मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक चीन दुनिया भर के देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर रहा है कि वे शंघाई गोल्ड एक्सचेंज के जरिए सोने की खरीद-बिक्री करें। योजना यह है कि अन्य देशों के सोने का भंडार चीन में बनाया जाए। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह प्रयास पिछले कुछ महीनों में तेज किया गया है और दक्षिण-पूर्व एशिया के कम-से-कम एक देश ने इसमें रुचि दिखाई है। (China courts foreign gold reserves to boost global clout)
विश्लेषकों के मुताबिक यह कदम सफल हुआ, तो इससे वैश्विक वित्तीय प्रणाली में एक बड़े उलटफेर की शुरुआत हो जाएगी। दरअसल, इस कदम का लक्ष्य अमेरिकी डॉलर और स्वर्ण कारोबार के पश्चिमी केंद्रों- अमेरिका, ब्रिटेन और स्विट्ज़रलैंड- पर बाकी देशों की निर्भरता घटाना है। विभिन्न देश बढ़ते भू-राजनीतिक जोखिम के कारण अधिक से अधिक मात्रा में सोना खरीद रहे हैं। चीन का सेंट्रल बैंक- पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (PBoC) की महत्त्वाकांक्षा उन देशों को सोना रखने का एक नया सुरक्षित भंडार प्रदान करने की है।
अब तक ब्रिटेन, अमेरिका, और स्विट्जरलैंड सोना रखने के सबसे बड़े भंडार हैं। इन देशों के पास अपना सोना भी प्रचुर मात्रा में है। मसलन, बैंक ऑफ इंग्लैंड के भंडार में 5,000 टन से अधिक अपना सोना है। वैसे घोषित तौर पर सबसे ज्यादा अपना सोना अमेरिका के पास है। उसके पास आठ हजार टन से अधिक सोना मौजूद है। अब तक जो विश्व वित्तीय एवं मौद्रिक व्यवस्था है, उनमें इन देशों- खासकर अमेरिका और ब्रिटेन की निर्णायक भूमिका है।
वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल के अनुसार PBoC के पास लगभग ढाई हजार टन सोना ही है। इस तरह केंद्रीय बैंकों की वैश्विक रैंकिंग में वह पांचवें स्थान पर आता है। मगर अनेक जानकारों के मुताबिक यह वास्तिवक आंकड़ा नहीं है। चीन के पास सोने के अपने खदान भी हैं, जिनसे पिछले कुछ वर्षों में उसने बड़ी मात्रा में सोना निकाला है। यह मात्रा कितनी है, चीन ने यह नहीं बताया है। फिर चीन का घरेलू स्वर्ण बाज़ार दुनिया में सबसे बड़ा है। वहां स्वर्ण आभूषणों का चलन बड़े पैमाने पर है। साथ ही कारोबारी निवेश के लिए सोने की छड़ें और सिक्के रखते आए हैँ।
दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने पिछले तीन साल में तीव्र गति से सोने की खरीदारी की है। इन बैंकों में PBoC भी है, जिसने पिछले दस महीनों से खरीदारी की रफ्तार और तेज कर रखी है। समझा जाता है कि चीन सरकार अब इस आकलन पर है कि उसके पास पर्याप्त सोना इकट्ठा हो गया है, जिससे वह विश्व स्वर्ण बाजार के स्वरूप को बदलने की पहल कर सकती है। इसके ठोस संकेत हैं कि अपनी मुद्रा रेनमिनबी (युवान) को क्रमिक रूप से स्वर्ण आधारित (gold backed) करके चीन नई विश्व मैद्रिक व्यवस्था की ओर बढ़ने की पहल कर चुका है।
हाल में चीन ने स्वर्ण व्यापार से संबंधित कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। आम समझ है कि ये प्रयास सफल हुए तो चीन दुनिया में एक वैकल्पिक वित्तीय केंद्र के रूप में खुद को स्थापित कर लेगा। चीन के हालिया कदमों पर ध्यान देः
- आयात-निर्यात नियमों में छूट
PBoC ने स्वर्ण व्यापार को अधिक सुगम बनाने के नियमों में संशोधन प्रस्तावित किया है। इसका मकसद है घरेलू संस्थानों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्रोतों से सोना हासिल करना आसान बनाना। प्रस्तावों में शामिल हैं: मल्टी-यूज़ परमिट का दायरा बढ़ाना, परमिट की वैधता अवधि बढ़ा कर नौ महीने करना, और हर परमिट के उपयोग की संख्या पर से सीमा को हटाना।
- स्वर्ण भंडारों का संरक्षक बनने की पहल
शंघाई गोल्ड एक्सचेंज (SGE) के माध्यम से चीन “मित्र” देशों के केंद्रीय बैंकों को आमंत्रित कर रहा है कि वे अपने सोने को चीन के भंडार में सुरक्षित रखें। कुछ महीने पहले SGE ने इस दिशा में एक ठोस कदम उठाते हुए हांगकांग में अपना पहला ऑफशोर गोल्ड डिलीवरी वॉल्ट शुरू किया। इसका मकसद सीमा-पार भंडारण और डिलीवरी की प्रक्रिया को आसान बनाना है।
- तीव्र गति से स्वर्ण की खरीदारी
PBoC ने पिछले दस महीनों से अपने आधिकारिक स्वर्ण भंडार को लगातार बढ़ाया है। दूसरी तरफ चीन ने अमेरिकी ट्रेजरी (बॉन्ड्स) में अपना निवेश लगातार घटाया है। एक समय चीन के पास 1.3 ट्रिलियन डॉलर के ट्रेजरी बॉन्ड्स थे। अब सिर्फ 730 बिलियन डॉलर के ट्रेजरी बॉन्ड्स उसके पास हैं। चीन के इन कदमों को विश्व भुगतान की व्यवस्था को डॉलर से अलग करने (de-dollarization) के उसके सक्रिय प्रयास के रूप में देखा गया है।
दरअसल, हाल में सोने की तीव्र गति से खरीदारी सिर्फ चीन ने ही नहीं की है। बल्कि उभरती अर्थव्यवस्था वाले अनेक देशों ने यही रुझान दिखाया है। इनमें भारत भी है। इस तथ्य पर ध्यान देः
– 2022 में भारतीय रिजर्व बैंक ने 33 टन सोना खरीदा था
– 2023 में यह मात्रा 27.47 टन रही।
– जबकि 2024 से लेकर 2025 में (अब तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक) भारत 57.5 टन सोना खरीद चुका है। इस तरह भारतीय रिजर्व बैंक के भंडार में सोने की मात्रा लगभग 880 टन तक पहुंच चुकी है।
– इसके अलावा 2024 में रिजर्व बैंक ने ब्रिटेन में रखे 100 टन अपने सोने को वापस मंगवाया। इतने बड़े पैमाने पर विदेश से सोना वापस लाने की यह पहली घटना थी।
स्वर्ण बाजार का यह रुझान ही इस समय दिख रही सोने की अभूतपूर्व महंगाई का कारण है। इस समय भारतीय बाजारों में 24 कैरेट सोने का भाव एक लाख 10 हजार रुपये से ऊपर चल रहा है। इस बारे में आम राय है कि इस रुझान का कारण वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता, डॉलर पर निर्भरता कम करने की प्रवृत्ति, और विदेशी मुद्रा भंडार में सोने की मात्रा बढ़ाने की विभिन्न देशों की रणनीति है।
गोल्डमैन सैक्श ने हाल ही में स्वर्ण बाजार के बारे में कई महत्वपूर्ण अनुमान लगाए हैः
- इस अमेरिकी निवेश बैंक ने 2025 के अंत तक की सोने की कीमतों के लिए अपने पूर्व अनुमान को इस महीने संशोधित किया है। बैंक के मुताबिक सामान्य परिस्थितियों में यह कीमत 3,700 डॉलर प्रति औंस तक पहुंचने की संभावना थी, लेकिन यह सितंबर तक ही लगभग 3,800 डॉलर तक पहुंच गई। अब बढ़ते जोखिम के कारण ये कीमत 4,500 डॉलर प्रति औंस तक जा सकती है। मार्च 2025 में गोल्डमैन सैक्स ने 2025 के अंत तक सोने की कीमत 3,300 डॉलर प्रति औंस होने का अनुमान लगाया था।
- गोल्डमैन सैक्श ने कहा है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक- खासकर एशियाई देशों में सोने की खरीदारी की तेज हुई गति ने इस धातु की महंगाई को गति दी है। उसके मुताबिक सोने की मासिक मांग फिलहाल 70 टन से बढ़ कर 80 मीट्रिक टन हो गई है।
- बैंक के मुताबिक अमेरिका में मंदी के जोखिम के कारण भी निवेशक इस समय सोना खरीदना अधिक सुरक्षित मान रहे हैँ।
हांगकांग में गोल्ड वॉल्ट खोलने से लेकर सोने के आयात-निर्यात को आसान बनाने और शंघाई गोल्ड एक्सचेंज के जरिए सुरक्षित स्वर्ण भंडारण की योजना पेश करने की चीन की कोशिशों को उपरोक्त पृष्ठभूमि में ही देखना उचित होगा। चीन की अर्थव्यवस्था की ताकत उसकी उत्पादक क्षमता है। चीन रोजमर्रा की जरूरत की भौतिक चीजें (tangibles) बनाता है। जबकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था स्टॉक, बॉन्ड, बौद्धिक संपदा, रेंट, डेरिवेटिव्स आदि (intangibles) पर निर्भर होती चली गई है। इससे फर्क यह पड़ता है कि चीन से लगभग हर देश को कारोबार करना करना पड़ रहा है, जिसके बदले उसे भुगतान करना होता है।
साल 2022 से पहले तक यह लगभग सारा भुगतान डॉलर में होता था। इसके लिए सभी देशों को Society for Worldwide Interbank Financial Telecommunication (SWIFT) सिस्टम का सहारा लेना पड़ता था। अमेरिका अपनी प्रतिबंध की नीति के तहत जिन देशों को इस सिस्टम से बाहर कर देता था, उनके लिए अंतरराष्ट्रीय कारोबार करना बेहद कठिन हो जाता था। फरवरी 2022 में जब रूस ने यूक्रेन के खिलाफ विशेष सैनिक कार्रवाई शुरू की, तो पश्चिमी देशों ने उसे भी स्विफ्ट सिस्टम से निकाल दिया।
मगर यह दांव अमेरिका को भारी पड़ा है। इस बार डॉलर और उसकी भुगतान प्रणाली को एक बड़े देश के खिलाफ हथियार बनाया गया। तो बाकी दुनिया ने इसे एक चेतावनी के रूप में लिया। उसी समय पश्चिमी देशों ने उनके यहां जमा रूस के 300 बिलियन डॉलर के निवेश को जब्त कर लिया। इससे संदेश गया कि अमेरिका और उसके साथी देश निवेश एवं विश्व व्यापार व्यवस्था पर अपने दबदबे को अपने भू-राजनीतिक हित साधने का हथियार बना रहे हैं। इसका निशाना कभी भी कोई देश बन सकता है।
तो इन देशों ने विकल्प की तैयारी शुरू कर दी। चीन ने अंतरराष्ट्रीय भुगतान की अपनी व्यवस्था Cross-border Interbank Payment System (CIPS) पहले से बना रखी थी। उसने उसका उपयोग बढ़ाने के प्रयास तेज कर दिए। रूस के पास भी System for Transfer of Financial Messages नाम से ऐसी व्यवस्था मौजूद थी। तो चीन ने अपनी सिप्स को उससे जोड़ दिया। इस तरह रुबल और युवान में तुरंत भुगतान संभव हो गया। उनके अलावा गुजरे साढ़े तीन साल में अनेक देशों ने अपनी मुद्राओं में लेन-देन को बढ़ावा दिया है।
गौरतलब है कि ऐसा हर भुगतान de-dollarization की प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे हर भुगतान से अमेरिका कन्वर्जन शुल्क से वंचित हो रहा है, जो पहले उसे हर ट्रांजैक्शन पर प्राप्त होता था। इस बीच बड़े ऊर्जा उत्पादक देशों के इस प्रक्रिया में शामिल होने का परिणाम पेट्रो-डॉलर सिस्टम में सेंध लगना है। पेट्रो-डॉलर की व्यवस्था के कारण ही गुजरे पांच दशकों में डॉलर की हैसियत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा की बनी रही है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने सऊदी अरब को सिर्फ डॉलर में पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री पर जारी कर ये व्यवस्था शुरू की। चूंकि पेट्रोलियम उत्पाद बिना डॉलर के नहीं मिल सकते थे, इसलिए अपने भंडार में डॉलर रखना सभी देशों की मजबूरी बन गई।
मगर अब यह व्यवस्था टूट रही है। रूस, ईरान, और वेनेजुएला जैसे ऊर्जा समृद्ध देश अन्य मुद्राओं में अपने उत्पाद बेच रहे हैँ। इस बीच चीन और सऊदी अरब ने आपसी कमोडिटी ट्रेडिंग को मजबूत करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। हाल ही में शंघाई फ्यूचर्स एक्सचेंज (SHFE) और गल्फ मर्केंटाइल एक्सचेंज (GME) के बीच एक सहयोग समझौता हुआ है। (China, Gulf Forge Commodity Market Alliance – TDI)
इसके मुताबिक,
- SHFE और GME मिलकर मार्केट रिसर्च, संयुक्त उत्पाद विकास, बाजार प्रवृत्तियों आदि पर जानकारी साझा करने के लिए काम करेंगे।
- GME को पहले दुबई मर्केंटाइल एक्सचेंज कहा जाता था। बाद में सऊदी अरब के Tadawul Group ने इसका अधिग्रहण कर लिया। अब यह सऊदी अरब और खाड़ी क्षेत्र में कमोडिटी मार्केट को विकसित करने में अपनी भूमिका निभा रहा है।
- SHFE के साथ उसका करार चीन और खाड़ी देशों के बीच ऊर्जा और कमोडिटी डेरिवेटिव्स के व्यापार को बढ़ावा देने के लिए किया गया है।
- यह चीन की Belt and Road Initiative और सऊदी अरब की Vision 2030 योजनाओं के तहत औद्योगिक सहयोग और सप्लाई चेन को मजबूत करने की दिशा में भी एक पहल है।
कुल मतलब यह है कि सऊदी अरब चीन के साथ अपने कारोबार में आपसी मुद्रा में भुगतान की तरफ बढ़ रहा है। इस दिशा में एक रुकावट चीनी मुद्रा पर सरकारी नियंत्रण रहा है। चीन की मुख्य भूमि पर युवान की कीमत सरकार तय करती है। इसलिए अन्य देश युवान में निवेश को सुरक्षित या फायदेमंद नहीं मानते। चीन सरकार का अपनी मुद्रा को अनियंत्रित करने का कोई इरादा नहीं है। ऐसे में उसने स्वर्ण का सहारा लिया है। सोना सदियों से सबसे सुरक्षित निवेश माना जाता रहा है। तो अब चीन ने ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिसमें हांगकांग गोल्ड वॉल्ट से सोने के बदले युवान और युवान के बदले सोना लिया जा सकता है। इस तरह उसने युवान के अंतरराष्ट्रीयकरण का रास्ता बनाया है।
अब खुद को स्वर्ण के सुरक्षित भंडार के रूप में पेश कर चीन पश्चिम केंद्रित निवेश एवं स्वर्ण कारोबार की एक और व्यवस्था का विकल्प पेश कर रहा है। अनुमान है कि विश्व अर्थव्यवस्था एवं आपूर्ति शृंखलाओं के दो हिस्सों में बंटने की गति इससे तेज होगी। यह तो साफ है कि चीन यह खेल ताकत के बिंदु (point of strength) से खेल रहा है। वह जानता है कि उसके यहां उत्पादित सामग्रियों की जरूरत सबको है, इसलिए सोना उसके यहां रख कर युवान हासिल करना विभिन्न देशों को आकर्षक विकल्प लगेगा। बात युवान के मूल्य की रही, तो इससे संबंधित आशंकाओं को दूर करने के लिए उसने युवान को स्वर्ण समर्थित (gold backed) करना शुरू कर दिया है।
चीन का ऐसा करना ना सिर्फ डॉलर, बल्कि सभी fiat currencies के लिए खतरे की घंटी है। fiat currencies का मूल्य सेंट्रल बैंक के प्रमुख के दस्तखत से तय होता है। जबकि स्वर्ण आधारित मुद्रा उस मूल्य को प्रतिबिंबित करती है, जो उत्पादन और tangible (स्पर्शनीय) वस्तुओं के विनिमय से तय होती है। 1971 तक डॉलर भी gold backed मुद्रा था। बाकी मुद्राओं की कीमत डॉलर से जुड़ी होती थी। मगर 15 अगस्त 1971 को अचानक अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने स्वर्ण और डॉलर का संबंध तोड़ दिया। इसके बावजूद डॉलर महत्त्वपूर्ण बना रहा, तो उसका कारण तब अमेरिका का सबसे बड़ी उत्पादक क्षमता वाला देश होना और पश्चिम एशिया पर उसका गहरा प्रभाव था, जिससे वह पेट्रो-डॉलर का सिस्टम शुरू करवा पाया।
लेकिन अब युग बदल चुका है। अब दुनिया की प्रमुख उत्पादक शक्ति चीन है। उसने सोने का भंडार भी इकट्ठा किया है। अब उसने अपनी मुद्रा को gold backed कर दिया, तो डॉलर सहित अन्य मुद्राओं के सामने अपने मूल्य का आधार ढूंढने की चुनौती पैदा हो जाएगी। जो संकेत हैं, उनसे नहीं लगता कि यह चुनौती दरपेश आने में बहुत लंबा वक्त लगेगा।