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विपक्ष की कहानी में कितना दम?

पहले एक चुटकुले से शुरुआत करते हैं, फिर महान लेखक कृश्नचंदर की किताब ‘एक गधे की आत्मकथा’ का एक संदर्भ और तब राहुल गांधी और विपक्ष की ओर से मतदाता सूची के पुनरीक्षण के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन की चर्चा करेंगे। चुटकुला ऐसे हैः एक व्यक्ति वोट डालने जाता है। वोट डाल कर मतदान करा रहे अधिकारी से पूछता है- देखना मेरी पत्नी आशा देवी वोट डाल कर चली गईं? महिला अधिकारी सूची देख कर कहती है- हां, एक घंटे पहले ही वोट डाल कर चली गईं। व्यक्ति आह भरते हुए कहता है- इसका मतलब है कि एक घंटे पहले आते तो भेंट हो जाती। अधिकारी हंसती है और पूछती है- मजाक कर रहे हैं, क्या घर में आप लोगों की भेंट नहीं होती है? व्यक्ति कहता है- मेरी पत्नी को मरे हुए 15 साल हो गए लेकिन हर बार हमसे एक घंटा पहले आकर वोट डाल जाती है! यह एक व्यंग्य है, जो हम लोग कई दशकों से सुन और सुना रहे हैं। इसका मतलब है कि मतदाता सूची में मृत लोगों के नाम होते हैं और उनका वोट कोई और डालता है। यह प्रक्रिया आजादी के बाद से ही चल रही है।

भारत की चुनाव व्यवस्था पर तंज करने वाला यह व्यंग्य इसलिए याद आया क्योंकि पिछले दिनों राहुल गांधी बिहार के कुछ ऐसे लोगों से मिले, जिन्हें मृत बता कर उनका नाम मतदाता सूची से काट दिया गया है। उन्होंने सोशल मीडिया में लिखा, मृत व्यक्तियों के साथ चाय पीकर बहुत मजा आया। सवाल है कि जब मृत व्यक्ति वोट डाल सकता है तो जीवित व्यक्ति को मृत बता कर उसका नाम काट देना कौन सी बड़ी बात है? उनको कुछ समय पहले बनी ‘कागज’ फिल्म देखनी चाहिए। सतीश कौशिक निर्देशित और पंकज त्रिपाठी के बेहतरीन अभिनय वाली इस फिल्म में एक मृत घोषित कर दिया गया व्यक्ति अपने को जीवित साबित करने के लिए संघर्ष करता है। यह कहानी जिस घटना पर आधारित है वह दशकों पुरानी, तब देश में कांग्रेस का ही शासन होता था। देश के कई राज्यों में शासन की व्यवस्था जीवित लोगों को मृत घोषित कर देती है और उसके बाद वे अपने को जीवित साबित करने के लिए बरसों संघर्ष करते हैं। लगता है इस तरह की कहानियां भी राहुल गांधी ने नहीं सुनी हैं। तभी वे ऐसे लोगों से मिल कर आश्चर्यचकित हो रहे थे, जिनको मृत बता कर मतदाता सूची से हटा दिया गया है। उनका आश्चर्य ऐसे बच्चे की तरह है, जिसको अभी आंखों की रोशनी मिली हो और वह ट्रेन देख कर विस्मित हो रहा हो!

बहरहाल, महान लेखक कृश्नचंदर की चर्चित किताब है ‘एक गधे की आत्मकथा’। इसमें गधा पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मिलता है। उससे पहले वह उनकी सरकार के कुछ और मंत्रियों से भी मिलता है। उससे पहले उसकी मुलाकात दिल्ली के एक इलाके के थानेदार से होती है। थानेदार इस पर आश्चर्यचकित होता है कि गधा इंसानों की तरह बोल रहा है। वह कहता है कि उसने बहुत सारे इंसानों को तो गधों की तरह बोलते सुना है लेकिन पहली बार किसी गधे को इंसानों की तरह बोलते सुन रहा है। कहने का मतलब है कि गधा आदमी की तरह बोले तो आश्चर्य होता है लेकिन आदमी गधों की तरह बोलें, को कोई फर्क नहीं पड़ता है। राहुल गांधी का आश्चर्य उसी तरह का है। यानी मृत लोग जीवित लोगों की तरह मतदान करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है लेकिन जीवित लोगों को मृत बता कर वोट काट दिया जाए तो वह बड़े आश्चर्य की बात है!

राहुल गांधी से लेकर योगेंद्र यादव और सुप्रीम कोर्ट के माननीय जज इस बात पर ऐसे हैरान हो रहे थे, जैसे यह कोई अनहोनी बात हो। असल में यह कोई अनहोनी बात नहीं है। मतदाता सूची में ऐसी खामियां होती हैं और यह व्यवस्था की वजह से होती है। चुनाव आयुक्त इसके लिए खासतौर से निर्देश नहीं जारी करते हैं। वैसे ही जैसे कई राज्यों में जीवित लोगों के नाम पेंशन की सूची से कट जाता है और वे भागदौड़ करते रहते हैं अपने को जीवित साबित करने के लिए। इसके लिए भी कहीं ऊपर से निर्देश नहीं आता है। सोचें, कोई 15 साल पहले जब आधार कार्ड बनना शुरू हुआ था तो बिहार में शाहरूख खान और सलमान खान के भी आधार कार्ड बन गए। क्या यूआईडीएआई के तत्कालीन प्रमुख नंदन नीलेकणी ने इसके लिए निर्देश दिए होंगे! एक समय बिहार में अभिनेत्री ममता कुलकर्णी का वोटर कार्ड भी बन गया था तो क्या तत्कालीन चुनाव आयुक्त ने इसके लिए निर्देश भेजा होगा? ऐसे ही बिहार में लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम के प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण का ड्राइविंग लाइसेंस बन गया था। तो क्या बिहार के परिवहन मंत्री या परिवहन सचिव ने नीचे आदेश देकर प्रभाकरण का लाइसेंस बनवाया? असल में यह व्यवस्था की खामी है कि कुछ जीवित लोगों के नाम मतदाता सूची से कट जाते हैं तो कुछ मृत व्यक्तियों के नाम सूची में रह जाते है या किसी के पिता का या पति का नाम गलत हो जाता है। यह काम चुनाव आयुक्त निर्देश देकर नहीं कराते हैं। बिहार में एसआईआर के पहले चरण के बाद जितनी शिकायतें सामने आई हैं उनको देख कर यही लग रहा है कि नीचे के कर्मचारियों की लापरवाही से कुछ गड़बड़ियां हुई हैं। ध्यान रहे एक सितंबर से 18 सितंबर के बीच सिर्फ 45 हजार शिकायतें आयोग को मिली हैं। यह काटे गए 65 लाख नामों के एक फीसदी से भी कम है।

तभी कुल मिला कर विपक्ष की कहानी में दम नहीं दिख रहा है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर में दुनिया भर की गड़बड़ियां हुई हैं। बूथ लेवल अधिकारियों ने घर में बैठ कर मनमाने तरीके से फॉर्म भरे हैं और उन्हें जमा करा दिया है। लेकिन क्या पहले भी इसी तरह से मतदाता सूची नहीं बनती थी? क्या पहले इसी तरह से आधार नहीं बने हैं, क्या इसी तरह से जनगणना नहीं होती है और क्या इसी तरह से बिहार में जाति गणना के फॉर्म नहीं भरे गए थे? बिहार या कहीं के लोगों को इससे कोई मतलब नहीं है कि प्रक्रिया क्या रही। अंत नतीजा यह है कि सवा सात करोड़ लोगों के नाम मतदाता सूची में दर्ज हैं। अब उनको इस बात से कोई मतलब नहीं है कि कैसे किसका नाम आया और कैसे किसका नाम कट गया। अगर 65 लाख लोगों के नाम कटे हैं, जिनमें कुछ नाम गलत तरीके से कट गए हैं तो उनसे भी बाकी लोगों को कोई मतलब नहीं है। उनके पास समय भी है कि वे फॉर्म छह भर कर अपना नाम मतदाता सूची में जुड़वा सकते हैं।

लेकिन विपक्षी पार्टियों को क्या कहा जाए? उनको लगता है कि बिहार आंदोलन की धरती है तो किसी भी बात पर आंदोलन हो जाएगा। ऐसे नहीं होता है। आंदोलन के लिए मुद्दा भी होना चाहिए और नेता भी जरूरी है। इस बार दोनों नहीं हैं। हर हार के बाद राहुल गांधी और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेता कभी ईवीएम को दोष देते हैं तो कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी को तो कभी चुनाव आयोग की धांधली को। इसमें भी समस्या नहीं है। विपक्ष को ऐसे आरोप लगाने चाहिए। लेकिन मुश्किल तब होती है, जब विपक्षी पार्टियां सचमुच मानने लगती हैं कि वे किसी धांधली या गड़बड़ी से हारी हैं और अगर गड़बड़ी नहीं होती तो वे चुनाव जीत जाते। क्या सचमुच विपक्ष की हार का मामला इतना सरल है? हो सकता है कि कुछ गड़बड़ियां होती हों लेकिन विपक्ष की हार उसकी अपनी कमियों के कारण हैं और भाजपा की जीत सिर्फ चुनावी धांधली की वजह से नहीं है। जहां तक व्यवस्था में गड़बड़ी का सवाल है तो उस मामले में कांग्रेस का रिकॉर्ड बहुत ज्यादा खराब है। इस पर कल चर्चा करेंगे। (जारी)

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