांकि चुनाव आयोग ने भले सहमति नहीं बनाई थी लेकिन एक गलती कर दी थी। बिहार की पार्टियों के साथ बैठक में आय़ोग ने कह दिया था कि बिहार में 20 फीसदी नाम कटना चाहिए। इससे पार्टियां अलर्ट हो गई थीं। बिहार की पार्टियों का कहना है कि उनके अलर्ट होने की वजह से सिर्फ आठ फीसदी के करीब यानी 65 लाख नाम कटे अन्यथा एक करोड़ 60 लाख नाम कट सकते थे।

पांचवां सबक, यह एसआईआर की प्रक्रिया से जुड़ा है। एसआईआर की प्रक्रिया बहुत कामचलाऊ और गैरपेशेवराना थी। इससे भी चुनाव आयोग की साख प्रभावित हुई। यह 2003 का जमाना नहीं है, जब एसआईआर जैसे तैसे कर दिया गया। अब हर व्यक्ति के हाथ में मोबाइल है और अपने को अभिव्यक्त करने का प्लेटफॉर्म है। सो, चारों तरफ से खबरें और तस्वीरें आने लगीं कि कैसे कैजुअल तरीके से बीएलओ काम कर रहे हैं। इससे चुनाव आयोग का मजाक बन गया।

छठा सबक, चुनाव आयोग को पेशेवर तरीके से मतदाता सूची का पुनरीक्षण करना था। लेकिन उससे पहले ही आयोग ने सूत्रों के हवाले से नैरेटिव बनाने का जो प्रयास किया वह बैकफायर कर गया। चुनाव आयोग के सूत्रों के हवालों से कहा गया कि बूथ लेवल ऑफिसर्स को बड़ी संख्या में बांग्लादेशी, रोहिंग्या और नेपाली मिले हैं, जो बिहार के मतदाता बन गए हैं। लेकिन पहला चरण पूरा होने के बाद जो मसौदा सूची आई उसमें अपवाद के लिए भी कोई बांग्लादेशी, रोहिंग्या या नेपाली नहीं मिला। सो, यह आयोग के लिए बड़ा सबक है कि घुसपैठियों का नैरेटिव बनाना भाजपा या किसी और राजनीतिक दल का एजेंडा हो सकता है, चुनाव आयोग का यह एजेंडा नहीं होना चाहिए।

सातवां सबक, यह सबसे अहम है क्योंकि यह नीतिगत मामलों से जुड़ा है। इसमें दो बातें अहम हैं। पहली बात प्रक्रिया की है और दूसरी सत्यापन के दस्तावेजों की है। चुनाव आयोग ने बिहार में नाम काटने की तीन श्रेणी बनाई। पहली, जिनकी मृत्यु हो गई है। इस श्रेणी में 22 लाख लोगों के नाम कटे। दूसरी, जो स्थायी रूप से शिफ्ट हो गए हैं। इसमें 37 लाख लोगों के नाम कटे। और तीसरी जिनके नाम एक से ज्यादा जगह पर हैं। इसमें करीब छह लाख नाम हैं। अगर प्रक्रिया ठीक होती तो यह शिकायत नहीं आती कि मृत लोगों के नाम अब भी सूची में मिल रहे हैं और जीवित लोगों को मृत बना कर नाम काट दिया गया। सबसे ज्यादा शिकायत दूसरी श्रेणी को लेकर है। कहा गया कि बीएलओ एक घर में तीन बार जाएगा और अगर मतदाता नहीं मिला तो उसका नाम काट दिया जाएगा। बिहार जैसे सर्वाधिक प्रवासन वाले राज्य के लिए यह बहुत गलत था। अव्वल तो बीएलओ तीन बार देखने नहीं गए और अगर गए भी तो यह नाम काटने का आधार नहीं हो सकता है। अपने घर से बाहर दूसरे जिले या दूसरे राज्य में काम कर रहे बिहार के ज्यादातर प्रवासी अपने घर से जुड़े हैं। कोरोना संकट में यह दिखा कि लाखों की संख्या में लोग लौट कर घर गए। वे हमेशा लौटते हैं। तभी माना जा रहा है कि इस श्रेणी में 37 लाख में से 25 लाख से ज्यादा नाम गलत कटे हैं। जहां तक एक से ज्यादा जगह नाम का सवाल है तो वह एसआईआर के बाद भी सामने आ रहा है।

अब रही नीतिगत मामले की बात तो उसमें सबसे अहम सत्यापन वाले दस्तावेजों का मामला है। आयोग ने 11 दस्तावेज निर्धारित किए, जिनमें आधार, वोटर आईकार्ड और मनरेगा कार्ड नहीं था। सुप्रीम कोर्ट में ने अंततः आधार को स्वीकार करने का आदेश दिया। चुनाव आयोग के लिए सबक है कि वह नागरिकता का सत्यापन करने की बजाय मतदाता का सत्यापन करे, नाम काटने की बजाय एसआईआर को नाम काटने और जोड़ने दोनों का अभियान बनाए और सत्यापन को मुश्किल बनाने की बजाय इसे आसान बनाए। दूसरी जरूरी बात यह है कि ऑर्डिनरी और परमानेंट रेजिडेंट्स की परिभाषा ठीक करे। बिहार में अनेक लोगों के नाम इस आधार पर काटे गए कि वे बताए गए पते के सामान्य रहवासी नहीं हैं यानी वहां से शिफ्ट कर गए हैं। लेकिन असल में वह उसी पते का रहवासी होता है, जो हर मौके पर वहां लौटता है। उसको यह विकल्प दिया जाना चाहिए कि वह वहां का मतदाता रहना चाहता है या नाम कटवाना चाहता है।

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