कठोपनिषद में मनुष्य शरीर को रथ कहा गया है — आत्मा रथ का स्वामी, बुद्धि सारथी, मन लगाम, इन्द्रियाँ घोड़े। इन्द्रियों के विषय मार्ग हैं। आत्मा तभी अपने लक्ष्य तक पहुँचेगी, जब बुद्धि मन को वश में रखकर इन्द्रियों को सही मार्ग पर चलाएगी। आत्मा के बिना शरीर “अरथी” हो जाता है। लेकिन लोग आत्मा और शरीर को एक मानकर भटकते हैं, जिससे संसार में अशांति और समस्याएँ बढ़ती हैं।
आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझना ही अध्यात्मवाद है। ये दोनों भौतिक पदार्थ नहीं हैं, इसलिए इन्हें आँख से देखा, कान से सुना, नाक से सूँघा, जीभ से चखा या त्वचा से छुआ नहीं जा सकता। परमात्मा एक ही है, अनेक नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि उसी एक ईश्वर के अलग-अलग नाम हैं।
ऋग्वेद में कहा गया है — “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति” — अर्थात एक ही परमात्मा को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। संसार में जितने जीव हैं, उतनी ही आत्माएँ भी हैं।
न्याय दर्शन के अनुसार ज्ञान, प्रयत्न, इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख — ये छह गुण जहाँ हों, वहाँ आत्मा है। ज्ञान और प्रयत्न उसके स्वाभाविक गुण हैं, जबकि बाकी चार गुण शरीर के मेल से आते हैं। आत्मा के कारण ही शरीर जीवित और सक्रिय है; आत्मा निकल जाए तो शरीर मृत हो जाता है। जैसे संसार परमात्मा की उपस्थिति से प्रकाशित है, वैसे ही शरीर आत्मा से। आत्मा और परमात्मा दोनों ही अजन्मा और अनंत हैं — न ये कभी पैदा होते हैं, न मरते हैं। इनका कोई बनाने वाला नहीं। आत्मा, परमात्मा का अंश नहीं बल्कि स्वतंत्र सत्ता है। आत्मा सूक्ष्म है, परमात्मा सर्वव्यापक। आत्मा का ज्ञान सीमित, परमात्मा सर्वज्ञ — वह भूत, वर्तमान और भविष्य सब जानता है। वह अन्तर्यामी है, सबके मन की बातें जानता है। आत्मा की शक्ति सीमित, परमात्मा सर्वशक्तिमान — सृष्टि की रचना, पालन और प्रलय करने में सक्षम। ईश्वर अपने कार्य इच्छा मात्र से करता है, क्योंकि उसके हाथ-पाँव जैसे अंग नहीं हैं। वह आनंदस्वरूप, राग-द्वेष और काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार से परे है। जैसे सर्दी में अग्नि के पास जाने से सुख मिलता है, वैसे ही ईश्वर की उपासना से आनंद। ईश्वर निराकार है, और शुद्ध मन से ही जाना जा सकता है।
जब आत्मा मनुष्य शरीर में रहती है, तो उसे कर्म करने की स्वतंत्रता होती है। कर्मों के अनुसार परमात्मा सुख, दुःख और अगला जन्म देता है। अन्य योनियाँ अपने स्वभाव या आदेश से चलती हैं, उनमें विचार शक्ति नहीं, इसलिए उनके कर्मों का फल नहीं मिलता — वे केवल भोग योनि हैं। मनुष्य योनि में कर्म और भोग दोनों का मिश्रण है। श्वेताश्वेतर उपनिषद में कहा गया है — “मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं। शरीर तो संसार में व्यवहार का साधन है, कर्ता और भोक्ता आत्मा है।” आत्मा न स्त्री है, न पुरुष, न नपुंसक; जैसा शरीर पाती है, वैसा कहलाती है। ईश्वर की पूजा सेवा-सत्कार से नहीं, बल्कि उसकी आज्ञा का पालन — सत्य और न्याय के आचरण — से होती है।
कठोपनिषद में मनुष्य शरीर को रथ कहा गया है — आत्मा रथ का स्वामी, बुद्धि सारथी, मन लगाम, इन्द्रियाँ घोड़े। इन्द्रियों के विषय मार्ग हैं। आत्मा तभी अपने लक्ष्य तक पहुँचेगी, जब बुद्धि मन को वश में रखकर इन्द्रियों को सही मार्ग पर चलाएगी। आत्मा के बिना शरीर “अरथी” हो जाता है। लेकिन लोग आत्मा और शरीर को एक मानकर भटकते हैं, जिससे संसार में अशांति और समस्याएँ बढ़ती हैं। आत्मा के स्वरूप को जान लेने पर व्यक्ति परमात्मा को पहचानने की कोशिश करता है। वेद, उपनिषद और योग-सांख्य-वेदान्त से ईश्वर का सही ज्ञान मिलने पर वैराग्य आता है, जो ज्ञान की पराकाष्ठा है। इसी अवस्था में अध्यात्म और ईश्वर-भक्ति से जीवन सुखी और आनंदपूर्ण बनता है।
आत्मा का गहरा संबंध हर प्राणी से है, क्योंकि वह चेतन है — सुख-दुःख महसूस करती है, जिज्ञासा रखती है और कर्म करने की क्षमता रखती है। इसके विपरीत, जड़ पदार्थ में न सुख-दुःख की अनुभूति होती है, न ज्ञान, न उद्देश्यपूर्ण क्रिया। सभी भौतिक पदार्थ जड़ हैं, और शरीर भी उन्हीं से बना है। हम जो भोजन करते हैं, उसी से शरीर बनता और चलता है। शरीर का निर्माण ईश्वर के विधान से होता है। किसी अंग के काम न करने पर भी शरीर किसी तरह चलता है — पैर न हो तो हाथ से सहारा ले लेते हैं, आँख न हो तो अन्य इन्द्रियों से काम चलाते हैं। पर आत्मा निकल जाए तो शरीर कुछ नहीं कर सकता।
जीवात्मा चेतन है, शरीर जड़। विज्ञान ने शरीर को जान लिया है, पर आत्मा का ज्ञान होते हुए भी लोग अपने स्वभाव और सांसारिक आकर्षणों से भ्रमित रहते हैं, जिसका परिणाम सुख-दुःख और मृत्यु है। आत्मा किसी भौतिक पदार्थ से बनी नहीं, वह अनादि और अविनाशी है। दर्शन कहता है — भाव से भाव उत्पन्न होता है, अभाव से नहीं। इसलिए आत्मा का नाश संभव नहीं। शरीर मरता है, आत्मा नहीं। वह अपने कर्मों के अनुसार दूसरी योनि में जन्म लेती है। जन्म और मृत्यु का यह नियम शाश्वत है। पर लोग जीवन भर इससे अनजान रहते हैं। इसलिए जन्म-मरण के सत्य को समझकर, मृत्यु की याद रखकर, और आत्मा के ज्ञान से ईश्वर को जानकर उसकी प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए।
सदाचार से मृत्यु के दुःख पर विजय पाई जा सकती है। मृत्यु का ज्ञान हमें मोह और अहंकार त्यागने की प्रेरणा देता है। बुरे कर्मों से बचना चाहिए, क्योंकि सर्वव्यापक परमात्मा हर कर्म का हिसाब रखता है और उसका उचित फल अवश्य देता है। आत्मा निराकार, अल्पशक्ति और अल्पज्ञ है, पर अनादि और अमर है। वह जन्म-मरण के चक्र में रहती है, और इससे मुक्ति का ज्ञान स्वाध्याय, मनन और सच्चे गुरु के उपदेश से मिलता है।