व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। इस प्रकार दशहरा का पर्व दस इन्द्रियों पर विजय, असत्य पर सत्य की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता, अन्याय पर न्याय, दुराचार पर सदाचार, तमोगुण पर दैवीगुण, दुष्कर्मों पर सत्कर्मों, भोग पर योग, असुरत्व पर देवत्व और जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।
भारतीय संस्कृति में चैत्र शुक्ल दशमी व कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथियों की भांति ही आश्विन शुक्ल दशमी की तिथि भी अत्यन्त शुभ, पवित्र व उत्तम फलदायिनी मानी गई है। इस दिन दशहरा का पर्व मनाया जाता है। दशहरा या दसेरा शब्द दस एवं अहन् से ही बना है। दशहरा, दसेरा अथवा दशहोरा अर्थात दसवीं तिथि। मान्यतानुसार भगवती दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के उपरान्त चैत्र शुक्ल दशमी तिथि को महिषासुर पर विजय प्राप्त की थी। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व को भगवती के विजया नाम होने के कारण भी विजयादशमी कहते हैं। इसीलिए आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है।
रामायण की कथा के अनुसार त्रेतायुग में इस दिन श्रीराम ने रावण का वध किया था। लंका नरेश रावण सीता माता का अपहरण कर उन्हें लंका ले गया था। भगवान श्रीराम युद्ध की देवी माता दुर्गा के अनन्य भक्त थे। उन्होंने युद्ध के समय पहले नौ दिनों तक माता दुर्गा की पूजा की और दसवें दिन लंका नरेश रावण का वध किया। श्रीराम की रावण पर विजय के कारण इस दिवस को विजयदशमी कहते हैं। प्राचीन काल से ही इस दिन शस्त्र पूजा का प्रचलन रहा है। इसलिए इस पर्व को आयुध पूजा, अस्त्र पूजा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन अक्षर लेखन प्रारंभ, नया उद्योग आरंभ, बीज वपन आदि नवीन कार्य प्रारंभ करने की परिपाटी है। विजयादशमी का यह दिन अत्यंत शुभ माना जाता है।
ज्योतिषीय दृष्टि में भी आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि अत्यंत शुभ मानी गई है। इस दिन सूर्य कन्या राशि में और चंद्रमा मेष राशि में होता है। यह विजय मुहूर्त अर्थात विजय काल नई शुरुआत के लिए आदर्श है। अपराह्न काल शमी पूजा और शस्त्र पूजा के लिए उपयुक्त होता है। राहु काल (अशुभ समय) से परहेज किया जाता है। दशहरा अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है, और पंचांग संध्या काल में रावण दहन (पुतला दहन) जैसे अनुष्ठानों का निर्देश देता है। इस दिन दशहरा या विजयादशमी से सम्बंधित वृत्तियों के औज़ारों या यंत्रों की पूजा भी होती है। क्षत्रियों के यहां शस्त्रों की पूजा होती है। ब्रज के मन्दिरों में इस दिन विशेष दर्शन होते हैं। इस दिन नीलकंठ का दर्शन बहुत शुभ माना जाता है। यह त्योहार क्षत्रियों का माना जाता है। इसमें अपराजिता देवी की पूजा होती है। यह पूजन भी सर्वसुख देने वाला है। पौ
राणिक ग्रंथों में इस शुभ दिन के प्रमुख कृत्य- अपराजिता पूजन, शमी पूजन, सीमोल्लंघन (अपने राज्य या ग्राम की सीमा को लांघना), घर को पुन: लौट आना एवं घर की नारियों द्वारा अपने समक्ष दीप घुमवाना, नये वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण करना, राजाओं के द्वारा घोड़ों, हाथियों एवं सैनिकों का नीराजन तथा परिक्रमण करना आदि बताये गए हैं। यह सभी लोगों के लिए महत्त्वपूर्ण दिन है, किन्तु राजाओं, सामंतों एवं क्षत्रियों के लिए यह विशेष रूप से शुभ दिन है। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयदशमी का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाए जाने का विशद वर्णन हेमाद्रि ग्रंथ, सिंधुनिर्णय, पुरुषार्थ चिंतामणि, व्रतराज, कालतत्त्वविवेचन, धर्मसिंधु आदि में किया गया है। यह पर्व सिर्फ भारत देश में ही नहीं, अपितु उतने ही उर्जा और उल्लास से दूसरे देशों में भी मनाया जाता जहां प्रवासी भारतीय रहते हैं।
पौराणिक मान्यतानुसार आश्विन शुक्ल दशमी के दिन प्रारंभ किए गए कार्य में विजय अवश्य मिलती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रणयात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। पौराणिक मान्यतानुसार आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक मुहूर्त होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है-
आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यार्थसिद्धये।।
मान्यतानुसार शत्रु पर विजय पाने के लिए आश्विन शुक्ल दशमी अर्थात विजयादशमी के इसी शुभ समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन श्रवण नक्षत्र का योग और भी अधिक शुभ माना गया है। युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं अथवा महत्त्वपूर्ण पदों पर पदासीन लोग को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए। दशहरोत्सव शक्ति और शक्ति का समन्वय बताने वाला उत्सव है। नवरात्रि के नौ दिन भगवती की उपासना करके शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। दशहरे अर्थात विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव का उत्सव मनाना भी आवश्यक है। भारतीय संस्कृति सदा से ही वीरता व शौर्य की समर्थक रही है। प्रत्येक व्यक्ति और समाज के रुधिर में वीरता का प्रादुर्भाव होने के उद्देश्य से ही दशहरे का उत्सव मनाया जाता है। कभी युद्ध अनिवार्य ही हो जाने की स्थिति में शत्रु के आक्रमण की प्रतीक्षा न कर उस पर हमला कर उसका पराभव करना ही कुशल राजनीति है।
त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के समय से ही यह दिन विजय प्रस्थान का प्रतीक निश्चित है। भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध हेतु इसी दिन प्रस्थान किया था। मराठा रत्न छत्रपती शिवाजी महाराज ने भी औरंगजेब के विरुद्ध इसी दिन प्रस्थान करके हिन्दू धर्म का रक्षण किया था। भारतीय इतिहास में भारतीय राजाओं के इस दिन विजय प्रस्थान करने के अनेक उदाहरण हैं। यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है। नदियों की बाढ़ थम जाती है। धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। शमी पूजा भी प्राचीन है। वैदिक यज्ञों के लिए शमी वृक्ष में उगे अश्वत्थ अर्थात पीपल की दो अरणियों अर्थात टहनियों से अग्नि उत्पन्न की जाती थी। अग्नि शक्ति एवं साहस की द्योतक है, शमी की लकड़ी के कुंदे अग्नि उत्पत्ति में सहायक होते हैं। जहां अग्नि एवं शमी की पवित्रता एवं उपयोगिता की ओर मंत्रसिक्त संकेत हैं।
महाभारत के कथा के अनुसार दुर्योधन ने पांडवों को द्युत क्रीडा में पराजित करके बारह वर्ष के वनवास के साथ तेरहवें वर्ष में अज्ञातवास की शर्त दी थी। शर्त के अनुसार तेरहवें वर्ष में पांडवों का पता लग जाने पर उन्हें पुनः बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ता। इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष एक शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्नला वेश में राजा विराट के यहां नौकरी कर ली थी। जब गोरक्षा के लिए विराट के पुत्र उत्तर ने अर्जुन को अपने साथ लिया, तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने अस्त्र-शस्त्र उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। विजयादशमी के दिन भगवान श्रीराम के लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने भगवान की विजय का उद्घोष किया था। विजयकाल में शमी पूजन इसीलिए होता है।
वर्तमान में अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को भगवान श्रीराम के द्वारा लंकाधिपति रावण का वध किए जाने की कथा से जोडकर विजयादशमी का पर्व का आयोजन होता है। स्थान-स्थान पर मेले लगते हैं। भारत में सर्वत्र आयोजित होने वाली रामलीला में रावण वध का प्रदर्शन होता है। रावण, मेघनाद, कुभंकरण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। राम, सीता और लक्ष्मण के रूप धारण कर पात्र आग के तीर से इन पुतलों को मारते हैं जो पटाखों से भरे होते हैं। पुतले में आग लगते ही वह धू धू कर जलने लगता है और भांति- भांति के अग्नि क्रीडाओं के मध्य इनमें लगे पटाखे फटने लगते हैं और जिससे इनका अंत हो जाता है।
मान्यतानुसार इसी दिन भगवान श्रीराम ने लंकाधिपति रावण का वध किया था। लेकिन वाल्मीकि रामायण और पदम पुराण के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है लंकेश रावण चतुर्दशी कों मारा गया था, दशमी के दिन नहीं। और वह भी चैत्र मास की चतुर्दशी कों मारा गया था। विद्वानों के अनुसार दशमी के दिन मनाया जाने वाले विजयादशमी उत्सव से रावण वध का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। विजयादशमी उत्सव के पीछे की सनातन, सत्य व बौद्ध कथा को मिटाने और भारतीयों के मानस पटल से आयुध पूजा की महता और वीरता के भाव को हटाकर उनके रुधिर में भीरुता का भाव भरने के उदेश्य से ही इस दिन रावण वध की अफवाह फैलाई गई।
उल्लेखनीय है कि दशहरा अथवा विजयदशमी का पर्व भगवान राम की विजय उत्सव के रूप में मनाया जाए अथवा भगवती दुर्गा के महिषासुर पर विजय, दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा का ही पर्व ठहरता है। यह शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। इस प्रकार दशहरा का पर्व दस इन्द्रियों पर विजय, असत्य पर सत्य की विजय, बहिर्मुखता पर अंतर्मुखता, अन्याय पर न्याय, दुराचार पर सदाचार, तमोगुण पर दैवीगुण, दुष्कर्मों पर सत्कर्मों, भोग पर योग, असुरत्व पर देवत्व और जीवत्व पर शिवत्व की विजय का पर्व है।