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ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं

जब भी किसी उलझन में होता था, तो चर्चा जगदीप सर से कर लिया करता था। अब किससे करूं? एक वर्ष के इलाज के दौरान दिल्ली, हिमाचल और भोपाल के अस्पतालों में हर जगह उनके साथ रहा। लेकिन इतनी गंभीर बीमारी के बावजूद उन्होंने कभी खुद को असहाय नहीं जताया।

राजेश खन्ना ने फिल्म आनंद  में जो किरदार निभाया था, पिछले एक वर्ष में कुछ वैसा ही किरदार असल जीवन में हमारे अपने जगदीप ने निभाया। गंभीर बीमारी का पता चलने के बाद पूरे एक साल चले इलाज के दौरान जब भी किसी ने हालचाल पूछा, वे हमेशा मुस्कराकर बस यही कहते—“सब ठीक है, कोई दिक्कत नहीं है।” यहां तक कि परिवार के भाई-बंधु जब फोन करते, तब भी पूरी दृढ़ता और आत्मविश्वास से जवाब मिलता—“सब अच्छा हो रहा है।”

लेकिन हम सबने उन्हें धीरे-धीरे शारीरिक रूप से कमजोर होते देखा। पर मानसिक दृढ़ता का ऐसा उदाहरण विरले ही देखने को मिलता है। उन्होंने कभी भी अपने मन की कमजोरी उजागर नहीं होने दी।

अभी तक जब भी किसी उलझन में होता था, तो चर्चा जगदीप सर से कर लिया करता था। अब किससे करूं? एक वर्ष के इलाज के दौरान दिल्ली, हिमाचल और भोपाल के अस्पतालों में हर जगह उनके साथ रहा। लेकिन इतनी गंभीर बीमारी के बावजूद उन्होंने कभी खुद को असहाय नहीं जताया। रास्ते में आते-जाते वही मजाक, वही ठहाके, वही चुटकुले। उनकी स्टाइल ही अलग थी।

अक्सर जब उनके घर से अपने घर लौटता तो कुछ घंटे बाद ही फोन आ जाता—“अरे, पूछा ही नहीं कि हम पहुंच गए।” और कभी मेरे घर से निकलने के बाद भी पूछ लेते—“तुमने पूछा ही नहीं कि मैं पहुंच गया।” आज न फोन कर रहे हैं, न बता रहे हैं। न जाने किस दुनिया में चले गए। अब कौन बताएगा कि कहां पहुंचे और हम कैसे पूछें? बस मौन रह जाता है।

बहुत पहले आनंद फिल्म देखी थी। गंभीर बीमारी के बावजूद राजेश खन्ना का वही जीवंत अंदाज़। डॉक्टर भास्कर (अमिताभ बच्चन) जब पूछते हैं—“तुम्हें मालूम है न कितनी गंभीर बीमारी है?” तो आनंद मुस्कराकर कहता है — “मालूम है… मेरी ज़िंदगी अब ज्यादा से ज्यादा छह महीने की है।” लेकिन फिर भी आनंद जैसे जिंदादिल बने रहते हैं। जगदीप सर भी कुछ वैसे ही थे। बीमारी का पता चलने पर हम सब परेशान थे, लेकिन वे हमेशा कहते — “सब ठीक हो जाएगा।”

पांच भाइयों में जगदीप चौथे नंबर पर थे, लेकिन पूरे परिवार के सबसे लाडले — सब उन्हें “बबुआ” कहकर पुकारते। खुद से ज्यादा परिवार की चिंता रहती। बीमारी का पता चलने पर सबसे बड़ा डर था कि मां को पता चलेगा तो परेशान होंगी। खुद के कष्ट की कभी कोई चिंता नहीं की। इकलौते बेटे देवांश को पढ़ाई के लिए बेंगलुरु भेज दिया। पत्नी मंजुलता हमेशा चाहती थीं कि इलाज में साथ रहें लेकिन वे कहते — “तुम क्यों परेशान होगी?” बड़े भाई प्रदीप सिंह बैस जबलपुर से आकर साथ रहे और दिल्ली तक इलाज के लिए जिद करके ले गए।

जगदीप सिंह बैस ने संबंधों की वह पूंजी अर्जित की थी जो हर स्तर पर सम्मान दिलाती थी — संस्थान के मालिक से लेकर हाकर तक हर कोई उनका मुरीद। वर्तमान में वे नया इंडिया के मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ संस्करण के संपादक थे। अखबार के प्रधान संपादक हरीशंकर व्यास जी अक्सर कहते — “जगदीप है तो चिंता की कोई बात नहीं।” व्यास जी का पूरा परिवार उन्हें अपने परिवार का हिस्सा मानता था। शायद इन्हीं के भरोसे भोपाल से नया इंडिया का प्रकाशन संभव हुआ।

मुझे नहीं पता कि उन्हें आभास था या नहीं, लेकिन चार-पांच साल पहले पूरी गीता का अनेक बार श्रवण किया। ऑफिस में अक्सर गीता के अध्याय सुनते रहते। गीता के उपदेश उनके स्वभाव में उतर चुके थे — कभी विचलन नहीं, कभी अहंकार नहीं। पत्रकारिता में निडरता, निष्पक्षता, ईमानदारी का जीवंत उदाहरण।

काश… कुछ साल और रहते! बार-बार मन में यही टीस उठती है। पर शायद सच यही है — “जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं बाबू मोशाय।”

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