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नैतिकता अब है कहां जो नेता इस्तीफा दे!

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याद नहीं आ रहा है कि नैतिकता के आधार पर आखिरी बार किसी नेता या लोक सेवक का इस्तीफा कब हुआ था। मौजूदा राजनीतिक बिरादरी में नीतीश कुमार संभवतः इकलौते नेता हैं, जिन्होंने प्रशासनिक नैतिकता के आधार पर रेल मंत्री पद से इस्तीफा दिया था और राजनीतिक नैतिकता के आधार पर बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। हालांकि दोनों बार उन्होंने वापसी की और नैतिकता को ताक पर रख कर केंद्रीय मंत्री भी बने और मुख्यमंत्री भी बने। फिर भी थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन उन्होंने इस्तीफा दिया। अब तो किसी तरह की नैतिकता का कोई तकाजा नहीं है। अब या तो मजबूरी में इस्तीफा होता है या राजनीतिक जरुरत के हिसाब से इस्तीफे का दांव चला जाता है। जैसे झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जेल गए तो उन्होंने मजबूरी मान कर इस्तीफा दिया और अरविंद केजरीवाल जेल से बाहर निकले तो चुनावी राजनीति साधने के लिए इस्तीफे का दांव चला।

यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि केजरीवाल ने किसी नैतिकता या मजबूरी के तहत इस्तीफा दिया है। अगर नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देना होता तो शराब नीति में हुए कथित घोटाले और उससे जुड़े धन शोधन के मामले में नाम आने के बाद ही वे इस्तीफा दे देते। ऐलान कर देते कि इस मामले से पाक साफ होकर निकलने के बाद ही वे मुख्यमंत्री का पद लेंगे। जैसे जैन हवाला डायरी में नाम आने के बाद मदनलाल खुराना ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव जैसे नेताओं ने संसद से इस्तीफा दिया था। लेकिन घोटाले में नाम आने के बाद केजरीवाल ने इस्तीफा नहीं दिया। इतना ही नहीं, जब वे गिरफ्तार होकर जेल चले गए तब भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। कानून के लूपहोल्स का इस्तेमाल करके मुख्यमंत्री बने रहे। मुख्यमंत्री के जेल में रहने से दिल्ली में कामकाज ठप्प रहा या उसकी रफ्तार धीमी हुई लेकिन केजरीवाल ने इस्तीफा नहीं दिया।

केजरीवाल और उनकी पार्टी ने नैतिकता के नए मानक गढ़ दिए हैं। जेल से छूटने के बाद उन्होंने सभी विपक्षी पार्टियों को नसीहत देते हुए कहा कि अगर केंद्रीय एजेंसियां उनके खिलाफ कार्रवाई करती हैं और उन्हें गिरफ्तार करती हैं तो उनको इस्तीफा देने की जरुरत नहीं है। यह केंद्र सरकार और उसकी एजेंसियों की साख खराब करने का प्रयास तो है ही साथ ही राजनीति की आड़ में भ्रष्टाचार और अपराध को न्यायसंगत ठहराने का भी प्रयास है। हो सकता है कि कुछ मामलों में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई भेदभाव वाली हो। हो सकता है कि विपक्षी पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई में तेजी आई हो और सत्तारूढ़ दल के नेताओं को बचाया जा रहा हो लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि विपक्ष के नेताओं के ऊपर जितने भी आरोप लगे हैं सारे गलत हैं या फर्जी हैं।

इसी तरह यह भी सही है कि सत्तापक्ष यानी भाजपा के नेता भी भ्रष्ट हो सकते हैं, जिनके खिलाफ केंद्रीय एजेंसियां कार्रवाई नहीं कर रही हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि विपक्ष के जिन नेताओं पर आरोप लगे हैं वे सारे लोग पाक साफ, ईमानदार और नैतिकता वाले हैं। इसके उलट ज्यादातर मामले ऐसे हैं, जिनकी शुरुआत 2014 से पहले हुई है। यानी नरेंद्र मोदी की सरकार ने मुकदमा नहीं किया। उनकी सरकार में केंद्रीय एजेंसियों ने जांच तेज करके कार्रवाई की। तो क्या केजरीवाल औरर दूसरी विपक्षी पार्टियां चाहती हैं कि एजेंसियां कार्रवाई न करें या मामले को दबाए रखें? अगर वे मामले को दबाए रखती हैं या विपक्ष के नेताओं को क्लीन चिट दे देती हैं तभी उनको निष्पक्ष माना जाएगा? और अगर कार्रवाई करती हैं तो उनको सरकार का पिट्ठू कहा जाएगा? यह क्या तर्क हुआ? भाजपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है इसलिए कांग्रेस, सपा, राजद, जेएमएम, डीएमके, टीएमसी या आप के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए, यह बेसिरपैर की बात होगी।

बहरहाल, विपक्षी पार्टियों और खास कर केजरीवाल के नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे एक सिद्धांत के तौर पर स्थापित किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने जैसे 75 साल की उम्र में रिटायर होने का अघोषित नियम बनाया था उसी तरह उन्होंने किसी भी तरह के आरोप लगने पर इस्तीफा नहीं कराने का नियम बनाया। इसकी पहली परीक्षा राजस्थान के तत्कालीन सांसद निहालचंद के मामले में हुई। उनके ऊपर दो साल से बलात्कार का मामला चल रहा था। फिर भी मोदी ने उनको अपनी सरकार में मंत्री बनाया और नोटिस जारी होने के बाद भी उनका इस्तीफा नहीं कराया। वे बलात्कार के आरोप के बावजूद लंबे समय तक मंत्री बने रहे। फिर उसके बाद यह परंपरा बन गई। प्रधानमंत्री मोदी ने यह मैसेज दिया कि उनकी सरकार में जो भी है, चाहे वह नेता हो या अधिकारी, वह तमाम किस्म के आरोपों से ऊपर है और पवित्र है। उसके ऊपर कितने भी संगीन आरोप लगें वह इस्तीफा नहीं देगा। इस्तीफा नहीं लेने की यह परंपरा अब भी कायम है।

भारतीय शेयर बाजार का नियमन करने वाली संस्था सेबी की प्रमुख माधवी पुरी बुच इसी परंपरा का हिस्सा हैं। उनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने अडानी हिंडनबर्ग मामले में जिन कंपनियों की जांच की उन्हीं में से एक कंपनी में उनका भी निवेश था। हिंडनबर्ग ने इसका खुलासा किया। लेकिन माधवी पुरी का इस्तीफा नहीं हुआ। फिर खुलासा हुआ कि सेबी की पूर्णकालिक सदस्य और बाद में अध्यक्ष बन जाने के बाद भी उन्होंने अपनी पुरानी नियोक्ता कंपनी आईसीआईसीआई से करोड़ों रुपए लिए। तब भी उनका इस्तीफा नहीं हुआ। फिर खुलासा हुआ कि शेयर बाजार में सूचीबद्ध एक कंपनी ने उनके पति धवल बुच का व्यावसायिक परिसर किराए पर लिया और उनको करोड़ों रुपए का भुगतान हुआ। फिर एक और बड़ी कंपनी से इस परिवार को पैसे मिलने का खुलासा हुआ। लेकिन तमाम खुलासों के बावजूद माधवी पुरी बुच का इस्तीफा नहीं हुआ। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मोदी सरकार ने नियम बना दिया है कि उनका कोई भी नेता या अधिकारी भ्रष्ट, बेईमान या निकम्मा हो ही नहीं सकता है। इसलिए कितना भी गंभीर आरोप लगे उस पर इस्तीफा नहीं देना है।

इसी तरह महाराष्ट्र की तत्कालीन महा विकास अघाड़ी की सरकार ने काफी समय तक जेल में बंद नवाब मलिक और अनिल देशमुख का इस्तीफा नहीं कराया था। तृणमूल कांग्रेस ने कई नेताओं के जेल में बंद होने के बाद भी काफी समय तक इस्तीफा नहीं कराया। तमिलनाडु में डीएमके ने सेंथिल बालाजी का इस्तीफा भी गिरफ्तारी के बहुत बाद में कराया। असल में नरेंद्र मोदी के बनाए सिद्धांत को विपक्षी पार्टियों ने अपने हिसाब से अपनाने का फैसला किया है। उन्होंने भी तय कर लिया है कि केंद्रीय एजेंसियां चाहे कितने भी गंभीर आरोप लगाएं और आरोप बेशक सच हों लेकिन उसको गलत ठहराना है और एजेंसियों की कार्रवाई को राजनीतिक बदलने की कार्रवाई बताना है। पक्ष और विपक्ष दोनों एक ही सिद्धांत पर चल रहे हैं और थोड़े दिन तक हैरत में रहने के बाद नागरिकों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है। पक्ष और विपक्ष में ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक विभाजन है। दोनों के अपने अपने समर्थक हैं, जो अपने अपने पक्ष को सही मानते हैं। विभाजन इतना गहरा हो गया है कि राजनीतिक नैतिकता के घनघोर उल्लंघन को भी पार्टियों के समर्थक सही मान रहे हैं और इसी से पार्टियों का ताकत मिल रही है कि वे राजनीतिक परंपरा और नैतिकता को न मानें।

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