बिहार के चुनाव में तीन पीढ़ियाँ और तीन दृष्टिकोण आमने-सामने हैं। नीतीश कुमार, जिनकी राजनीति स्थिरता और अनुभवी शासन का प्रतीक है। तेजस्वी यादव, जो परिवर्तन और युवा आकांक्षाओं के वाहक हैं। प्रशांत किशोर, जो मौजूदा राजनीति को बदलने की चुनौती दे रहे हैं। यह चुनाव यह तय करेगा कि बिहार पुरानी राजनीति की सीमाओं में रहेगा या सोच के नए अध्याय की ओर कदम बढ़ाएगा।
बिहार प्रयोगों, व्यक्तित्वों और गठबंधनों की धरती रहा है। यहाँ सत्ता तक पहुँचने का रास्ता सिर्फ वोटों से नहीं, बल्कि समाजिक समीकरणों, जातीय गणित और जनभावनाओं से होकर गुजरता है। अब जब 2025 के विधानसभा चुनावों की दस्तक हो चुकी है, पूरा देश बिहार की ओर देख रहा है। यह चुनाव राष्ट्रीय समीकरणों को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है।
इस बार मुकाबला दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण इसलिए है क्योंकि मैदान में तीन धाराएँ साफ तौर पर दिखाई दे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) है। एनडीए, जिसमें जनता दल (यू) के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर एक बार केंद्र में हैं। वहीं, तेजी से उभरती शक्ति के रूप में प्रशांत किशोर का ‘जन सुराज अभियान’।
राजद की अगुवाई वाला ‘इंडिया’ गठबंधन इस चुनाव को अपनी साख बचाने के साथ-साथ केंद्र की राजनीति पर असर डालने के अवसर के रूप में देख रहा है। तेजस्वी यादव पिछले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक परिपक्वता दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, चाहे वह बेरोजगारी का मुद्दा हो, युवाओं से संवाद हो या नीतीश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना।
राजद के पास एक ठोस सामाजिक आधार है, लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती विश्वसनीयता की है। भ्रष्टाचार के पुराने मामलों और शासन की यादें आज भी मतदाताओं के दिमाग में ताजा हैं। कांग्रेस, वामदलों और अन्य सहयोगियों के बीच सीट बँटवारे को लेकर संभावित खींचतान भी गठबंधन की मजबूती पर सवाल उठाती है।फिर भी, तेजस्वी का युवा जोश और उनके प्रचार की डिजिटल समझबूझ उन्हें पहले से अलग बनाती है। ‘इंडिया’ गठबंधन यह भलीभाँति जानता है कि अगर बिहार में उसकी पकड़ मजबूत होती है, तो यह 2029 के लोकसभा समीकरणों में एक नई ऊर्जा भर सकता है।
एनडीए का चेहरा इस बार भी नीतीश कुमार ही हैं, जिनका राजनीतिक अनुभव किसी परिचय का मोहताज नहीं। वे सात बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, लेकिन अब जनता उनसे बदलाव की बजाय जवाब चाहती है। उनकी सबसे बड़ी ताकत रही है साफ़ छवि और साझा सामाजिक आधार। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि पिछले कुछ सालों में उनके राजनीतिक पलटवारों, कभी महागठबंधन में, कभी एनडीए में आने-जाने ने उनकी विश्वसनीयता को काफ़ी कमजोर किया है।
भाजपा, जो एनडीए की दूसरी बड़ी ताकत है, नीतीश के साथ रहते हुए भी अपने संगठन को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। उसे यह अंदाज़ा है कि बिहार में अगर उसे भविष्य में स्वतंत्र रूप से मज़बूत होना है, तो नीतीश के बाद का दौर भी ध्यान में रखना होगा। यही कारण है कि भाजपा अब स्थानीय नेताओं को उभारने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे मैदान को अपने पक्ष में करने की योजना पर काम कर रही है।
एनडीए का सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसके पास वोटों का एक स्थिर कोर आधार है और शासन की निरंतरता की छवि बनी हुई है। लेकिन एंटी-इनकम्बेंसी, बेरोजगारी और ग्रामीण ढाँचों में ठहराव जैसे मुद्दे उनके लिए सिरदर्द बन सकते हैं।
बिहार के इस राजनीतिक त्रिकोण में सबसे दिलचस्प और नया पैदा हुआ कारक हैं प्रशांत किशोर (पीके)। उन्होंने रणनीतिकार से जननेता बनने की जो यात्रा शुरू की, वह अब निर्णायक दौर में पहुँची है। उनका जन सुराज अभियान पिछले दो वर्षों से गाँव-गाँव में सक्रिय रहा है। वे न तो स्वयं को किसी पारंपरिक पार्टी की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं और न किसी गठबंधन का हिस्सा हैं। उनका संदेश सीधा है — “सिस्टम को बदलने के लिए राजनीति में साफ और नई सोच लानी होगी।” प्रशांत किशोर का यह प्रयोग बिहार की राजनीति की जमीनी सच्चाई को चुनौती देता है। वे युवाओं और शिक्षित तबके में धीरे-धीरे एक विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।
हालाँकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि वे बड़े पैमाने पर सीटें जीतेंगे, लेकिन उनका प्रभाव दो स्तरों पर होगा। वोट कटवा असर: कई क्षेत्रों में वे परंपरागत दलों का समीकरण बिगाड़ सकते हैं। विचारधारात्मक बदलाव: उनकी राजनीति भ्रष्टाचार विरोधी और विकास-केंद्रित विमर्श को चुनावी बहस के केंद्र में ला रही है। अगर उनका अभियान थोड़ा भी जनसमर्थन जुटाने में सफल रहता है, तो यह बिहार में तीसरी शक्ति के उदय की भूमिका लिख सकता है।
गौरतलब है कि बिहार की राजनीति बिना जातीय समीकरणों के समझी ही नहीं जा सकती। यादव, कुशवाहा, भूमिहार, राजपूत और मुसलमानों के बीच सामंजस्य और टकराव हमेशा परिणामों को प्रभावित करते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक नया सामाजिक तबका, युवा और प्रवासी मजदूर वर्ग, निर्णायक बनकर उभर रहा है।
प्लेटफॉर्मों के उदय ने इस बार चुनावी प्रचार के तरीके को भी बदल दिया है। अब गाँवों तक व्हाट्सऐप समूह और सोशल अभियानों के माध्यम से राजनीतिक विमर्श पहुँच रहा है और यहाँ पर प्रशांत किशोर जैसे नेताओं की रणनीतिक क्षमता का उन्हें फायदा हो सकता है।
इस चुनाव की सबसे बड़ी बहस विकास बनाम विश्वसनीयता की होगी। नीतीश कुमार कहेंगे कि उन्होंने राज्य को बुनियादी ढाँचे और शासन में सुधार दिया, जबकि विरोधी पक्ष यह पूछेगा कि इतने वर्षों में युवाओं के लिए अवसर क्यों नहीं बढ़े। तेजस्वी यादव रोजगार और सामाजिक न्याय का नारा देंगे; भाजपा मोदी के नाम और केंद्रीय योजनाओं की बदौलत वोट जुटाने की कोशिश करेगी और प्रशांत किशोर नई राजनीति की बात करेंगे। नतीजतन, यह चुनाव किसी एक मुद्दे या व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहेगा — बल्कि यह आस्था, असंतोष और आकांक्षा के मिश्रण से तय होगा।
बिहार के 2025 के चुनाव इसलिए रोचक हैं क्योंकि तीन पीढ़ियाँ और तीन दृष्टिकोण आमने-सामने हैं। नीतीश कुमार, जिनकी राजनीति स्थिरता और अनुभवी शासन का प्रतीक है। तेजस्वी यादव, जो परिवर्तन और युवा आकांक्षाओं के वाहक हैं। प्रशांत किशोर, जो मौजूदा राजनीति को बदलने की चुनौती दे रहे हैं। यह चुनाव यह तय करेगा कि बिहार पुरानी राजनीति की सीमाओं में रहेगा या सोच के नए अध्याय की ओर कदम बढ़ाएगा। चाहे परिणाम कुछ भी हो, इतना तो तय है कि इस बार बिहार का जनादेश केवल सरकार नहीं, बल्कि देश की राजनीति की दिशा भी तय करेगा।
