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इमरजेंसी के पचास साल: भावशून्य चेहरों की वह गारद

बाद हममें से किसी ने कहा- ‘लगता है, कुछ होने वाला है।’ किसी और ने पूछा- ‘मतलब, क्या होने वाला है?’ तब मैंने कहा- ‘यहां के माहौल से लगता है कुछ बदलने वाला है।‘ हमारी टोली में से आगे कोई कुछ कहता, उससे पहले हमारे पीछे से आवाज आई- ‘कुछ नहीं बदलने वाला।’ हमने पलट कर देखा वे एक बुजुर्ग थे। उन्होंने आगे कहा- ‘तुम लोग अभी छोटे हो। धीरे-धीरे तुम भी जान जाओगे कि कुछ नहीं बदलता। जो बदलता है उसका कोई मतलब नहीं होता और जिसका मतलब होता है वह कभी बदलता नहीं।‘

पिछले पांच दशकों में दिल्ली की शक्ल बदलने में सबसे ज्यादा तीन चीजों का हाथ रहा है। एशियाड 1982 का, मेट्रो का और 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स का। इनकी वजह से बहुत से फ्लाईओवर और अंडरपास बने। कई स्टेडियमों, सड़कों व इमारतों का कायाकल्प हुआ और शहर की स्काईलाइन बदली। ज़्यादातर लोग सोच भी नहीं सकते कि उससे पहले दिल्ली कैसी थी।

आठवें दशक के पूर्वार्ध में मद्रास होटल के पीछे शिवाजी स्टेडियम की इमारत इतनी बड़ी और भव्य नहीं थी। वह एक सामान्य सा स्टेडियम था जिसके दरवाजे ठीक से बंद न हों तो बाहर सड़क से ही भीतर चल रहे मैच की झलक मिल जाती थी। हॉकी के इस स्टेडियम में तब ऐस्ट्रो टर्फ़ तक नहीं थी। इससे लगभग चिपका हुआ एक क्लॉक टॉवर था जिसकी पहली मंजिल पर इसी नाम का एक रेस्तरां होता था और नीचे उसमें आने वालों की गाड़ियां खड़ी रहती थीं। इस क्लॉक टॉवर की जगह ही आज रेरा का दफ्तर बन गया है। उसके बाद एक पार्क था जिसके दोनों छोरों पर कुछ झूले थे। पार्क के खत्म होने पर कनॉट प्लेस के पी ब्लॉक के पिछवाड़े की वह सड़क थी जहां से डीटीसी के कई रूटों की बसें चला करती थीं। इनमें डबल डेकर भी होती थीं। पहले एशियाड 1982 में और फिर 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स में इस स्टेडियम का स्वरूप बदला तो पार्क की जगह बस टर्मिनल बन गया।

मैं 1974 में जब दिल्ली आया तो सबसे पहले जिन लोगों से दोस्ती हुई उनमें दिल्ली प्रेस में काम करने वाले मुकेश शर्मा और सरकारी इम्तहान पास कर ताजा-ताजा उद्योग मंत्रालय में नौकरी पाने वाले श्रीकृष्ण शर्मा थे। अब मुकेश अपने बेटे के पास कनाडा में हैं और श्रीकृष्ण अपने बेटे के साथ गोवा में। उन दिनों मेरे पास कोई काम नहीं था। सो मैं लगभग हर दिन दोपहर बाद अपने घर तिलक नगर से शिवाजी स्टेडियम पहुंच जाता था, जहां कुछ इंतजार के बाद मुकेश और श्रीकृष्ण आ जाते। हम पार्क में बैठते, गप्पें मारते या फिर चाय पीने पंजाब रेस्टोरेंट चले जाते। यह रेस्तरां लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के सामने शिवाजी स्टेडियम की इमारत में था। क्योंकि हम वहां रोज ही दिखते थे, इसलिए इस रेस्तरां के बड़ी-बड़ी मूंछों वाले मालिक से दोस्ताना हो गया था।

पार्क में हमारे जमावड़े में आम तौर पर किसी नए उपन्यास, किसी नई कहानी या कविता पर, किसी लेखक पर या फिर फिल्मों, खेलों अथवा ख़बरों पर बातें होती थीं। एक दिन हम मिले तो श्रीकृष्ण ने कहा, ‘यार, आज रामलीला मैदान में जेपी की रैली है, वहां जाना चाहिए।‘ दिल्ली में जगह-जगह इस रैली के पोस्टर लगे थे और माहौल में इस आंदोलन की गर्मी भी थी। उस दिन हमारे गुट में डीएवीपी में काम कर रहे एक अशोक जी भी शामिल थे जो कभी-कभार ही आते थे। सबको रैली में जाने का प्रस्ताव ठीक लगा और कई तरह की जिज्ञासाओं से भरे हम रामलीला मैदान की तरफ चल दिए।

बड़े शहर की यह खूबी होती है कि कहीं कुछ बहुत बड़ा घट रहा हो तब भी उसी शहर के दूसरे स्थानों को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कनॉट प्लेस बिलकुल सामान्य था। रोज जैसा ट्रैफ़िक, ग्राहकों की प्रतीक्षा करती दुकानें, बूट पॉलिश करने और भीख मांगने वाले बच्चे, मस्ती के मूड में लड़के-लड़कियां और व्यस्तता का ढोंग करते साहब लोग। पंचकुइयां रोड और स्टेट एंट्री रोड के क्रॉसिंग को पार कर हम बातें करते हुए मिंटो ब्रिज आए। वही मिंटो ब्रिज जो बारिश के पानी में पूरी बस डूब जाने के लिए मशहूर है। इसके नीचे फुटपाथ से चल कर जैसे ही हम मिंटो रोड पहुंचे तो नज़ारा एकदम बदला हुआ था। वहां, सड़क के दोनों तरफ़, बहुत से लोग रामलीला मैदान की तरफ जाते दिख रहे थे। रैली के लाउडस्पीकर इतनी दूर तक लगाए गए थे कि वहीं से उनकी आवाज़ सुनाई देने लगी। शायद कोई स्थानीय नेता बोल रहा था। वह अलग-अलग राज्यों में चल रहे विरोध प्रदर्शनों का हाल बता रहा था, जिन पर पुलिस ने ऐसी बर्बरता बरती थी कि महिलाओं और बूढ़ों को भी नहीं बख़्शा था।

रामलीला मैदान के भीतर पहुंचते-पहुंचते वहां का माहौल हम पर तारीं हो चुका था। भीड़ बहुत थी तो पुलिस भी बहुत थी। इस मैदान में कितने लोग आ सकते हैं, इस पर बहुत विवाद रहा है, मगर यह भरा हुआ था और बाहर भी लोग खड़े थे। मुझे याद है कि मोरारजी देसाई के भाषण के बीच एक कोने में भीड़ में कुछ हलचल हुई तो उन्होंने भाषण रोक कर पूछा कि वहां क्या हो रहा है। फिर बोले, ‘शांत रहिये। किसी से मत डरिये। सांप भी निकल आए तो बैठ जाइए। वह दब जाएगा। कुछ नहीं कर पाएगा।‘

फिर अंत में जयप्रकाश नारायण बोले और देर तक बोले। उनका कहना था कि यह बदलाव की लहर है, इसका रुकना मुश्किल है और प्रधानमंत्री को सत्ता छोड़ देनी चाहिए। लोग उन्हें बहुत गौर से सुन रहे थे। सरकार किस तरह आंदोलन का दमन कर रही है, इसका ज़िक्र करते हुए जेपी ने कहा कि यहां बहुत से पुलिस के जवान मौजूद हैं। मुझे खास तौर पर उनसे एक बात कहनी है। उन्होंने आगे कहा कि ये जो इतनी बड़ी संख्या में यहां लोग आए हुए हैं, ये सब आपके ही भाई-बंद हैं। इन पर लाठी-गोली चलाने से पहले आपको कुछ सोचना चाहिए। जब भी आपको लाठी या गोली चलाने का आदेश दिया जाता है तो उसका पालन करने से पहले आपको सोचना चाहिए कि वह आदेश कितना सही है। फिर उन्होंने पुलिस के साथ सेना को भी जोड़ लिया और कहा कि अगर आपको ऊपर से मिला आदेश असंवैधानिक और अनैतिक लगता है तो उसे मानने से इनकार कर दीजिए।

मंच के सामने साठ-सत्तर मीटर दूर बाईं तरफ़, मैदान के एक गेट के पास, कम से कम दो-तीन सौ पुलिसवाले जमा थे। ज़्यादातर के सिर पर हेलमेट थे। वे हेलमेट टोपीनुमा यानी लोहे के हैट जैसे थे जिनका फीता ठोड़ी के नीचे बांधा जाता था। वे आज जैसे हेलमेट नहीं थे जिनमें चेहरा भी ढक जाता है। जब जेपी ने पुलिसवालों के लिए यह बात कही, वे सब पुलिसवाले उन्हीं की तरफ देख रहे थे। जेपी की बात सुन कर कई दूसरे लोगों की तरह हम लोगों ने भी पलट कर उन पुलिसवालों की तऱफ देखा। मगर उनके चेहरे भावशून्य थे। सहमति-असहमति की किसी भी परछायीं से परे वे केवल मंच की ओर तक रहे थे।

जेपी का भाषण ख़त्म हुआ तो मंच से लगाए जा रहे नारों के बीच भीड़ बाहर निकलने लगी। निकलने में हमें बहुत मशक्कत करनी पड़ी। भीड़ से निकल कर जब तक हम लोग वापस मिंटो रोड पर नहीं पहुंच गए और ठीक से चल पाने की स्थिति में नहीं आ गए, तब तक कोई कुछ नहीं बोला। आज लगता है कि इतनी देर चुप रहने की वजह केवल भीड़ नहीं थी। हम सब जैसे किसी ‘सस्पेंडेड एनीमेशन’ से गुजरे थे और उसके प्रभाव को जितनी भी देर संभव हो बचाए रखना चाहते थे। रैली से लौटते दूसरे लोगों में भी बहुत कम थे जो कुछ बोल रहे थे।

कई मिनट की चुप्पी के बाद हममें से किसी ने कहा- ‘लगता है, कुछ होने वाला है।’ किसी और ने पूछा- ‘मतलब, क्या होने वाला है?’ तब मैंने कहा- ‘यहां के माहौल से लगता है कुछ बदलने वाला है।‘ हमारी टोली में से आगे कोई कुछ कहता, उससे पहले हमारे पीछे से आवाज आई- ‘कुछ नहीं बदलने वाला।’

हमने पलट कर देखा और फिर रुक गए। वे एक बुजुर्ग थे। उन्होंने हमारी बातें सुन ली थीं। मटमैला सा कुर्ता-पाजामा पहने और चश्मा लगाए उस व्यक्ति ने आगे कहा- ‘तुम लोग अभी छोटे हो। धीरे-धीरे तुम भी जान जाओगे कि कुछ नहीं बदलता। जो बदलता है उसका कोई मतलब नहीं होता और जिसका मतलब होता है वह कभी बदलता नहीं।‘ वे सज्जन अकेले थे और अपनी बात कह कर तेजी से आगे निकल गए। हम चारों दोस्त उन्हें जाते देखते रहे। शायद हम चाहते थे कि वे कुछ और कहें। जीवन में ऐसे लोग मुश्किल से मिलते हैं जिनके लिए मन करता है कि उनसे और बात की जाए, उन्हें और सुना जाए। मगर उनके पास समय नहीं होता।

हम आगे बढ़े। धीरे-धीरे मिंटो ब्रिज पार किया। कनॉट प्लेस और भी निर्विकार लगा। हम लोग वापस शिवाजी स्टेडियम लौट आए। अंधेरा बढ़ता जा रहा था और सबको अपनी-अपनी बस पकड़ने की चिंता होने लगी थी। देर रात तक मैं भी घर लौट आया। बाद में पता चला कि इस रैली में जो कुछ कहा गया था वह देश में इमरजेंसी लगने का सबसे बड़ा बहाना बना। (जारी)

 

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