अमेरिका जिन देशों (भारत सहित) की प्रतिष्ठा पर स्वयंभू लोकतंत्र, मानवाधिकार और नैतिकता की दुहाई देता रहा था, उनकी कीमत पर वह उस बदहाल और आतंकवाद के कारखाने पाकिस्तान को तरजीह दे रहा है, जिसने 9/11 के साजिशकर्ता ओसामा बिन लादेन को पनाह दी और उसकी आर्थिक मदद से जिहादी शक्तियों को पुष्ट किया। ऐसे विरोधाभासों के बीच क्या अमेरिका लंबे समय तक ‘सुपरपॉवर’ बना रह पाएगा?
अमेरिका का क्या पतन शुरू हो गया है? यह कोई जुमला या महज कोरी बातें नहीं, बल्कि इतिहास का वह कालचक्र है, जिसमें एक निर्णायक मोड़ के बाद बड़े से बड़े साम्राज्यों का पतन हो गया। चाहे वह फारसी हखामनी साम्राज्य (550–330 ईसा पूर्व) हो या इस्लामी मुगलकाल (1526-1707)— सबका खात्मा हुआ है। दूसरे विश्वयुद्ध और भारतीय उपमहाद्वीप से रुखसती के बाद ब्रिटिश साम्राज्य का परचम भी ढह गया था। उस समय अमेरिका द्वारा दिए गए $3.75 बिलियन— यानि आज के दौर में ₹5 लाख करोड़ से भी अधिक— के कर्ज पर ब्रिटेन अपने खोखलेपन को छिपाने की कोशिश कर रहा था।
लगभग यही स्थिति आज अमेरिका की भी हो गई है। अमेरिकी कोषागार विभाग की मानें, तो अमेरिका पर वर्ष 2019 तक करीब 27 ट्रिलियन डॉलर का कर्ज था, जो अगस्त 2025 में बढ़कर 37 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है। यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था (जीडीपी) के कुल आकार लगभग 30 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है। इसलिए संदेह पैदा होता है कि क्या राष्ट्रपति ट्रंप दुनिया के बाकी देशों पर बेतुका टैरिफ लगाकर अपने देश का कर्ज उतारना चाह रहे है?
वर्ष 1945 के बाद दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई— एक तरफ अमेरिका और दूसरी तरफ सोवियत संघ। अमेरिका ने खुद को मानवाधिकार, मुक्त-व्यापार और लोकतंत्र का सबसे बड़ा रखवाला बताना शुरू कर दिया। दुनियाभर के काबिल उद्यमी बेहतर भविष्य की तलाश में अमेरिका भागने लगे। जिन वैज्ञानिकों ने अमेरिका में पहला परमाणु परीक्षण “ट्रिनिटी टेस्ट” किया, उनमें से कई जन्म से अमेरिकी नहीं थे। विडंबना देखिए, जिसने 1945 में जापान (हिरोशिमा-नागासाकी) पर परमाणु हमले करके दुनिया को दहला दिया, वही अमेरिका आगे चलकर दूसरों को परमाणु हथियार न बनाने का हिमायती बन गया।
इतना ही नहीं, दुनिया को नियम-कानून का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका खुद अपने हितों के लिए इनकी धज्जियां उड़ाता रहा है। निसंदेह, फरवरी 2022 से जारी रूस-यूक्रेन युद्ध अब थमना चाहिए। भारत का आधिकारिक रुख भी यही है। लेकिन यह विरोधाभास की पराकाष्ठा है कि वर्ष 2003 में मीलों दूर इराक पर ‘विनाशकारी हथियारों’ के बहाने धावा बोलने वाला अमेरिका, रूस की ‘आत्मरक्षा’ में की जा रही सैन्य-कार्रवाई को ‘अपराध’ बता रहा है।
बात केवल यही तक सीमित नहीं है। अमेरिका का शीतयुद्ध के दौरान कई देशों की सरकारें पलटने, नेताओं को हटाने और सीधे-सीधे हमले करने का काला इतिहास रहा है। यहां तक, अमेरिका ने अपने ही हितों के लिए 1980 के दशक में इस्लामी आतंकवाद के वर्तमान स्वरूप का बीज बोया था। 1991 में सोवियत संघ टूटने के बाद लगा कि दुनिया पर अमेरिका का ही एकाधिकार रहेगा। लेकिन हाल के घटनाक्रम बताते हैं कि अमेरिका की गिनती अब उल्टी दिशा में शुरू हो चुकी है।
अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामरिक-आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण चीन और जापान की यात्रा पर थे। इस दौरान एक ऐसा घटनाक्रम हुआ, जिसे भारतीय मीडिया या तो नजरअंदाज कर गया या फिर उसका महत्व नहीं समझ पाया। ट्रंप प्रशासन जापान पर अमेरिकी चावल के लिए अपना बाजार खोलने का दबाव बना रहा था। इसे अस्वीकार करने के बाद, बकौल निक्केई एशिया की रिपोर्ट, जापान के मुख्य वार्ताकार रयोसेई अकाजावा ने अमेरिका का दौरा रद्द कर दिया। ऐसा ही दबाव ट्रंप प्रशासन भारत पर भी डाल रहा था कि वह अमेरिकी गायों— जो मांसाहारी चारा खाती हैं— उसका दूध खरीदे और अमेरिकी किसानों के लिए अपना बाजार खोल दें। जब भारत ने इसे राष्ट्रहित में ठुकरा दिया, तब राष्ट्रपति ट्रंप ने रूसी तेल-क्रय का बहाना बनाकर भारत पर 50% तक का टैरिफ जड़ दिया। यह संभवत: पहली बार है, जब अमेरिका की शर्तों पर चलने से दुनिया के कई देशों ने सीधा इनकार किया है।
असल में, ट्रंप की बौखलाहट का कारण बदलता वैश्विक शक्ति-संतुलन और आर्थिक समीकरण भी है। भारत, चीन, रूस और ब्राजील की अगुवाई वाले ब्रिक्स ने अमेरिका के नेतृत्व वाले जी-7 को वैश्विक उत्पादन में पीछे छोड़ दिया है। इसमें जहां ब्रिक्स का योगदान 35% है, तो जी-7 का 28%। इसी तरह वैश्विक आबादी में 49% और वैश्विक जीडीपी में 40% हिस्सेदारी ब्रिक्स को और अधिक ताकतवर बना देती है।
स्पष्ट है कि दुनिया से अमेरिका (पश्चिमी देशों सहित) का वर्चस्व घट रहा है। बात आर्थिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। दुनिया में समाज कैसा होना चाहिए, उसपर भी पश्चिमी देशों का एकाधिकार था। यह सोच औपनिवेशिक मानसिकता से निकली थी। 1945 से स्थापित संयुक्त राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विभाग ने 1951 में दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं (भारतीय संस्कृति सहित) की जड़ों को काटकर पश्चिमी ‘विकास मॉडल’ थोपने का प्रयास किया। लेकिन इसका नतीजा क्या निकला? इसका सबसे बड़ा उदाहरण अमेरिका है। आज वहां करोड़ों नौजवान अकेलेपन और अवसाद से जूझ रहे हैं। इसलिए अमेरिका में हर साल 400–600 सामूहिक गोलीबारी की घटनाएं होती हैं। वर्ष 1960 में अकेले रहने वाले अमेरिकियों की संख्या 13% थी, जो 2022 में बढ़कर 29% हो गई। तलाक की दर 40 से 80 प्रतिशत तक पहुंच गई।
एक-तिहाई अमेरिकी युवा अपने माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहते, इसलिए बुजुर्गों की देखभाल का बोझ सरकार पर आ गया। 2019 में अमेरिकी सरकार को इसके लिए 1.5 ट्रिलियन डॉलर खर्च करने पड़े थे, जिसके 2029 तक दोगुना होने की आशंका है। ऐसे कई उदाहरण है। वर्ष 2007–08 की आर्थिक मंदी के बाद संयुक्त राष्ट्र को मानना पड़ा कि विकास का आधार स्थानीय संस्कृति ही है। मशहूर पत्रिका ‘द इकॉनॉमिस्ट’ ने 2019 में ही लिख दिया था कि “वैश्वीकरण मर चुका है”। साफ है कि जिस अमेरिकी मॉडल को पूरी दुनिया पर थोपने की कोशिश हुई, वही आज खुद अमेरिकी समाज को गहरे संकट और असंतुलन में धकेल रहा है।
कुल मिलाकर कहे, तो अमेरिका जिन देशों (भारत सहित) की प्रतिष्ठा पर स्वयंभू लोकतंत्र, मानवाधिकार और नैतिकता की दुहाई देता रहा था, उनकी कीमत पर वह उस बदहाल और आतंकवाद के कारखाने पाकिस्तान को तरजीह दे रहा है, जिसने 9/11 के साजिशकर्ता ओसामा बिन लादेन को पनाह दी और उसकी आर्थिक मदद से जिहादी शक्तियों को पुष्ट किया। ऐसे विरोधाभासों के बीच क्या अमेरिका लंबे समय तक ‘सुपरपॉवर’ बना रह पाएगा?